प्रतिलिप्याधिकार/सर्वाधिकार सुरक्षित ©

इस ब्लॉग पर प्रकाशित अभिव्यक्ति (संदर्भित-संकलित गीत /चित्र /आलेख अथवा निबंध को छोड़ कर) पूर्णत: मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित है।
यदि कहीं प्रकाशित करना चाहें तो yashwant009@gmail.com द्वारा पूर्वानुमति/सहमति अवश्य प्राप्त कर लें।

15 October 2016

कुछ लोग-37

कुछ लोग
कुछ लोगों को समझ कर
खुद से नीचा
और खुद को
ऊंचा मान कर
न जाने किस गुमान में
हरदम खोए रह कर
सोए रहते हैं
गहरी नींद में
जो जब टूटती है
तब एहसास दिलाती है
उस अंतर का
जो होता है
घमंड
और स्वाभिमान में
शैतान
और इंसान में
पर उस अंतर को समझने में
हो जाती है कभी कभी देर
कि बस अपने अंधेरे में
खोए रह जाते हैं
कुछ लोग
हमेशा के लिए।

~यशवन्त यश ©

11 October 2016

समय की धारा


समय की धारा
तेज़ी से चलते चलते
अपने साथ बहा लेती है
बहुत से कल और आज को
भूत और वर्तमान को
सैकड़ों अवरोधो को भेद कर
कितनी ही बातों को
खुद में समेट कर
थोड़ी रेत का ढेर बन कर
कुछ रुकती है
थमती है
और फिर चलती है
समय की धारा
अपनी अबूझ
मंज़िल की ओर।
 
~यशवन्त यश©

12 April 2016

हज़रत गंज

नवाबों के शहर में जहाँ
बिखरे हैं कई रंग
हजरातों की बस्ती
जिसे कहते हैं हज़रत गंज ।

यह मेरे शहर की
धड़कन है
जान है
इसकी हर अदा पे फिदा
हर बूढ़ा और नौजवान है ।

यहाँ मोटरों के रेले हैं
चाटों के ठेले हैं
यहाँ के बरामदों में
सभ्यताओं के मेले हैं ।

बुर्कानशीं हैं यहाँ
तो बेपरवाह मस्तियाँ हैं
कॉफी की चुस्कीयों संग
साहित्य की गोष्ठियाँ हैं ।

पहनावे मिलते हैं यहाँ
दुकानों पे तरह तरह के
दिखावे दिखते हैं यहाँ
इन्सानों में तरह तरह के ।

मैंने देखा है यहाँ
जूठनों को चाटता बचपन
नवाबों का शहर और
हजरातों का हज़रत गंज।

~यशवन्त यश©

01 April 2016

मूर्खता

मूर्खता
हमारे भीतर
कहीं गहरे
रच बस कर
बना लेती है
अपना
मुस्तखिल ठौर
इस जीवन की
सच्चाईयों
बुराइयों
और
अच्छाइयों के साथ।
शुरू से अंत तक
शून्य से शून्य तक
उसी आरंभ पर
आ मिलकर
सब कुछ अपने में
समेटते हुए
मौन की भाषा में
कुछ कहते हुए
मूर्खता
जब निकलती है
बाहर
सनक और गंभीरता के
अबूझ आवरण से
तब
बन जाती है कारण
औरों के हास्य का
लेकिन खुद में
होती है एक विमर्श
क्या-क्यों और कैसे के
पल पल उभरते
असंख्य प्रश्नों का।

  ~यशवन्त यश©

25 March 2016

बस यूं ही

बस
यूं ही कभी
चलते चलते
थोड़ा रुक कर
सुस्ता कर
एक पड़ाव से
दूसरे पड़ाव की ओर
कंटीले गति अवरोधकों को
लांघ कर
जिंदगी का सफर
जब पहुंचता है
अपने अंत की ओर
तब रह जाता है
सिर्फ घूर घूर कर
देखना
दीये की
लड़खड़ाती -टिमटिमाती
बुझने को बेचैन
लौ की छटपटाहट।

~यशवन्त यश©

12 March 2016

कुछ लोग-36

अंध भक्ति के
रोग से ग्रस्त
कुछ लोग
अंतर नहीं कर पाते
सही और गलत का
कल्पना और
वास्तविकता का
जिंदा और मुर्दा का
आसमान और ज़मीन का .......
ऐसे लोग
हाथ मे सिर्फ लट्ठ लिए
हर पल तलाश मे रहते हैं
उस शिकार की
जो कर नहीं पाता सहन
उनके एकाकी मिथ्या
प्रलाप को......
कुछ लोग
सिर्फ खुद को
खुदा मानते हैं
हर कानून से ऊपर
हर नियम
हर अदालत से ऊपर
सिर्फ वो
उनका लट्ठ
और उनका निर्णय ही
सहिष्णु होता है
और जो वास्तव में
सच होता है
वह उनकी निगाह और
वर्चस्व में
गलत होता है।

