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28 March 2015

क्रन्तिकारी राम---विजय राजबली माथुर (राम नवमी विशेष)

रामनवमी के अवसर पर प्रस्तुत है मेरे पिता जी का यह आलेख जो उन्होने लगभग 30 वर्ष पहले लिखा था और आगरा एक स्थानीय साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित भी हुआ था -
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हात्मा गांधी ने भारत में राम राज्य का स्वप्न देखा था.राम कोटि-कोटि जनता के आराध्य हैं.प्रतिवर्ष दशहरा और दीपावली पर्व राम कथा से जोड़ कर ही मनाये जाते हैं.परन्तु क्या भारत में राम राज्य आ सका या आ सकेगा राम के चरित्र को सही अर्थों में समझे बगैर?जिस समय राम का जन्म हुआ भारत भूमि छोटे छोटे राज तंत्रों में बंटी हुई थी और ये राजा परस्पर प्रभुत्व के लिए आपस में लड़ते थे.उदहारण के लिए कैकेय (वर्तमान अफगानिस्तान) प्रदेश के राजा और जनक (वर्तमान बिहार के शासक) के राज्य मिथिला से अयोध्या के राजा दशरथ का टकराव था.इसी प्रकार कामरूप (आसाम),ऋक्ष प्रदेश (महाराष्ट्र),वानर प्रदेश (आंध्र)के शासक परस्पर कबीलाई आधार पर बंटे हुए थे.वानरों के शासक बाली ने तो विशेष तौर पर रावण जो दूसरे देश का शासक था,से संधि कर रखी  थी कि वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करेंगे.ऎसी स्थिति में आवश्यकता थी सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोकर साम्राज्यवादी ताकतों जो रावण के नेतृत्व में दुनिया भर  का शोषण कर रही थीं का सफाया करने की.लंका का शासक रावण,पाताल लोक (वर्तमान U S A ) का शासक ऐरावन और साईबेरिया (जहाँ छः माह की रात होती थी)का शासक कुम्भकरण सारी दुनिया को घेर कर उसका शोषण कर रहे थे उनमे आपस में भाई चारा था.

भारतीय राजनीति के तत्कालीन विचारकों ने बड़ी चतुराई के साथ कैकेय प्रदेश की राजकुमारी कैकयी के साथ अयोध्या के राजा दशरथ का विवाह करवाकर दुश्मनी को समाप्त करवाया.समय बीतने के साथ साथ अयोध्या और मिथिला के राज्यों में भी विवाह सम्बन्ध करवाकर सम्पूर्ण उत्तरी भारत की आपसी फूट को दूर कर लिया गया.चूँकि जनक और दशरथ के राज्यों की सीमा नज़दीक होने के कारण दोनों की दुश्मनी भी उतनी ही ज्यादा थी अतः इस बार निराली चतुराई का प्रयोग किया गया.अवकाश प्राप्त राजा विश्वामित्र जो ब्रह्मांड (खगोल) शास्त्र के ज्ञाता और जीव वैज्ञानिक थे और जिनकी  प्रयोगशाला में गौरय्या चिड़िया तथा नारियल वृक्ष का कृत्रिम रूप से उत्पादन करके इस धरती  पर सफल परीक्षण किया जा चुका था,जो त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (सेटेलाइट) को अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित कर चुके थे जो कि आज भी आकाश में ज्यों का त्यों परिक्रमा कर रहा है,ने विद्वानों का वीर्य एवं रज (ऋषियों का रक्त)ले कर परखनली के माध्यम से एक कन्या को अपनी प्रयोगशाला में उत्पन्न किया जोकि,सीता नाम से जनक की दत्तक पुत्री बनवा दी गयी. वयस्क होने पर इन्हीं सीता को मैग्नेटिक मिसाइल (शिव धनुष) की मैग्नेटिक चाभी एक अंगूठी में मढवा कर दे दी गयी जिसे उन्होंने पुष्पवाटिका में विश्वामित्र के शिष्य के रूप में आये दशरथ पुत्र राम को सप्रेम भेंट कर दिया और जिसके प्रयोग से राम ने उस मैग्नेटिक मिसाइल उर्फ़ शिव धनुष को उठाकर नष्ट कर दिया जिससे  कि इस भारत की धरती पर उसके प्रयोग से होने वाले विनाश से बचा जा सका.इस प्रकार सीता और राम का विवाह उत्तरी भारत के दो दुश्मनों को सगे दोस्तों में बदल कर जनता के लिए वरदान के रूप में आया क्योंकि अब संघर्ष प्रेम में बदल दिया गया था.

कैकेयी के माध्यम से राम को चौदह  वर्ष का वनवास दिलाना राजनीतिक विद्वानों का वह करिश्मा था जिससे साम्राज्यवाद के शत्रु   को साम्राज्यवादी धरती पर सुगमता से पहुंचा कर धीरे धीरे सारे देश में युद्ध की चुपचाप तय्यारी की जा सके और इसकी गोपनीयता भी बनी रह सके.इस दृष्टि से कैकेयी का साहसी कार्य राष्ट्रभक्ति में राम के संघर्ष से भी श्रेष्ठ है क्योंकि कैकेयी ने स्वयं विधवा बन कर जनता की प्रकट नज़रों में गिरकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की बलि चढ़ा कर राष्ट्रहित में कठोर निर्णय लिया.निश्चय ही जब राम के क्रांतिकारी क़दमों की वास्तविक गाथा लिखी जायेगी कैकेयी का नाम साम्राज्यवाद के संहारक और राष्ट्रवाद की सजग प्रहरी के रूप में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा.

साम्राज्यवादी -विस्तारवादी रावण के परम मित्र  बाली को उसके विद्रोही भाई  सुग्रीव की मदद से समाप्त  कर के राम ने अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादियों की शक्ति को कमजोर कर दिया.इसी प्रकार रावण के विद्रोही भाई विभीषण से भी मित्रता स्थापित कर के और एयर मार्शल (वायुनर उर्फ़ वानर) हनुमान के माध्यम से साम्राज्यवादी रावण की सेना व खजाना अग्निबमों से नष्ट करा दिया.अंत में जब राम के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों और रावण की साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियों में खुला युद्ध हुआ तो साम्राज्यवादियों की करारी हार हुई क्योंकि,कूटनीतिक चतुराई से साम्राज्यवादियों को पहले ही खोखला किया जा चुका था.जहाँ तक नैतिक दृष्टिकोण का सवाल है सूपर्णखा का अंग भंग कराना,बाली की विधवा का अपने देवर सुग्रीव से और रावण की विधवा का विभीषण से विवाह कराना* तर्कसंगत नहीं दीखता.परन्तु चूँकि ऐसा करना साम्राज्यवाद का सफाया कराने के लिए वांछित था अतः राम के इन कृत्यों पर उंगली नहीं उठायी जा सकती है.

