कभी बढ़ती
कभी घटती उम्मीदें
साथ जुड़ती
कभी साथ छोड़ती
उम्मीदें
दिमाग में भरकर
बोझ जिस्म पर बनती हैं
गहरे ज़ख्मों से गहरी
होती हैं उम्मीदें।
✓यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
बनी रहें उम्मीदें | सुन्दर |
ReplyDeleteऐसी उम्मीदों का न होना ही अच्छा है
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