~यशवन्त यश©

13 February 2016

अब तो बस यही करम करना है



हर जगह हैं रोकने वाले
हर जगह हैं टोकने वाले
अपने मन की करने वाले
नहीं किसी की सुनने वाले
दौर ए तानाशाही में
कड़वा सच नहीं कुबूलने वाले
बन बैठे जग के रखवाले ।

क्या किसी को कुछ करना है
हाथ पर हाथ धर चुप रहना है
हर बोलने वाले की गर्दन  को
तेज़ छुरी से कलम करना है ।

अब तो बस यही करम करना है।
 
~यशवन्त यश©

01 February 2016

मुझे रंजीत कात्याल ने नहीं बचाया था----विजू चेरियन, असिस्टेंट एडिटर, हिन्दुस्तान टाइम्स



साल 1990 में जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया था, तो वहां से मुझे भारत सरकार ने एयरलिफ्ट किया था, और दो महीने के उस घटनाक्रम की जो यादें मेरे जेहन में हैं, वे अक्षय कुमार की फिल्म एयरलिफ्ट  से बिल्कुल मेल नहीं खातीं। यह फिल्म अभी-अभी बॉक्स ऑफिस पर आई है।
फिल्म में भारत सरकार को संवेदनहीन व अक्षम दिखाया गया है। मगर इस फिल्म को लेकर मेरा अनुभव यही है कि यह सच के कहीं आस-पास भी नहीं है। वास्तव में वह अतिसंवेदनशील बच्चा आज भी दिल से भारत का आभारी है, जिसे उस संकटग्रस्त जगह से निकाला गया था। यह जरूर है कि देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत यह फिल्म गणतंत्र दिवस पर हमारे अंदर राष्ट्रभक्ति का जज्बा बढ़ाती है। मगर मुझे दिक्कत है, तो मुख्य नायक कारोबारी रंजीत कात्याल की भूमिका से, जिन्हें फिल्म में सारा श्रेय दे दिया गया है।
एयरलिफ्ट  फिल्म मैं इसलिए देखने गया था, ताकि अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और रोमांचक घटना को फिर से जी सकूं। जब तत्कालीन इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने अपनी ताकत दिखाने का फैसला किया, तब मैं कुवैत में एक स्कूली छात्र था। हमले के बाद मैं और मेरा परिवार कई हफ्तों तक उस मुल्क में रहे, जहां कोई कामकाजी सरकार नहीं थी और सेना की वर्दी में इराकी नौजवान मशीनगनों के साथ सड़कों पर घूमा करते थे। हमें बस में लाद दिया गया, जो रेगिस्तानी इलाके में सर्पीली सड़कों से गुजरती हुई एक रिफ्यूजी कैंप पर रुकी। यह कैंप नो-मैंस लैंड में बनाया गया था, जो इराक और जॉर्डन के बीच का रेगिस्तानी हिस्सा है। मुझे उम्मीद थी कि एयरलिफ्ट  फिल्म में इस तरह के दृश्य होंगे और मैं कह सकूंगा कि हां, मुझे वह घटना याद है या यह वाकई वैसी ही जगह है, जहां मैं रुका था। मगर अफसोस, फिल्म देखने के बाद मुझे उस डिस्क्लैमर का महत्व समझ में आया, जिसमें यह कहा गया है- इस फिल्म के सभी पात्र व घटनाएं काल्पनिक हैं। अगर किसी भी मृत अथवा जीवित व्यक्ति या स्थान के साथ इनका कोई संबंध पाया जाता है, तो यह महज संयोग है।
फिल्म में अक्षय कुमार रंजीत कात्याल की भूमिका में हैं। कुवैत पर इराकी हमले के बाद उन्हें कथित तौर पर लगभग 1.70 लाख भारतीयों (साथ में एक कुवैती और उनकी बेटी) को इराक और जॉर्डन से होते हुए कुवैत से मुंबई (तब बंबई) लाते दिखाया गया है। जैसा कि फिल्म के निर्माता भी मानते हैं कि अक्षय कुमार की भूमिका दो कारोबारी सनी मैथ्यू और एचएस वेदी के जीवन से प्रेरित है, जिन्होंने वहां से भारतीयों को निकालने में बड़ी भूमिका निभाई थी। मगर निर्देशक राजा कृष्ण मेनन ने कात्याल का ऐसा चित्रण किया है, मानो वह कोई पैगंबर हों, जो रेगिस्तान से भारतीयों को 10 बसों और 15 कारों से निकालते हैं। यह फिल्म में तथ्यों से खिलवाड़ का एक उदाहरण-भर है। 1.70 लाख भारतीयों को महज 10 बसों व 15 कारों से एक ही बार में निकालना क्या संभव है? वह बचाव अभियान कई हफ्तों तक चला था, और जैसा कि मुझे याद है, मेरे कुवैत से निकलने से पहले और बाद में भी लोग वहां से निकाले जाते रहे।