अयोध्या लौटकर राम ने भारी प्रशासनिक फेरबदल करते हुए पुराने प्रधानमंत्री वशिष्ठ ,विदेश मंत्री सुमंत आदि जो काफी कुशल और योग्य थे और जिनका जनता में काफी सम्मान था अपने अपने पदों से हटा दिया गया.इनके स्थान पर भरत को प्रधान मंत्री,शत्रुहन को विदेश मंत्री,लक्ष्मण को रक्षा मंत्री और हनुमान को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया.ये सभी योग्य होते हुए भी राम के प्रति व्यक्तिगत रूप से वफादार थे इसलिए राम शासन में निरंतर निरंकुश होते चले गए.अब एक बार फिर अपदस्थ वशिष्ठ आदि गणमान्य नेताओं ने वाल्मीकि के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीके से सीता को निष्कासित करा दिया जो कि उस समय   गर्भिणी थीं और जिन्होंने बाद में वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय ले कर लव और कुश नामक दो जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया.राम के ही दोनों बालक राजसी वैभव से दूर उन्मुक्त वातावरण में पले,बढे और प्रशिक्षित हुए.वाल्मीकि ने लव एवं कुश को लोकतांत्रिक शासन की दीक्षा प्रदान की और उनकी भावनाओं को जनवादी धारा  में मोड़ दिया.राम के असंतुष्ट विदेश मंत्री शत्रुहन लव और कुश से सहानुभूति रखते थे और वह यदा कदा वाल्मीकि के आश्रम में उन से बिना किसी परिचय को बताये मिलते रहते थे.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के परामर्श पर शत्रुहन ने पद त्याग करने की इच्छा को दबा दिया और राम को अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति से अनभिज्ञ रखा.इसी लिए राम ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तो उन्हें लव-कुश के नेतृत्व में भारी जन आक्रोश का सामना करना पडा और युद्ध में भीषण पराजय के बाद जब राम,भारत और शत्रुहन बंदी बनाये जा कर सीता के सम्मुख पेश किये गए तो सीता को जहाँ साम्राज्यवादी -विस्तारवादी राम की पराजय की तथा लव-कुश द्वारा नीत लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत पर खुशी हुई वहीं मानसिक विषाद भी कि,जब राम को स्वयं विस्तारवादी के रूप में देखा.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के हस्तक्षेप से लव-कुश ने राम आदि को मुक्त कर दिया.यद्यपि शासन के पदों पर राम आदि बने रहे तथापि देश का का आंतरिक प्रशासन लव और कुश के नेतृत्व में पुनः लोकतांत्रिक पद्धति पर चल निकला और इस प्रकार राम की छाप जन-नायक के रूप में बनी रही और आज भी उन्हें इसी रूप में जाना जाता है.

साभार-क्रांति स्वर 


27 March 2015

एक कालजयी कृति के बनने की कहानी--क्षमा शर्मा जी का आलेख

हाल ही में बाल साहित्य से जुड़ी साहित्य अकादेमी की गोष्ठी में एक महिला वक्ता ने कहा कि हमें एलिस इन वंडरलैंड और पंचतंत्र से मुक्त होना होगा। किसी हद तक उनकी बात सही हो सकती है, मगर यह भी सोचने की बात है कि एलिस इन वंडरलैंड आज तक न सिर्फ बच्चों में, बल्कि बड़ों के बीच भी बेहद लोकप्रिय है। इस पुस्तक को बच्चों के बीच आए 150 साल हो चुके हैं। न जाने कितनी पीढ़ियां इसे पढ़कर बड़ी हुई हैं। यह  पुस्तक एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो बोलने वाले खरगोश के बिल में गिरकर एक अनोखे राज्य में पहुंच जाती है। वहां उसका सामना विचित्र व जादुई दुनिया से होता है।

बच्चे कुतूहल और फिर क्या हुआ, कैसे हुआ, क्या ऐसा हो सकता है आदि बातों को बहुत पसंद करते हैं। इस पुस्तक की डेढ़ सदी से चली आती लोकप्रियता इसी का प्रमाण है। इसे अंग्रेजी की सबसे अधिक लोकप्रिय किताब माना जाता है। कैसा संयोग है कि एलिस व हैरी पॉटर, दोनों जादुई दुनिया के पात्र हैं, दोनों ब्रिटेन से आते हैं और दोनों किताबें अंग्रेजी में लिखी गई हैं। एलिस इन वंडरलैंड को लुइस कैरोल का लिखा माना जाता है। पर पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि यह असली नाम नहीं है। इसके लेखक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के गणित के प्रोफेसर चाल्र्स लुडविग डॉज्सन थे। इसकी रचना का किस्सा बेहद मजेदार है।

हेनरी लिडिल भी ऑक्सफोर्ड में पढ़ाते थे और उनके कई बच्चों में एलिस नाम की एक बच्ची भी थी। चाल्र्स लुडविग हेनरी के दोस्त थे। बच्चे उन्हें बहुत पसंद करते थे, क्योंकि वह बच्चों को तरह-तरह की कहानियां सुनाते थे। एक बार बच्चों के साथ चाल्र्स नाव में सैर कर रहे थे। इसी दौरान बच्चों के आग्रह पर उन्होंने एक कहानी सुनाई। इसकी नायिका एलिस ही थी। इस रोमांचक कहानी को सुनकर बच्चे बहुत खुश हुए। एलिस ने उनसे इसे लिखने को कहा। चाल्र्स ने इसे लिखकर अपने दोस्त को दिखाया। दोस्त और उनके बच्चों को भी यह उपन्यास बहुत पसंद आया। चार्ल्स ने लिखते वक्त बाकायदा रिसर्च की कि उस इलाके में कौन-कौन से जानवर पाए जाते हैं। साल 1865 में इस पुस्तक को मैक्मिलन ने छापा। इससे पहले क्रिसमस गिफ्ट के रूप में चार्ल्स ने इसकी हस्तलिखित प्रति एलिस को भेंट की थी। तब इसका नाम एलिसिज एडवेंचर्स इन वंडरलैंड था। लेखक ने पुस्तक में एलिस को नायिका बनाया था। मगर चार्ल्स से जब भी पूछा गया, उन्होंने इससे इनकार किया कि उनकी पुस्तक की नायिका वही एलिस है, जिसे वह जानते हैं। हालांकि असली एलिस और कहानी की नायिका एलिस, दोनों का जन्मदिन एक ही था ‘चार मार्च।’ एलिस ने वह हस्तलिखित प्रति 1926 में नीलाम कर दी। एलिस के पति की मृत्यु हो चुकी थी और वह गरीबी में दिन काट रही थीं। इस नीलामी से उन्हें 15,400 पौंड मिले थे, जो उस समय एक बड़ी राशि थी।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)  

25 March 2015

कुछ ख्याल......

अनजानी दिशाओं की ओर
यात्रा पर निकले
कुछ ख्याल 
कभी पा लेते हैं
अपनी मंज़िल
और कभी
देहरी छूने से पहले ही
हो जाते हैं
गुमशुदा
हमेशा के लिये  ....
बादलों के संग
तूफानी हवा के संग
बहते -उड़ते
कुछ ख्याल 
कभी आ गिरते हैं
धरती पर
चोटिल हो कर
उखड़ती साँसों को
बेहोशी में गिनते हुए
बस तरसते रहते हैं
जीवन नीर की
दो बूंदों को
यूं ही मन में
जगह बनाते
कुछ ख्याल।

~यशवन्त यश©

23 March 2015

सपनों का समुद्र

सपनों के समुद्र मे
तैरता मन
जाने
क्या क्या ढूंढ लाता है
गहराई से
कभी सुनहरे
चमकदार
अनजाने पत्थर
जो किसी के लिए
कोई मूल्य नहीं रखते
और किसी के लिए
अमूल्य होते हैं
और कभी
निकाल लाता है
कुछ ऐसे ख्याल 
जिनका गहराई मे
कहीं दबे रहना ही
अच्छा है .....
पर शायद
अब शान्त हो जाएगा 
सपनों का समुद्र
जिसकी लहरों में
हर समय
बनी रहने वाली हलचल 
कभी थकती नहीं
रुकती नहीं
अपनी गति से
कभी बहा ले जाती हैं
अनकही बातें
और कभी
किनारे छोड़ जाती हैं
ढेर सारे किस्से ।

~यशवन्त यश©

22 March 2015

साहित्य के नए शो रूम --सुधीश पचौरी

साहित्य ‘सम्मान-युग’ में प्रवेश कर गया है। आजकल साहित्य को इतनी तरह से और इतनी बार सम्मानित किया जाने लगा है कि साहित्य घर का ‘शो रूम’ बना जा रहा है। अगर इस दशक और अगले दशक तक ऐसा ही चलता रहा, तो दिल्ली के सदर बाजार, कनॉट प्लेस, करोलबाग, पंखा रोड, ग्रेटर कैलाश और मॉल्स आदि एकदम सूने हो जाएंगे और उनके शो रूम लेखकों के घर उठकर आ जाएंगे। साहित्य एक दिन किसी विराट मॉल का एक शो रूम बन जाएगा। यकीन न हो, तो आज आप किसी भी साहित्यकार के ड्रॉइंग रूम को देख लें। वे छोटे-मोटे शो रूम बन चले हैं, जिनमें साहित्य से ज्यादा उनको अनिवार्यतया प्रदान किए गए और उतने ही हर्ष से उनके द्वारा लिए गए ढेर सारे प्रतीक चिन्ह सजे होते हैं।