इसी तरह, 1.70 लाख भारतीयों का जो आंकड़ा दिखाया गया है, वह भी अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है। रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा करीब 1.20 लाख ही था।
इराक ने दो अगस्त, 1990 को कुवैत पर हमला बोला था। वह जुमेरात का दिन था, और स्कूल में छुट्टी थी। स्कूली सत्र का अंतिम दिन था वह। हम खाली जगहों और बाजारों में देर तक साइकिल नहीं चला सकते थे। यहां तक कि अपने घर के नजदीक मैदान में फुटबॉल भी नहीं खेल सकते थे। हमें समुद्र के किनारे भी जाने से रोका गया था, क्योंकि ऐसी खबरें आई थीं कि सद्दाम के लड़ाकों ने उसे खोद डाला है। मगर परिवार के बड़े लोगों और बुजुर्गों का जीवन सामान्य ही था। वे गाड़ी चलाते थे और अपने ऑफिस जाते थे। मैं यहां इराक-भारत संबंधों की सराहना जरूर करूंगा कि जो गाडि़यां भारतीय चलाया करते थे, उन्हें रोका नहीं जाता था। बेशक तब खाने-पीने की चीजों का संकट हो गया था, मगर इसमें भी भारतीयों को अपनी पसंद की जगह से खाना खरीदने की अनुमति थी।
हमने 19 या 20 सितंबर को कुवैत छोड़ा। पहले हम बस से इराक के बसरा गए, जहां हमने रात के कुछ घंटे बिताए। वहां से हमें बगदाद पहुंचाया गया, जहां हमने अपनी बसें बदलीं। अगली रात हमने रेगिस्तान के बीच में बने एक कैंप में गुजारी। वहां रात में रेत की आंधी चली, जिससे सब कुछ रेत से ढक गया था; यहां तक कि टेंट और बसें भी। अगली सुबह हम नो-मैंस लैंड पहुंचे, जहां अगले दस दिनों तक के लिए टेंट नंबर ए-87 हमारा घर था। वहां संयुक्त राष्ट्र की तरफ से हमें चादर और कंबल मुहैया कराए गए, क्योंकि रेगिस्तान की रातें काफी ठंडी हो सकती थीं। ट्रकों से खाना भी बंटता था, जिसकी व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र ने ही करवाई थी। वहां रेड क्रॉस की तरफ से चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई गई थी। वहां से हम अम्मान के लिए रवाना हुए और वहां करीब पूरे दिन लाइन में लगने के बाद हमें मुंबई का टिकट मिला।
मुझे इस बात से ज्यादा ऐतराज नहीं है कि एयरलिफ्ट फिल्म में कुवैत से हुए बचाव अभियान की कहानी जिस तरह परोसी गई है, वह मेरी यादों से मेल नहीं खाती। मुझे दिक्कत इससे ज्यादा है कि इसमें तथ्यों से खिलवाड़ किया गया है। इसमें अपनी सुविधा के अनुसार घटनाओं को नए सिरे से गढ़ा गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इस फिल्म के निर्माता नया इतिहास गढ़ रहे हैं। नाटकीयता की छौंक लगाने के चक्कर में इस पटकथा की कुछ घटनाओं को बढ़ाया गया है और नई दिल्ली की भूमिका को भी बुरी तरह से अपमानित किया गया है। आम लोगों के मन में भारतीय नेताओं और नौकरशाहों के प्रति जो आज नाराजगी है, यह फिल्म उसे बड़ी चालाकी से भुनाती है। कुवैत से भारतीयों की सुरक्षित निकासी सुनिश्चित करने में नई दिल्ली के प्रयास को यह खारिज करती है। मगर तथ्य यही है कि तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल खुद इस बचाव अभियान के लिए सद्दाम हुसैन से मिले थे। इस ऑपरेशन के लिए तकलीफ और जोखिम उठाने के बावजूद उनकी चौतरफा आलोचना भी हुई, क्योंकि एक फोटो में वे दोनों एक-दूसरे के साथ गर्मजोशी से गले मिल रहे थे। बहरहाल, एयरलिफ्ट जैसी फिल्म एक उदाहरण है कि जब कोई सरकार अपनी उपलब्धियों को आम लोगों तक पहुंचाने में विफल हो जाती है और फिल्म-निर्माताओं को एक ऐतिहासिक घटना पर जनमत बनाने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है, तो फिर क्या होता है? हालांकि एक ऐसे देश में, जहां अपनी आस्तीन पर देशभक्ति चढ़ाना जरूरी बनता जा रहा है, वहां देशभक्ति से भरपूर दृश्यों वाली एयरलिफ्ट फिल्म आपकी उत्तेजना बढ़ाने की सही खुराक है।

साभार-'हिंदुस्तान'-01/02/2016

30 January 2016

'भारत मे लोकतन्त्र का भविष्य' -डॉ भीम राव अंबेडकर




'भारत मे लोकतन्त्र का भविष्य' शीर्षक से प्रकाशित डॉ भीम राव अंबेडकर के भाषण के अंश 26 जनवरी के 'हिंदुस्तान' से साभार प्रस्तुत हैं।
आज के समय की राजनीति का उनका सटीक पूर्वानुमान गौर करने लायक है।
---------------------------------------------------
ब्बीस जनवरी, 1950 को देश सही अर्थों में आजाद हो जाएगा। उसकी आजादी का क्या होगा? क्या वह अपनी आजादी बरकरार रख पाएगा या उसे खो देगा। यह पहला विचार है, जो मेरे दिमाग में आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी आजाद नहीं रहा, मुद्दा यह है कि पहले भी वह अपनी आजादी खो चुका है।
क्या यह फिर अपनी आजादी खो देगा? यह ऐसा विचार है, जो मुझे भविष्य को लेकर चिंतित कर देता है। जो चीज मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है, वह यह है कि भारत न सिर्फ एक बार पहले भी अपनी आजादी खो चुका है, बल्कि यह इसलिए हुआ कि इसके अपने ही कुछ लोगों ने गद्दारी की। जब मुहम्मद बिन कासिम की सेना ने हमला किया था, तो उसने धार के कुछ सेनापतियों को घूस दी थी। इन सेनापतियों ने बाद में धार के राजा की तरफ से लड़ने से इनकार कर दिया था।
एक जयचंद था, जिसने पृथ्वीराज से लड़ने के लिए मुहम्मद गोरी को आमंत्रित किया था। जब शिवाजी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, तो कई राजाओं ने मुगल सम्राट का साथ दिया था। जब ब्रिटिश सिख शासकों को परास्त करने की कोशिश कर रहे थे, तब प्रमुख सेनापति गुलाब सिंह चुप बैठ गया था, उस कठिन वक्त में उसने अपने राज्य की कोई मदद नहीं की।
ये विचार मुझे इसलिए भी परेशान कर रहे हैं कि जाति और तरह-तरह के विश्वासों जैसे हमारे पुराने दुश्मन तो हैं ही, साथ ही हमारे यहां अब बहुत सारे राजनीतिक दल भी होंगे, जिनका नजरिया हर मुद्दे पर एक-दूसरे का विरोधी हो सकता है। क्या भारतीय अपने देश को इन विश्वासों और मतभेदों से ऊपर रख सकेंगे? मुझे नहीं पता, लेकिन अगर पार्टियां अपने विचार को अपने देश से ऊपर रखेंगी, तो हमारी आजादी हमेशा के लिए खतरे में पड़ जाएगी। हमें इस खतरे से देश को बचाना होगा। हमें यह प्रण लेना चाहिए कि हम अपनी आजादी की रक्षा अपने खून की अंतिम बूंद तक करेंगे।
26 जनवरी,1950 से भारत एक लोकतांत्रिक देश होगा, इस अर्थ में कि यहां जनता की सरकार होगी, जनता के द्वारा होगी और जनता के लिए होगी। फिर वही विचार मेरे दिमाग में आता है कि क्या भारत अपने लोकतांत्रिक संविधान की रक्षा कर पाएगा? क्या वह इसे बरकरार रख पाएगा या खो देगा? यह दूसरा विचार मुझे और भी ज्यादा चिंतित करता है। भारत में पहले भी लोकतंत्र जैसी व्यवस्था वाले गणराज्य रहे हैं, संसदीय व्यवस्था और संसदीय परंपराएं दिखती रही हैं। लेकिन उन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को भारत ने खो दिया। क्या वह फिर इन्हें खो देगा? भारत जैसे देश में खतरा यह भी है कि यहां कहीं लोकतंत्र ही तानाशाही का मार्ग न प्रशस्त कर दे। किसी नए लोकतंत्र के लिए यह बहुत संभव है कि वह अपना रूप तो बरकरार रखे, लेकिन वास्तव में उसकी जगह तानाशाही स्थापित हो जाए। अगर किसी जगह पर भूस्खलन होता है, तो अगली बार उसी जगह पर भूस्खलन का खतरा सबसे ज्यादा होता है।
अगर हम लोकतंत्र के रूप को ही नहीं, इसकी अंतर्वस्तु को भी बचाना चाहते है, तो हमें क्या करना चाहिए? सबसे पहला तरीका तो मेरी समझ से यह है कि हमें सांविधानिक तरीकों का इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए करना चाहिए। इसका अर्थ है कि हमें खूनी क्रांति को छोड़ देना चाहिए। इसका यह भी अर्थ है कि हमें सिविल नाफरमानी, असहयोग और सत्याग्रह जैसी चीजों को भी छोड़ देना चाहिए। जब सामाजिक और आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के लिए कोई सांविधानिक रास्ता न हो, तो ऐसे तरीकों को जायज ठहराया जा सकता है। लेकिन जब संविधान का रास्ता सबके लिए खुला है, तो गैर-सांविधानिक तरीकों का इस्तेमाल जायज नहीं कहा जा सकता। ये तरीके अराजकता का व्याकरण रचने के अलावा कुछ नहीं करेंगे, इनको जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, उतना ही अच्छा है।