जिस संख्या में और जिस-तिस द्वारा साहित्य को सम्मान दिए जाने लगे हैं, उससे एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि घर में साहित्यकार के लिए जगह ही न बचे और मुफ्त में मिले प्रतीक चिन्ह ही रह जाएं। ‘यशस्वी’ साहित्यकार को अपने घर का चबूतरा तक नसीब न हो। एक जमाना रहा, जब साहित्य में विचारधारा ने जरा-सा मुंह मारना शुरू किया ही था कि बहुत से साहित्यकार चिल्लाने लगे कि विचारधारा बाहरी चीज है। साहित्य में इससे बाहर की चीज का प्रवेश वर्जित है। कई लेखक लिखने से पहले लिखा करते थे: नो आइडियोलाजी! एक लेखक ने तो अपने दरवाजे के बाहर लिखकर टांग दिया था: कुत्ते व विचारधारा वालों का प्रवेश वर्जित! विचारधारा की एंट्री करवाने वालों और न करने देने वालों के बीच लंबी लड़ाई चली!

तब जरा-सी बात पर इतना घमासान रहा,  लेकिन आज साहित्य अपने आप ही साहित्येतर से इस कदर घिरा जा रहा है और फिर भी किसी को नहीं सूझता कि कुछ कहे। लेकिन हम तो कहेंगे, क्योंकि हमी जानते हैं कि यह नया साहित्येतर साहित्य के लिए खतरा है। आप किसी भी साहित्यकार के घर को विजिट करके देखें। आपको वहां साहित्य कम दिखेगा और साहित्येतर सामान ज्यादा दिखेगा। हर लेखक के ड्रॉइंग रूम में उसके साहित्य की जगह घेरने वाले दो-चार से लेकर दर्जन तक प्रतीक-चिन्ह सजे मिलेंगे, जो बता रहे होंगे कि यह साहित्यकार जगह-जगह नाना भांति सम्मानित हो चुका है और आगे भी होगा।

प्रतीक चिन्ह पर मोहनजोदड़ो कालीन टाइप किसी की समझ में न आ सकने वाला कोई चिन्ह बना होगा, जिसके ऊपर या नीचे सुपर समादृत लेखक का नाम विनय पूर्वक लिखा होगा, लेखक के नाम के ऊपर ‘सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हुई संस्था’ या संस्थान का नाम लिखा होगा, नीचे कोने में उसका या संस्था का मोबाइल नंबर और ई-मेल भी लिखा होगा! सभी मानते हैं कि साहित्यकार मार्गदर्शक, समाज का रक्षक, समाजहित में सदा लीन, मनीषी, शब्दों का ब्रह्म और आवश्यकता पड़ने पर मठ और गढ़ सब कुछ को तोड़ने-फोड़ने वाला और वर्गयुद्ध में कविता से सर्वहारा में जोश फूंकने वाला, ‘शक्ति का करो तुम आराधन’ कहकर जीत दिलाने वाला होता है।

इसीलिए हर सम्मानकर्ता लेखक को एक थैला, एक शॉल, एक-दो किलो की पत्रिकाएं/ स्मारिकाएं, एक राइटिंग पैड और एक बॉल पेन और कम से कम एक-दो किलो तक वजन का सामान दे डालता है, ताकि वह साहित्य वीर इस ‘प्रीति बोझ’ को अपने क्रांतिकारी कंधों पर प्रीति पूर्वक लटकाकर घर ले जा सके और घर को साहित्य का शो रूम बना सके।

साभार-livehindustan.com

21 March 2015

कुछ लोग -13

खुद की पहचान से अनजान
कुछ लोग
नहीं कर पाते अंतर
मिट्टी और हीरे में
रहते हैं धोखे में
समझते हुए
खुद को
बहुत बड़ा पारखी
बहुत बड़ा जौहरी
लेकिन नहीं जानते
कि जो
उनके हाथ से छूट कर
अभी गिरा है
वह कीमती है 
उसका टूटना
उसका बिखरना
चारों तरफ
दर्द भरी
उसकी आहों का गूंजना 
मन के भीतर
किसी तीखी
चुभन से कम नहीं
और जब
ऐसे लोगों को
होता है एहसास
जब समझ आती है
सही चीज की
सही कीमत
तब तक
समय जा चुका होता है
अपनी अलग राह
फिर
हज़ार माफी के बाद भी
पछतावे के बाद भी
रह ही जाता है दर्द
रह ही जाती है खरोंच 
पड़ ही जाती है गांठ
जीवन के
एक अध्याय में।

~यशवन्त यश©

20 March 2015

वैसा ही हूँ

शून्य से चलकर
शून्य पर पहुँच कर
शून्य मे उलझ कर
शून्य सा ही हूँ

जैसा था पहले
वैसा ही हूँ ।

देखता हूँ सपने
सुनहरी राहों के नींद में
हर सुबह को काँटों पर
चलता ही हूँ

जैसा था पहले
वैसा ही हूँ ।

जो मन में आता है
उसे यहीं पर लिख कर
कुछ अपने ख्यालों में
जीता ही हूँ

जैसा था पहले
वैसा ही हूँ ।
 
~यशवन्त यश©

19 March 2015

सोशल मीडिया मे प्रयोग होने वाले संक्षिप्त शब्द और उनके पूरे अर्थ

सोशल मीडिया जैसे फेसबुक व्हाट्सएप आदि पर कभी कभी हमारे मित्र कुछ ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं जिनका सही अर्थ हमें किसी शब्दकोश मे भी मिलना मुश्किल होता है। 

BST से साभार यहाँ  प्रस्तुत हैं कुछ ऐसे ही चुनिन्दा शब्द और उनके अर्थ-
Slang Code              Full Form
ASAPAs Soon As Possible
ASAICAs Soon As I Can
LOLLaugh Out Loud
ASLTell me your Age,Sex and Location
TUThank You
GMGood Morning
GEGood Evening
GNGood Night
JFYJust For You
MTUKMore Than You Know
OSLTOr Something Like That
ACCActually
ACEExcellent or Great
AFSAlways Forever and Seriously
APPApplication
AUOI don't know
AWAny Way
B4Before
BBSBe Back Soon
BBLBe Back Later
BBNBe Back Never
BBTBe Back Tomorrow
BFBoy Friend
GFGirl Friend
BFFBest Friend Forever
BOTBack On Topic
BBZBabes
CYLCatch You Later
D8Date
DAMDon't Ask Me
DAQDon't Ask question
DARLDarling
DATThat
DDTDon't Do That
F9Fine
FBFFacebook Friend
G2EGo To Eat
G8Great
GTHGo To Hell
H2CUSHope To See You Soon
HAGLHave A Good Life
HAGDHave A Good Day
HAGNHave A Good Night
HAGEHave A Good Evening
HANDHave A Nice Day
HBUHow About You
HDUHow Dare You
HEYHello, Hi
HFHave Fun
HHOJHa Ha, Only Joking
HHOKHa Ha, Only Kidding
HHVFHa Ha, Very Funny
hm...Thinking
I<3U, ILU, ILYI Love You!
IASIn A Second
IBI'm Back
IHSI Hope So
IILI'm in Love
IKI Know
J4FJust For Fun
J4LJust For Laugh
J4UJust For You
JLTJust Like That
KOkay
KLCool
B4Before
M/FAre you Male or Female
IDKI Don't Know
L8Later
L8ERLater
ME2Me Too
NAnd
N2GNeed To Go
NOPENo
O7Salute
OOPSIf you make a mistake, you can say
OYEListen up
PPLPeople
PROProfessional
PLZPlease
PMPrivate Message
Q&AQuestion and Answer
RI8Right
S2USame to You
SRYSorry
THANQThank You
THANX, TNX, TXThanks
THNThen
TTLYTotally
TTULTalk To You Later
TTUSTalk To You Soon
UYou
URYour
W/With
W/OWithout
W/EWhatever
W8Wait
WCWelcome
W^What's up
XLNTExcellent
X_XDead
YWhy
YEAH, YHYes
SDSweet Dreams
WTFWhat The F**k
BTWBy The Way
BRBBe Right Back
JKJust Kidding
zzzSleeping
JKJust Kidding
FYIFor Your Information
FBFacebook
WTHWhat The Hell
LMKLet Me Know
OMGOh! My God                                                                             