दूसरी चीज जो मेरे दिमाग में आ रही है, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की चेतावनी। यह उन लोगों के लिए है, जो लोकतंत्र को बरकरार रखना चाहते हैं। वह कहते हैं कि अपनी स्वतंत्रताओं को किसी भी शख्स, चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो, के चरणों में कभी समर्पित न करें, उस पर विश्वास करके उसे ऐसी शक्तियां कभी न दें, जो लोकतंत्र की संस्थाओं को नीचा करती हों। किसी महान व्यक्ति ने अगर देश की बड़ी सेवा की है, तो उसके प्रति शुक्रगुजार होने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसकी भी एक हद होती है। आइरिश देशभक्त डेनियल ओकोनेल के शब्दों में कहा जाए, तो कोई व्यक्ति अपने सम्मान की कीमत पर शुक्रगुजार नहीं हो सकता, कोई महिला अपनी मर्यादा की कीमत पर शुक्रगुजार नहीं हो सकती और कोई मुल्क अपनी आजादी की कीमत पर शुक्रगुजार नहीं हो सकता।
दूसरे देशों के मुकाबले भारत के लिए यह ज्यादा जरूरी है। यहां राजनीति में भी जिस तरह की भक्ति दिखाई देती है, वैसी दुनिया में और कहीं नहीं दिखाई देती। धर्म के मामले में भक्ति मुक्ति की राह हो सकती है, लेकिन राजनीति में भक्ति निश्चित तौर पर तानाशाही का रास्ता ही खोलेगी।
तीसरी चीज यह है कि हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र बनाना चाहिए। अगर हमने सामाजिक लोकतंत्र का आधार नहीं तैयार किया, तो राजनीतिक लोकतंत्र ज्यादा नहीं चलेगा। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है एक ऐसी जीवन शैली, जो स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के मूल्यों को मान्यता देती है। इन तीनों मूल्यों को अलग-अलग नहीं देखना होगा, इन तीनों की त्रिमूर्ति है और इनमें से एक को भी अलग कर देने का अर्थ है, लोकतंत्र के मकसद को ही पीछे छोड़ देना। स्वतंत्रता को आप बराबरी से अलग नहीं कर सकते, बराबरी स्वतंत्रता से अलग नहीं की जा सकती। इसी तरह, आप स्वतंत्रता और बराबरी को भाईचारे से अलग नहीं कर सकते। अगर बराबरी और स्वतंत्रता नहीं होगी, तो कुछ लोग बाकी पर शासन करने लगेंगे। अभी तक भारत एक ऐसा समाज है, जिसमें श्रेणीगत गैर-बराबरी है। इसलिए ऐसे कुछ लोग हैं, जिनके पास अथाह दौलत है और दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जो पूरी तरह दरिद्रता में जी रहे हैं।
26 जनवरी, 1950 को हम विसंगतियों से भरे जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति में हमारे यहां समता होगी, आर्थिक जीवन में विषमता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट और हर वोट की समान अहमियत के सिद्धांत को मान्यता देंगे। लेकिन हमारी जो सामाजिक और आर्थिक संरचना है, उसके चलते हम हर व्यक्ति की समान अहमियत के सिद्धांत से दूर ही रहेंगे। अगर यह लंबे समय तक चला, तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए जितनी जल्दी हो सके, हमें गैर-बराबरी को खत्म करना होगा।
आजादी निश्चित तौर पर खुशी का कारण होती है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आजादी ने हमें बड़ी जिम्मेदारी भी सौंपी है। आजादी का अर्थ है उस मौके को खो देना, जब हर गलत चीज की जिम्मेदारी ब्रिटिश शासकों पर थोपी जा सकती थी। अगर अब कुछ गलत होता है, तो उसके लिए कोई और नहीं, हम खुद जिम्मेदार होंगे। अब गलत होने का खतरा बहुत बड़ा है।