18 March 2015

मैं कुछ भी नहीं

यूं ही
मन के भीतर की
अनकही बातें
कागज़ के पन्नों से
कह कर
कर लेता हूँ शांत
कहीं धधकती
जज़्बातों की लपटों को
जो बेचैनी में
हो उठती हैं
और ज्यादा उग्र
जब नहीं होता कोई भी
कहीं आसपास 
कुछ सुनने को
तब
लिखने को 
चुनता हूँ
वही कुछ पुराने शब्द
जो दोहराते हैं
खुद को
हमेशा की तरह
नये अंदाज़ में
बिखर कर
छिटक कर
अर्थ
और अनर्थ का
तमाशा बनते हुए
चढ़ा देते हैं मुझे
औरों की नज़रों में
कहीं ऊपर
जबकि
शून्य के
धरातल पर भी
मैं कहीं
कुछ भी नहीं। 

~यशवन्त यश©

17 March 2015

जीरो रिस्क वाला लेखन-सुधीश पचौरी

पहली नजर में लगता है कि तमिल के लेखक असली हैं और हिंदी के नकली। लेकिन पिछले दिनों दो तमिल लेखकों का उनकी जनता से जैसा संबंध नजर आया, उसे देखकर कहना होगा कि अपना हिंदी लेखक नकली होकर भी तमिल से असली है।
माना कि तमिल का लेखक जनता से जुड़ा है, उसके मुकाबले हिंदी का नहीं जुड़ा। तमिल वाले के पास उसकी जनता होती है, हिंदी वाला जनता के लफड़े से मुक्त होता है, और इसीलिए वह हर लफड़े से मुक्त रहता है। तमिल लेखक अपनी आफत अपने संग लिए रहता है।अपनी-अपनी परंपरा और अपनी-अपनी आदत ठहरी। तमिल की जनता अपने ‘प्यारे’ लेखक को चूंकि पढ़ती है, इसलिए लेखक से अपना ‘प्यार’ भी जताया करती है। हिंदी लेखक को जनता नहीं पढ़ती, इसलिए ‘प्यार’ भी नहीं करती।
पिछले ही दिनों की बात है। एक तमिल लेखक ने उपन्यास लिखा, जिसे जनता ने पढ़ा। पढ़ते ही जनता को अपने लेखक पर इतना ‘प्यार’ आया कि उसे ‘थपथपाने’ पहुंच गई। लेखक ने जनता के ऐसे जबर्दस्त प्यार से जान बचाई और कह दिया कि ‘लेखक मर चुका है!’ वह गया, तो दूसरा आ जाएगा। और लीजिए दूसरा आ ही गया। उसे भी जनता ने जमकर ‘प्यार’ दिया। लेखक को इतना ‘प्यार’ पचा नहीं। ऐसे जबर्दस्त प्यार से बचने के लिए उसे गुहार लगानी पड़ी! जब लोगों ने पूछा कि जनता आपको ‘प्यार’ कर रही है, आप उससे पीछा क्यों छुड़ाना चाहते हैं? तो वह बोला: ऐसे जबर्दस्त ‘प्यार’ के लिए थोड़े लिखता हूं और लिखता रहूंगा! इसे कहते हैं: आ बैल मुझे मार!
अंग्रेजी वाले तमिल जनता के ‘प्यार’ के मर्म को समझने की जगह उसे अभि-‘व्यक्ति’ की आजादी पर हमला समझ बैठे और दस्तखत कराते रहे। बाद में इस जनता के अनुराग का समाजशास्त्र ज्ञात हुआ कि लेखक ने जनता की किसी दुखती रग पर हाथ धर दिया था। जनता ने पढ़ा, तो लगा कि लेखक को कुछ समझाना जरूरी है, सो लेखक को प्यार से दुलराकर एक ठोस किस्म का थैंक्यू कह डाला!
हिंदी में जनता-जनता भजते हुए हमारी उम्र गुजरी, लेकिन अब जाकर समझ में आया कि जिसे जनता कहा जाता है, जिसे जनता का लेखक कहा जाता है और जिसे जनता का लेखक के प्रति प्यार कहा जाता है, वह क्या बला है?  जनता के प्यार के मारे तमिल लेखक-द्वय इसका मर्म दुनिया को बता चुके हैं।
हिंदी की परंपरा तमिल परंपरा से एकदम अलग है। हिंदी में लेखक लेखक होता है। जनता जनता होती है। लेखक और जनता का ऐसा ‘भरत मिलाप’ होते कभी नहीं देखा गया, जैसा तमिल लेखकों के साथ देखा गया है। कारण यह कि हिंदी वाला जनता जनता करता है, पर जनता से सुरक्षित दूरी भी रखता है और कमबख्त लिखता कुछ ऐसा है कि जनता सात जन्म में भी न समझ पाए। इसीलिए हिंदी की जनता, हिंदी के लेखक से उस तरह का प्यार करने के लिए नहीं मचलती, जिस तरह से तमिल के दो लेखकों के लिए मचलती दिखी।
जनता के प्यार का मारा भोला तमिल लेखक अगर हिंदी वालों को देखता, तो समझ जाता कि जनता से जुड़ना है, तो ऐसे जुड़ना है कि जनता से जुड़े तो दिखें, लेकिन जनता हरगिज न जुड़ने पाए। लेखक रूपी खंभे पर लट्टू तो लगे, लेकिन करंट न आ जाए। तमिल लेखकों की गलती रही। बंदों ने लट्टू ही नहीं लगाया, करंट भी लगा दिया। करंट लगाया, तो करंटित जनता झटका देगी ही। हे तमिल लेखको! हिंदी वालों से सीखो जीरो रिस्क वाला सुरक्षित लेखन!

साभार-'हिंदुस्तान'-15/03/2015

16 March 2015

कुछ लोग -12

घमंड में चूर
कुछ लोग
पाए जाते हैं
मीठी मीठी बातों के संग
मन के भीतर
कड़वाहट के
तीखे बोल लिए
जो जुबान से नहीं
चेहरे के हावभाव से
महसूस हो ही जाते हैं
सामने वाले को
दिखला ही देते हैं
मुखौटों के पीछे का
असली चेहरा
ऐसे कुछ लोग
अपने भीतर
नफरत की आग लिये
भटकते रहते हैं
दर बदर
सैकड़ों ठोकरों के बाद भी
बने रहते हैं
उस पत्थर की तरह
जो इंसान नहीं होता।

~यशवन्त यश©

15 March 2015

बहुत आसान लगता है ........

बहुत आसान लगता है
किसी लिखे हुए को पढ़ना
किसी के लिखे हुए को
अपना नाम देना
लेकिन
बहुत कठिन होता है
उस लिखे को समझना
आत्मसात करना
और उस जैसा ही
लिखने की
कोशिशें करना
जो अधिकतर असफल
और कभी
सफल भी हो जाती हैं
फिर भी
लाख चाहने के बाद भी
नहीं आ पाता
मौलिकता का
वह तत्व
जो होता है
आत्मा की तरह 
किसी की भी लेखनी का
अभिव्यक्ति का 
इसलिए
बेहतर यही है
कि मैं
वह लिखूँ
जो पूरी तरह
सिर्फ मेरा हो
मेरे लिये
आवाज़ हो
मेरे अन्तर्मन की
मेरे ही शब्दों में
हमेशा की तरह। 
 
~यशवन्त यश©

14 March 2015

विषयों की कमी नहीं

मन
कितनी दूर तक
उड़ता चला जाता है
समय और देश की
सीमाओं के पार
बहुत दूर
उम्र से
सैकड़ों मील आगे
सैकड़ों मील पीछे
फिर भी
कभी कभी लगता है
जैसे कुछ छूट रहा है
रह रहा है
यहीं कहीं
अपने आस पास का
कोई किस्सा
कोई कहानी
कोई गीत
संयोग -वियोग
वीर और रौद्र रस में पगा
अलंकारों से सजा
छंदों मे ढला
अतुकांत या तुकांत
कुछ भी
जो लिखते लिखते
रह जाता है
अधूरा
पूरा होने की तमन्ना लिए
गिनता रहता है दिन
किसी पन्ने पर 
कहीं दबे छिपे
मन की ऊंची
उड़ानों के साथ
तोड़ देता है दम
क्योंकि
इस सतरंगी दुनिया में
नये विषयों की कमी नहीं। 

~यशवन्त यश©

13 March 2015

ज़मीन और आसमां-3

कभी कभी
सोचता हूँ
क्या रिश्ता है
आसमान
और ज़मीन का ?
रिश्ता है भी
या नहीं
है तो
दूर का
या
पास का  ?

कभी देखता हूँ
इन दोनों को
लंबे विछोह के बाद 
क्षितिज पर
मिलते हुए
और 
कभी देखता हूँ
एक दूसरे को
अपलक ताकते हुए
बारिश की बूंदों सा
बरसते हुए
आंसुओं को
पीते हुए
सृष्टि चक्र के 
गहन पाश में
जकड़े हुए
युगों युगों तक
यूं ही जीते हुए
ज़मीन और
आसमान का
मौन -
अलिखित रिश्ता
मोहताज नहीं है
किसी परिभाषा का।

~यशवन्त यश©


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12 March 2015

कुछ लोग -11

अपनी अभिव्यक्ति के
अनोखे शिल्प से
कुछ लोग
कभी रच देते हैं
शब्दों का
अनोखा संसार
और कभी
अपनी बातों से
अपने तर्कों से
बन जाते हैं
आकर्षण
बंध जाते हैं
एक अदृश्य डोर से
जिसके एक सिरे पर
मन
जुड़ा रहता है
भवविभोर कर देने वाली
लेखनी से
और दूसरे सिरे पर
वक्त के आसमान में
ऊंची उड़ान भरते
बिखरे अक्षरों के 
अनगिनत परिंदे
बाट जोहते हैं
फिर
किसी साँचे में ढल कर
किसी नये पन्ने पर
विश्राम पाने की ....
ऐसे लोग
अपनी खासियत से
अपने व्यक्तित्व से
लगने लगते हैं अपने से
जैसे पिछले जनम के
बिछुड़े हुए 
आ मिले हों
नये रंग
नये रूप ले कर
सुकून देने वाली
मुस्कुराहटों के साथ ...
कुछ लोग
कभी अनजान नहीं लगते
एक बार
मिल जाने के बाद।

~यशवन्त यश©

11 March 2015

वक्त के कत्लखाने में -9

वक्त के कत्लखाने में
तन्हा बैठे बैठे
खुद की कुछ सुनते
खुद से कुछ कहते
कुछ बातें करते करते
कभी कभी
डूब जाता हूँ
एक सीमा में सिमटे
अँधियारे समुद्र की
उन गहरी लहरों में
जहां से
इच्छा नहीं होती
वापस आने की
फिर भी 
आना होता है
देखने को
बदलाव की तस्वीर
लेकिन हर बार
दीवार पर
टंगे आईने में 
मुझे दिखती है
वही पुरानी कालिख
अपने चेहरे पर
जो
सैकड़ों जन्मों के बाद भी
नहीं बदली
और शायद
कभी नहीं बदलेगी
क्योंकि
यही तो पहचान है
हर उस मुखौटे की
जो सदियों से
बिना सांस लिये
यूं ही बैठा है
वक्त के कत्लखाने में। 

~यशवन्त यश©

10 March 2015

संघर्ष के साथ सफलता के शिखर पर .........

नाकामियां किसके जीवन में नहीं आतीं। उनके जीवन में भी विफलताओं का दौर आया। ऐसा दौर, जब मन में आया कि वह क्रिकेट ही छोड़ दें। पर क्रिकेट में तो उनकी जान बसी है। क्रिकेट छोड़ने का मतलब था जीवन से मुंह मोड़ना। तो क्या मुश्किलों से हारकर वह जीना छोड़ देंगे? उन्होंने तय किया कि वह ऐसा हरगिज नहीं करेंगे। निराशा से उबरकर उन्होंने मैदान में शानदार वापसी की और बन गए देश के सबसे तेज शतक बनाने वाले खिलाड़ी। नाम है शिखर धवन।

दिल्ली के पश्चिम विहार इलाके में रहने वाले शिखर शुरू से पढ़ाई में कमजोर थे। इस बात को लेकर उनके नाना बहुत नाराज रहते थे। उन्हें अक्सर डांट पड़ती थी। पर मनमौजी मिजाज के शिखर पर इस डांट का खास असर नहीं होता। बगावती तेवर वाले इस बच्चे को घरवाले गब्बर कहकर पुकारने लगे। मां सुनैना की बड़ी ख्वाहिश थी कि बेटा पढ़-लिखकर सेना में जाए, पर शिखर का मन तो हर समय बैट-बॉल में लगा रहता था। मौका मिलते ही वह गेंद लेकर घर से भाग पड़ते। पिता महेंद्र पाल भी बेटे के रवैये को लेकर चिंतित रहते थे। क्रिकेट से क्या हासिल होगा, यह सवाल उन्हें बहुत परेशान करता। खैर, जल्द ही वह समझ गए कि बेटे को पढ़ाई के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। 12 साल की उम्र में शिखर को क्रिकेट ट्रेनिंग के लिए दिल्ली के सोनेट क्लब भेजा गया। शिखर के पहले कोच तारक सिन्हा कहते हैं, ‘जब शिखर मेरे पास आया, उस समय वह स्कूल टूर्नामेंट की अंडर-15 टीम का खिलाड़ी था। पहली मुलाकात में ही मुझे लगा कि बच्चे में कुछ खास है। उसके अंदर संघर्ष करने की अद्भुत क्षमता है, जो उसे दूसरों से अलग करती है।’


क्रिकेट मैच के साथ शिखर को एक और शौक लग गया। शिखर कहते हैं कि ‘तब मैं 15 साल का था। मन में ख्वाहिश जगी कि शरीर पर टैटू गुदवाया जाए। पहली बार बांह पर टैटू बनवाया, तो बड़ा रोमांचकारी लगा, पर मन में डर था। जानता था कि अगर पापा को पता चला, तो खैर नहीं। एक महीने तो मैंने किसी को पता ही नहीं लगने दिया, पर एक दिन पापा ने टैटू देख लिया। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। पापा ने खूब डांटा और पिटाई भी की।’ वर्ष 1999 में शिखर अंडर-16 टीम में शामिल हो गए। शुरुआत शानदार रही। पहले अंडर-17 और फिर अंडर-19 टीम में उन्होंने बेहतरीन प्रदर्शन किया। वर्ष 2004 के अंडर-19 क्रिकेट वर्ल्ड कप सीरीज में शिखर को ‘प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट’ खिताब से नवाजा गया। वर्ष 2004-05 के रणजी मैच के दौरान वह पहली बार दिल्ली की तरफ से खेले।