(संविधान सभा के समापन भाषण का संपादित अंश)

साभार-'हिंदुस्तान'-26/01/2016

~यशवन्त यश©

16 January 2016

मोबाइल और मेल का मायाजाल-पीटर फ्लेमिंग, प्रोफेसर, सिटी यूनिवर्सिटी लंदन

काम करने की लत का सबसे बुरा उदाहरण क्या हो सकता है, यह मुझे मैनेजमेंट के पूर्व सलाहकार ने बताया। उनकी टीम के एक सदस्य गैरी पर कंपनी ने दबाव डाला कि वह छुट्टी मनाने जाएं। कंपनी को उनके 'बर्नआउट' होने, यानी लगतार काम के दबाव से क्षमता चुक जाने का खतरा दिखाई दे रहा था।

यह एक ऐसी समस्या है, जो मौजूदा अर्थव्यवस्था की बड़ी बीमारी है, जिसकी भारी कीमत कंपनियों को चुकानी पड़ती है। नतीजा यह हुआ कि गैरी अपनी गर्लफ्रेंड के साथ दो हफ्ते की छुट्टी पर रवाना हो गए। जब वह छुट्टी मना रहे थे, तो कंपनी ने देखा कि उनकी ई-मेल हर 20 मिनट के अंतराल पर लगातार आ-जा रही हैं। वापस आने पर जब गैरी से इसका कारण पूछा गया, तो पता चला कि हालांकि वह एक समुद्र तट पर छुट्टियां मना रहे थे, लेकिन वह उस समुद्र तट की खूबसूरती में रमकर बैठे नहीं रह सकते थे। कुछ था, जो उनके अंदर लगातार कुलबुलाता रहता था। वह अपने साथ अपना स्मार्टफोन ले गए थे और हर कुछ समय बाद वह टॉयलेट में जाकर ई-मेल देखने और भेजने का काम करते थे। गैरी के सहयोगियों ने इस वाकये का काफी   मजा लिया, लेकिन कुछ लोगों को इस पर चिंता भी हुई।

यह कहना मुश्किल है कि ऑफिस तकनीक का यह रूप अचानक ही परेशानी, तनाव व काम का बोझ कब बन गया? जब  इसकी शुरुआत हुई, तो इसे आजादी का औजार माना जा रहा था। तब ये सोचा गया था कि चलो, सुस्त रफ्तार से आने वाले भारी-भरकम संदेशों से नाता छूटा। पर अब एक औसत कर्मचारी को लगता है कि यह एक अजीबोगरीब-सी निरंकुशता है, जिसकी लत लग जाती है। अगर आप यह समझना चाहते हैं कि इससे पीछा छुड़ाना कितना मुश्किल है, तो शहर के किसी भी कर्मचारी से कहिए कि वह लंच टाइम में अपना मोबाइल बंद कर दे, फिर पता चलेगा कि इससे कितनी तरह की परेशानियां खड़ी हो सकती हैं।

पिछले 15 साल से 'हरदम काम पर' की जो संस्कृति चल पड़ी है, उसकी सबसे अच्छी अभिव्यक्ति मोबाइल फोन है। चार्टेड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट का एक अध्ययन बताता है कि बहुत-से कर्मचारी न चाहते हुए भी अपनी सालाना छुट्टियां रद्द कर देते हैं और कार्यालय से आ जाने के बाद भी काम में लगे रहते हैं। अध्ययन बताता है कि इसी वजह से लोगों की क्षमताएं चुक रही हैं और स्वास्थ्य की समस्याएं भी पैदा हो रही हैं।