घरेलू क्रिकेट में उनका प्रदर्शन बढ़िया रहा। पर घरेलू क्रिकेट का दौर लंबा चला। इस दौरान उनके कई साथी राष्ट्रीय टीम में जगह पा चुके थे, उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ा। वर्ष 2010 में पहली बार उन्हें वनडे इंटरनेशनल टीम में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलने का मौका मिला। वैसे, पहले पांच वनडे इंटरनेशनल मैच में उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। लिहाजा वह टीम से बाहर कर दिए गए। शिखर बहुत निराश हुए। यह वह दौर था, जब उनके कई साथी बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे थे। यहां तक कि उनके जूनियर भी इंडियन टीम में जगह पा चुके थे। कोच तारक सिन्हा कहते हैं, ‘शिखर बहुत दुखी था। वह इतना निराश था कि क्रिकेट छोड़ने तक के बारे में सोच रहा था। पर क्रिकेटर होने के साथ वह फाइटर भी है। तमाम आशंकाओं को पीछे छोड़ते हुए उसने शानदार वापसी की।’

क्रिकेट की तरह ही शिखर की निजी जिंदगी भी दिलचस्प रही। साल 2012 उनके जीवन में रोचक मोड़ लेकर आया। दरअसल, उस वर्ष फेसबुक पर उनकी मुलाकात भारतीय मूल की ऑस्ट्रेलियाई नागरिक आयशा मुखर्जी से हुई। पहले दोस्ती, फिर दोनों में प्यार हो गया। आयशा उनसे दस साल बड़ी हैं। पहली शादी से उनकी दो बेटियां हैं। शिखर ने आयशा से शादी करने का फैसला किया,  घर वालों को यह नागवार गुजरा। हमेशा की तरह शिखर फैसले पर डटे रहे। उन्होंने परिवार और दुनिया की परवाह किए बगैर 12 अक्तूबर, 2012 को आयशा से शादी कर ली। पिछले साल उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम उन्होंने जोरावर धवन रखा है। शिखर कहते हैं, ‘मैंने परिवार से बगावत करके आयशा से शादी की। पर आज आयशा मेरी मां और पिताजी के काफी करीब हैं। मैं आयशा की खूबियों को जानता था। मुझे यकीन था कि एक दिन वह मेरे परिवार का दिल जीत लेंगी, और ऐसा ही हुआ।’

शादी के बाद शिखर के करियर में बड़ा बदलाव आया। मार्च, 2013 में उन्हें वीरेंदर सहवाग की जगह नेशनल टीम में लिया गया। वापसी शानदार रही। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलते हुए वह टेस्ट क्रिकेट में सबसे तेज शतक बनाने वाले खिलाड़ी बन गए। वह पहले ऐसे भारतीय खिलाड़ी हैं, जिन्होंने अपने पहले टेस्ट मैच में 150 से ज्यादा रन बनाए। इन दिनों वर्ल्ड कप में बल्ले से जलवा बिखेर रहे शिखर कहते हैं, ‘आयशा मेरे लिए बहुत लकी रहीं। शादी के बाद मेरे प्रदर्शन में निखार आया। आयशा के साथ अब मेरे ऊपर दो बेटियों और एक बेटे की जिम्मेदारी है। यह एक सुखद एहसास है।’

प्रस्तुति:  मीना त्रिवेदी

साभार-http://www.livehindustan.com

09 March 2015

अच्छा ही है ........

कुछ सपनों का
सच न होना
किसी से मिलना
किसी से बिछड़ना
फूलों के बिस्तर पर सोना
काँटों के रस्ते पर चलना
कभी गिरना,चोट खाना
संभलना
ठहरना
रोना
हँसना
रूठना
मनाना
न जाने क्या क्या सोचना
न जाने क्या क्या लिखना 
कुछ पढ़ना
समझना
याद रखना
भूल जाना
इन अनोखी राहों पर
जो भी है
अच्छा ही है।

~यशवन्त यश©

08 March 2015

ना आयेगी वो सहर....महिला दिवस पर शिल्पा भारतीय जी का आलेख

स्त्री विमर्श पर शिल्पा भारतीय जी का यह आलेख कुछ समय पहले जागरण जंक्शन पर देखा था। 
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इसे अपने पाठकों हेतु और सहेजने की दृष्टि से इस ब्लॉग पर साभार प्रस्तुत  कर रहा हूँ। 

किसी भी समाज और परिवार का दर्पण है स्त्री और उसके बिना समाज का अध्ययन  अधूरा है..यही कारण है कि हर युग,परिस्थिति एवं परिवेश में स्त्री स्वरुप का अध्ययन किया गया ..यदि वक्त के आईने में स्त्री स्वरुप का अध्ययन करे तो नारी स्वरुप की सबसे बड़ी विडम्बना यही रही कि कभी तो उसे देवी कहकर उससे जनकल्याण की अपेक्षा की गयी तो कभी जुए,शराब,पशु और शूद्र की श्रेणी में रखकर उसे प्रताड़ित करने का अधिकार पुरुषों को दे दिया गया. ..परन्तु इस उच्चतर और निम्नतर अवस्थाओं से परे एक व्यक्ति के रूप में उसके मानवीय स्वरुप की हमेशा उपेक्षा की जाती रही..कमोबेश यह मानसिकता आज भी समाज के एक बड़े वर्ग में यथावत बनी हुयी है जहाँ स्त्री को  माँ,बेटी,पत्नी रूप में उसके त्याग-समर्पण की प्रशंसा मिलती है परन्तु उससे इतर जब एक स्त्री एक व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाने निकलती है तो उसे समाज से मिलती है उपेक्षा..शोषण ..

जब ईश्वर ने  श्रृष्टि की रचना की तो उसने धरती पर स्त्री और पुरुष को समानुपात में अवतरित किया जिसका उल्लेख दुनिया के सभी प्रमुख धार्मिक ग्रंथो में किया गया चाहे वो मनु-श्रध्दा के रूप में हो चाहे आदम और हौव्वा या एडम और इव जो स्त्री पुरुष की समानता को इंगित करता है इस श्रृष्टि के निर्माण में दोनों ही बराबर के सहयोगी है और स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के समकक्ष एवं संपूरक है और यह संकल्पना शिव के अर्धनारीश्वर रूप में भी परिलक्षित हुयी है..यदि स्त्री पुरुष की की अर्धांगिनी है तो इस नाते पुरुष भी स्त्री का अर्धांग हुआ अत: जितना उत्तरदायित्व स्त्री का अपने परिवार एवं समाज के प्रति है उतना ही पुरुष का भी और इसी अनुपात में सम्मान के भी दोनों अधिकारी हुए परन्तु विडम्बना यही है स्त्रियां जिन्होंने अपने परिवार तथा समाज के विकास के लिये वस्तुत: स्वयं को बलिदान कर अपने उत्तरदायित्वो का बखूबी निर्वहन किया उन्हें उस अनुपात में वो सम्मान ना मिला जिसकी वो अधिकारी है अपितु समय के साथ समाज में उनकी संख्या और स्थिति दोनों ही नीचे गिरती गयी और आजादी के पश्चात भी योजनाबद्ध विकास के साठ दशकों के बाद भी उन्हें सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था में यथोचित स्थान और अपनी पूर्ण क्षमता दिखाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ..समाज,शासन-प्रशासन में उसकी रूचि,इच्छाओं एवं भावनाओ का ध्यान एक अधिकार के रूप में कम एक कृपा के रूप में अधिक रखा गया..


समाज में महिलाओं की स्थिति समाज की प्रगति का सूचक होती है और समय-समय पर भिन्न-भिन्न समाजो में इस स्थिति में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है जहाँ तक बात  वैदिक काल की है उस काल में महिलाओं ने जिस स्वतंत्रता एवं समानता का सोपान किया उससे आज की आधुनिक नारी भी वंचित है वैदिक युग में स्त्रियों का समाज में वही स्थान था जो देवमंडली में अर्थात स्त्री पुरुष के समकक्ष थी उसे सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे और परवरिश एवं शैक्षिणिक दृष्टिकोण से दोनों में कोई अन्तर ना था और ऋग्वेद में घोषा,लोपामुद्रा,सिकता,अपाला,नियवारी एवं विश्वरा जैसी विदुषी कन्याओं का जिक्र मिलता है जो ऋषि उपाधि से विभूषित थी और जिन्होंने ऋचाओं की रचना करके अपनी बौद्धिक पराकाष्ठा को निस्संदेह स्थापित किया था..परन्तु इन समानताओं के बावजूद संपत्ति का अधिकार सशर्त  करके उसके अधिकारों को सीमांकित कर दिया जिसके पीछे तर्क यह था कि युद्धरत समाज में कोमलांगी  स्त्री संपत्ति की रक्षा के लिये असमर्थ है परन्तु यह स्त्रीलिंग के विषय में एक पूर्वाग्रह ही था जहाँ स्त्री को शारीरिक और भावनात्मक रूप से अबला कहकर परिभाषित कर उसपर कई तरह की  वर्जनाये लाद दी और कई क्षेत्रो में उसके प्रवेश को वर्जित कर दिया गया..वरना कौन भूल सकता रजिया सुल्ताना..खूब लड़ी मर्दानी झाँसी वाली रानी को और स्वतंत्रता संग्राम में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ने वाली वीरांगनाओ को और वर्तमान समय में सारे पूर्वाग्रहों एवं वर्जनाओं को तोड़ते हुए स्त्रियां उन क्षेत्रो में अपनी क्षमताओं का लोहा मनवाया है जहाँ उन्हें अबला कह कर सदियों प्रवेश से वंचित रखा गया..


वैदिक काल के पश्चात स्त्रियों की स्थिति में गिरावट का दौर प्रारम्भ हुआ और इसका सबसे प्रमुख कारण था शिक्षा का पेशेवर रूप धारण कर लेना जिसका  प्रभाव यह हुआ कि स्त्री शिक्षा के अवसर से वंचित हो गयी और शिक्षा से वंचित स्त्री का जीवन अंधकार में समा गया अब वह जीवन निर्वहन के लिये पुरुष पर परवलाम्बित हो गयी और जैसे ही वह पुरुष पर अवलंबित हुयी समाज के व्यवस्था कारों ने कतिपय ग्रंथो के माध्यम से पुरुषों पर महिलाओं की पूर्ण निर्भरता और अधीनता की पुरजोर वकालत कर ना केवल उसे परतंत्रता की बेड़ियों में जकड दिया अपितु सतिव्रत जैसे अमानवीय परम्पराओं का विधान कर पुरुष रुपी पति परमेश्वर पर कुर्बान करने से भी गुरेज नहीं किया..परन्तु समाज में स्त्रियों की गिरती स्थिति और उससे उत्पन्न विसंगतियों ने समय के साथ कई अन्य व्यव्स्थाकारों की मान्यताओं में परिवर्तन लाने को विवश किया और यही कारण है कि प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों में हमे स्त्री के बहु रूप दिखाई पड़ते है जहाँ एक ओर उसकी तुलना “जुए,शराब,पशु एवं शूद्र” से कर उसे प्रताड़ित करने का वैधानिक अधिकार प्रदान किया गया वही दूसरी ओर “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता” कह कर उसे देवी का स्वरुप दे दिया गया मध्यकाल में भी समाज के अधिकांश वर्गों में स्त्रियां शिक्षा के अधिकार से वंचित रही और सामाजिक,राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों के आभाव की स्थिति यथावत बनी रही..सल्तनत काल में रजिया एक उदाहरण है स्त्री के प्रत्यक्ष राजनीतिक शासन का हालाँकि उसे भी अमीरों की महत्वकांक्षाओ एवं स्त्री होने की कीमत चुकानी पड़ी..इससे इतर मध्यकाल में भी वह चहारदीवारी में कैद पुरुषों के नियंत्रण में एक उपभोग की वस्तु ही रही..और अंग्रेजों के आगमन के पूर्व तक समाज में बाल विवाह,पर्दाप्रथा ,सती प्रथा और देवदासी जैसी कुप्रथाए प्रचलन में थी और स्त्रियों का हर प्रकार से शोषण किया जाता रहा जो समाज की प्रगति के प्रतिकूल थी..उन्नीसिवी शताब्दी के धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलनो ने समाज में व्याप्त इन कुप्रथाओं को अपना निशाना बनाया राजाराम मोहन राय, केशव चन्द्र सेन के प्रयासों से क्रमश: सती प्रथा और बालविवाह प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया गया वही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से विधवा पुनर्विवाह को मान्यता मिली तथा इस प्राचीन अवधारणा कि स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार नहीं है  को भी दूर किया गया और परिणाम स्वरुप इस शिक्षा की लौ से स्त्रियों ने ना सिर्फ अपने जीवन के अंधकार को दूर किया अपितु धरती से लेकर अंतरिक्ष तक आज हर क्षेत्र में नित नये कीर्तिमान गढ़ कर देश का नाम रोशन कर रही  है..परन्तु दुखद प्रसंग है कि जहां स्त्रियां अंतरिक्ष तक में अपने कदम रख अपनी विद्वता अपनी शक्ति का लोहा  मनवा चुकी है वही समाज के एक बहुत बड़े वर्ग का नजरिया उसके विषय में आज भी यथावत है और सबसे दुखद बात है कि पढा लिखा वर्ग भी शामिल है शायद यही वजह है कि स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार शोषण रुकने का नाम नहीं ले रहा. घर,सड़क,दफ्तर,कोर्ट,पोलिस स्टेशन,अस्पताल,प्राइमरी स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों तक टैक्सी,ट्रेन,बस हर जगह विभिन्न तरह से विभिन्न रूपों में शोषण की शिकार हो रही है महिलाये और विडम्बना ये है कि समाज का नजरिया तो देखिये इस तरह के मामलो में अपराधी को दंड देने के बजाए पीड़ित को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है..विडम्बना ही है  कि कही उच्च जाति के लड़के से प्रेम या विवाह करने पर स्त्री को सरेआम निर्वस्त्र करके घुमाया जाता है  या उसके साथ सामूहिक बलात्कर करने पत्थर मार मार कर उसकी जान लेने जैसा अमानवीय कृत से परिपूर्ण  आदेश दिया जाता है पंचायतो द्वारा  और कही उच्च जाति के लोगो के द्वारा उसी  नारी की अस्मत लूटने जैसे घृणित अपराध करने वालो के विषय सब खामोश रह कर उनके अपराध को मौन स्वीकृति देते नजर आते है आखिर ये दोहरा मापदंड क्यों किसलिए? सदियाँ बदली पर सोच वही की वही.. कही कुछ बदला है तो समय के साथ शोषण का तरीका प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक में जो नारी के अंग-प्रत्यंग को उत्पाद बनाकर  उत्पादों के प्रचार के लिये परोसे जाने   वाले विज्ञापन..पुरुषों के अंडरवियर बनियान से लेकर परफयूम तक में उसे एक सहज प्राप्य वस्तु के रूप में प्रचारित किया जाता है फलां कम्पनी की अंडरवियर बनियान पहनिए लड़की आप पर फ़िदा..या इस कम्पनी के परफयूम का एक स्प्रे मारिये और लड़की कामांध होकर आप पर अपना सब कुछ लूटा बैठेगी…समझना मुश्किल होता है कि इनमे उत्पाद वस्तु कौन है?हद है आखिर इस तरह के विज्ञापनों के जरिये सन्देश क्या देना चाहते है क्या औचित्य है इनका..आजकल की फिल्मो और डेली सोप में जिस तरह से नारी को परोसा जा रहा उसने स्त्री जमात की छवि को बेहद नुकसान पहुचाया है…और तो और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर महिलाओ को लेकर द्विअर्थी जोक्स धडल्ले से शेयर किये  जाते है और उन पर चुटकियाँ ली जाती  है कुछ जोक्स में उन्हें महामूर्ख..लोभी..लड़ाकू तात्पर्य ये है कि हर तरह से पुरुषों की तुलना में हीन दर्शाया जाता है इस तरह के घटिया जोक्स पर चुटकियाँ लेने और उसे शेयर करने वाले शायद ये भूल जाते है कि उनकी माताये बहने भी उसी महिला जमात में आती है….ये कैसा नजरिया है समाज का जहाँ एक जीते-जागते इंसान को मजाक का विषय बना दिया जाता है वो महिलाये जो इस जीवन की धुरी है जो आपके सपनों को हकीकत के रंग देने के लिये कितनी सहजता से अपने सपनों को कुर्बान कर देती है जिनके त्याग और समर्पण की आधार पर आपका वजूद कायम है आज आपकी ही वजह से उसके सम्मान और अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे है…घरेलू हिंसा,बालविवाह,दहेज हत्या,तेजाब से डालकर जलाना ,छेड़खानी,बलात्कार,कन्या भ्रूण हत्या जैसे शोषण, अत्याचार और तमाम तरह की विसंगतियाँ झेलते हुए सदियों से अपने सम्मान और अस्तित्व की अंतहीन लड़ाई लड़ रही है..उसकी कोई चाह नहीं इस समाज से की उसे देवी बना कर पूजा जाये वो बस एक इंसान के रूप में ससम्मान जीवन जीने का अधिकार मागती है और कुछ नहीं…और कुछ नहीं..