लेकिन यहां अब एक दूसरा मुद्दा है। स्मार्टफोन में ऐसा कुछ नहीं है, जो लोेगों पर ऑफिस का समय समाप्त हो जाने के बाद भी ई-मेल भेजने का दबाव बनाता हो। यह तो बस सिलिकॉन और प्लास्टिक का छोटा-सा टुकड़ा भर है। अगर हम इसे बंद नहीं कर पाते, तो इसका अर्थ है कि इस दबाव का कारण कहीं और है। बेशक इसका एक कारण यह हो सकता है कि कम लोगों से ज्यादा काम लिया जा रहा है। लागत में कटौती के दौर में कई जगह यह रोजगार नीति का स्थायी हिस्सा है। लेकिन इस बीच कई दूसरे बदलाव भी हुए हैं।

कुछ नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार, लोग अब अपने आप को इंसान मानने की बजाय 'मानव पूंजी' यानी 'ह्यूमन कैपिटल' मानने लग गए हैं। एक ऐसी पूंजी, जिसमें निवेश कभी नहीं रुकता। इसकी क्षमताएं, इसकी सोच और इसके रंग-रूप को हमेशा निखारा जा सकता है। इस पूंजी को बढ़ाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है काम करना। काम ही ऐसा तरीका है, जिससे इसका विकास परिभाषित होता है। यही वह बिंदु है, जहां रोजगार और जीवन धीरे-धीरे एक-दूसरे में इतना घुल-मिल जाते हैं कि उन्हें अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है। अब काम का अर्थ वह नहीं रह गया है, जिसे हम किसी सामाजिक लक्ष्य को पाने के लिए करते हैं। अब यह ऐसी गतिविधि है, जिसके अपने अलग लक्ष्य हैं। अब काम का अर्थ है हर रोज 24 घंटे सक्रिय रहना। खुद अपना शोषण करना हमें निजी स्वतंत्रता की तरह लगता है।

व्यापक अर्थ में देखें, तो तकनीक ने मानव पूंजी के आर्थिक सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में संभव बनाया है। इसलिए कोई हैरत नहीं कि कुछ लोगों को अब अपने फोन के साथ ही सोने की आदत पड़ गई है- अगर कोई जरूरी फोन आ ही गया तो? पहनी जा सकने वाली तकनीक, अपने ऊपर प्रशासन करने के एप और सोशल मीडिया, सब इस मानव पूंजी के हिसाब से ही बनाए जा रहे हैं। इस लिहाज से यह सोचना शायद गलत है कि औद्योगिक काल के बाद का काम अतीत में फैक्टरियों में होने वाले काम की तुलना में कम मेहनत वाला है। इसमें व्यक्तित्व पर नियंत्रण को जोड़ दिया गया है, और इससे जो स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं, वे बताती हैं कि हम अब भी भौतिक मेहनत वाले समाज में ही जी रहे हैं।

ऐसे हालात में हम क्या कर सकते हैं? डेविड कैमरन के सलाहकार रहे स्टीवन हिल्टन आजकल सिलिकॉन वैली में कारोबार करते हैं। वह बताते हैं कि पिछले एक साल से वह अपने पास फोन ही नहीं रख रहे। लेकिन यह तरीका एक वैकल्पिक जीवन शैली की तरह है और हर कोई इसे नहीं कर सकता। यह एक ऐसी समस्या है, जिसे किसी आधुनिक थेरेपी या निजी आध्यात्मिक प्रयास से नहीं सुलझाया जा सकता। इसकी जड़ में आर्थिक व सामाजिक आग्रह हैं और इसे उसी स्तर पर सुलझाया जा सकता है। कुछ देशों ने ऐसे नियम-कायदे बनाए हैं, जिनमें कार्यालय की अवधि के बाद काम से संबंधित ई-मेल रोक दी गई है।
इसके पीछे का तर्क भी आर्थिक ही है, क्योंकि इसकी वजह से पैदा तनाव और बर्नआउट से उत्पादकता घटती है। कुछ कंपनियों ने यह प्रावधान किया है कि अगर कर्मचारी छुट्टी पर गया है, तो उसकी ई-मेल अपने आप डिलीट हो जाएंगी। छुट्टी से लौटने पर अगर आपको अपनी इनबॉक्स में ढेर सारी मेल दिखें, तो वे किसी मुसीबत से कम नहीं लगतीं। लेकिन यह समस्या तकनीक की पैदा की हुई नहीं है। स्मार्टफोन और ई-मेल से पैदा हुई परेशानियां दरअसल काम के प्रति हमारी उस सनक को दिखाती हैं, जहां हम सब मानव पूंजी हैं और इसे स्विच ऑफ नहीं किया जा सकता। इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है।

साभार- द गार्जियन
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


'हिंदुस्तान'-16/01/2016 संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित

14 January 2016

सच है कि ज़माना बदल जाता है

सूरज
जो कभी पहाड़ों
और पेड़ों की ओट से निकलता था
अब ऊंची मीनारों
और मकानों की छतों निकल कर
इतराता है
सच है कि ज़माना बदल जाता है ।
~यशवन्त यश©

11 January 2016

कुछ लोग-35

कुछ लोग
अपनी हर बात
जरूरी समझते हैं
बिना उसकी
तह और गहराई में जाए
सिर्फ किनारे पर
खड़े रह कर
नापना चाहते हैं
भूगोल
नदी और सागर का
पर क्या
सिर्फ बातों से
नापा जा सकता है
सब कुछ ?
कुछ लोग
धरातल पर आए बिना
बस उड़ते रहते हैं
यूं ही
इसी तरह ।

~यशवन्त यश©

06 January 2016

युद्ध् न होने देंगे भाई- रमेशराज

एटम का विस्फोट करेंगे
लेकिन गांधी बने रहेंगे
एक गाल पर थप्पड़ खाकर
दूजा गाल तुरत कर देंगे
भले भून डाले जनता को
आतंकी या आताताई
युद्ध् न होने देंगे भाई।
दुश्मन कूटे-पीसे मारे
चिथड़े-चिथड़े करे हमारे
हम केवल खामोश रहेंगे
भले युद्ध् को वो ललकारे
खुश हो चखते सिर्फ रहेंगे
हम सत्ता की दूध्-मलाई
युद्ध् न होने देंगे भाई।
कितने भी सैनिक शहीद हों
पाकिस्तान किन्तु जायेंगे
हम शरीफ के साथ बैठकर
अपनी फोटो खिंचवायेंगे
खाकर पाकिस्तानी चीनी
खत्म करें सारी कटुताई
युद्ध् न होने देंगे भाई।
अब हम को कुछ याद नहीं है
क्या थी धारा तीन सौ सत्तर
हम तो केवल इतना जानें
खून नहीं है खून का उत्तर
भगत सिंह, बिस्मिल को छोड़ो
हम गौतम-ईसा अनुयायी
युद्ध् न होने देंगे भाई।
दुश्मन आता है तो आये
हम अरि को घर आने देंगे
पार नियंत्रण रेखा के हम
सेना कभी न जाने देंगे
दुश्मन बचकर जाये हंसकर
हमने ऐसी नीति बनायी
युद्ध् न होने देंगे भाई!
यदि हम सबसे प्यार जताएं
हिंसा के बादल छंट जाएं
अपना है विश्वास इस तरह
सच्चे मनमोहन कहलाएं
भले कहो तुम हमको कायर
पाटें पाक-हिन्द की खाई
युद्ध् न होने देंगे भाई ।
 

-रमेशराज©
जनवादी लेखक संघ -फेसबुक ग्रुप से साभार

04 January 2016

करें क्यो परवाह......

लोगों का कम है कहना
कहते रहेंगे
हम यूं ही हाथी बन कर
चलते रहेंगे

करें क्यो परवाह
बे मौसम बरसातों की
बे शरम बादल हैं
गरजते रहेंगे

मन के मालिक हैं
मन के गुलाम हमीं हैं
मन की बातें इन पन्नों पर
ऐसे ही लिखते रहेंगे।

~यशवन्त यश©

03 January 2016

लोग कहते हैं......

लोग कहते हैं
ज्ञान बाँटने से बढ़ता है
लेकिन
यह भी सच है
जो बाँटता है
वह ही धोखा खाता है
और फँसता है
ज़माने के
जाल में।
~यशवन्त यश©

02 January 2016

आत्महत्या

आत्महत्या
कायरता है
सिर्फ
उन चंद लोगों की नज़रों में
जिन्हें अंदाज़ा नहीं होता
अवसाद के चरम का ...
आत्महत्या
कायरता नहीं
सिर्फ
एक आसान रास्ता है
कँटीले रास्तों से
बच निकलने का ...
आत्महत्या
हत्या नहीं
गुनाह नहीं
सिर्फ चाहत है
खुद से मुक्त होने का।

~यशवन्त यश©

01 January 2016

हर बीता पल कुछ सिखाता है

हर बीता पल
कुछ सिखाता है
हर आने वाला पल
नये सपने सजाता है
बीतना, आना
और फिर बीतना
कभी हारना
और फिर जीतना
मन की गहरी नदी की
बेपरवाह लहरों के साथ
जो ठोकरें खाता है
पत्थरों से टकराता है
वही उस पर
अपने साहिल से मिल पता है
हर बीता पल
कुछ नया सिखाता है।

~यशवन्त यश©
+Get Now!