नारी मन की व्यथा को सार्थक करती एक शायर की कुछ पंक्तियाँ-
”चलो दिल को थोडा बेक़रार करे
झूठा ही सही ऐतबार करे
हमे पता है कि ना आएगी कभी वो सहर
फिर भी कभी ना आने वाली उस सहर का इंतजार करे…!!”


--शिल्पा भारतीय “अभिव्यक्ति”©

साभार-जागरण जंक्शन

07 March 2015

जीवन के रंगमंच पर

जीवन के
इस रंगमंच पर
अपनी अपनी भूमिका
निभाते निभाते
अपने अपने पात्रों
चरित्रों को जीते जीते
हम
कभी सजाते हैं
दीवारों पर तस्वीरें
और कभी
खुद ही
कोई तस्वीर बन कर
कैद हो जाते हैं
अंधेरे कमरे की 
किसी दीवार पर
जहाँ की तन्हाई
कई मौके देती है
बीते दौर को
सोचने समझने
और
अगले पलों के
नये संवाद रचने के 
फिर भी
कभी कभी
हम नहीं आ पाते बाहर
अपनी तस्वीर को घेरे
शीशे के उस फ्रेम से
जिसकी सीमाएं
लगने लगती हैं
अपनी सी
और एक समय बाद
जब भूकंप की आहट से
दरकती है
दीवार की
कमजोर नींव
हम आ पहुँचते हैं
अर्श से फर्श पर .....
और शायद
यही होता है अंत
जीवन के रंगमंच पर
हमारी भूमिका का।

~यशवन्त यश©

06 March 2015

क्योंकि रंग इंसान नहीं होते

हर ओर
उड़ते
बिखरते
बहकते
चहकते
महकते
गीले
और
सूखे रंग
रंगभेद
जात धर्म  
अमीर और
गरीब से परे
सबके चेहरों पर
सजे हुए हैं 
एक भाव से 
विविधता में
एकता का
भाव लिए 
क्योंकि रंग
इन्सानों की तरह
भेदभाव नहीं करते।

~यशवन्त यश©


होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ ! 

05 March 2015

ख्याल और फूल

दिन में
खिले खिले ख्याल
शाम होते ही
मुरझा जाते हैं
परागविहीन 
किसी फूल की तरह
थक कर चूर हो कर
या तो
अलग कर लेते हैं खुद को 
मन की डाली से
या
उतरा सा चेहरा लिए
नये जीवन की आशा में
तोड़ देते हैं दम....
और फिर
मौका पाकर
ख्यालों की नयी कलियाँ
ख्वाबों से बाहर आकर
हर नयी सुबह
एक नया फूल बन कर
बिखरा देती हैं
नयी सी खुशबू
जीवन वृत्त की
सभी दिशाओं में। 
  
~यशवन्त यश©

04 March 2015

साहित्य दो सौ रुपये किलो-सुधीश पचौरी

हे मेरे प्रिय,  सुहृद, सरस्वती मां के वरद पुत्रो! हे साहित्य के मंदिर के जन्मजात पुजारियो! हे कविता का नाम सुनते ही रोमांचित हो खंजड़ी बजाने वाले खंजड़ियो और मिरदंगियो! हे तुच्छता से आपूर्ण इस युग के कवि कोविदो! हे साहित्यानुराग के मारे साहित्य रोगियो! हे पुस्तक से पुस्तक के लिए पुस्तक द्वारा आध्यात्मिक प्रीति रखने वाले प्रीतमो! इन उपाधियों से आप तनिक भी चकित न हों और इस नीच परम पामर से जरा-सा भी नाराज न हों, क्योंकि साहित्य की यह बोली उसकी लगाई नहीं है। न यह किसी साहित्यद्रोही का षड्यंत्र है, न यह सीआईए की साजिश है, न नई सरकार की कोई नई बदमाशी है, और न संघ की साहित्य के प्रति बदसलूकी है, बल्कि यह अंग्रेजी के एक सेक्युलर और स्वतंत्र अखबार में छपी खबर भर है, जो साहित्य को जनता की जेब तक सीधे पहुंचा रही है और साहित्य को सबके लिए उपलब्ध करा रही है।

हे साथी, ऐसा क्यों हो रहा है? इसका समाजशास्त्रीय व अर्थशास्त्रीय कारण क्या है? क्या यह मंदी का असर है या बजट का? हे कॉमरेड! जिस तरह सोवियत संघ के पतन के बाद सोवियत साहित्य बीस रुपये किलो के भाव तौल में मिला करता था, उसी तरह साहित्य अब तौल के भाव मिल रहा है। बतर्ज ‘मैंने लियो तराजू तोल।’ साहित्य को दो सौ रुपये किलो के भाव से बिकता देख मुझे इस उत्तर-समाजवादी समय में भी समाजवादी किस्म का दौरा पड़ गया। सोवियत संघ जो पुण्य कार्य जीते जी नहीं कर पाया, जिसे चे ग्वेरा के सौजन्य वाला फिदेल कास्त्रो निर्मित समाजवाद भी नहीं कर पाया, वियतनामी समाजवाद भी नहीं कर सका, न नेहरू का ‘अवार्डी समाजवाद’ कर पाया, चीनी समाजवाद नहीं कर पाया, उसे दरियागंज के एक मामूली किताब बेचने वाले ने कर दिखाया।

किताब पढ़ने वाले को तौलकर खरीदने की समझ दरियांगज के पटरी विक्रेता से मिल रही है। यों तो किताबों की दुनिया में पहले भी ‘सस्ता साहित्य’ टाइप के ‘भंडार’ बने, कहीं ‘मंडल’ बने, लेकिन तौलकर तो उन तक ने भी न बेचा। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या साहित्य सचमुच सस्ता हो गया है? क्या उसकी नई सेल लगी है? क्या साहित्य पर अमेरिकी मंदी की मार अब जाकर पड़ी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि रुपये के कमजोर होने के कारण ऐसा हो रहा हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह साहित्य का चीनी फैक्टरी उत्पादित फैक्टर है? जिस तरह चीनी समाजवाद ने दिवाली-होली पर हिंदू देवी-देवताओं की प्लास्टिक की मूर्तियां बना-बनाकर हिन्दुस्तानी मार्केट को पाट दिया है और अब ये कुंतल के हिसाब से मिलते हैं, कहीं उसी तरह का व्यवहार चीनी इंडस्ट्री साहित्य के साथ तो नहीं कर रही? शायद नहीं।

साहित्य के थोक के भाव मिलने का कारण अपनी ‘लोकार्पण इंडस्ट्री’ है। अभी-अभी तीन साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ी हैं, जिनके पिछवाड़े के पृष्ठों पर कुल 30 लोकार्पण हुए शोभित पड़े हैं। साहित्यमय भारत के चार हजार कस्बों व नगरों में हर महीने अगर 10-15 लोकार्पण भी होते हों, तो बताइए कि कुल कितने ‘टन’ साहित्य पैदा होता होगा? शायद इसीलिए दरियागंज का विक्रेता ‘लोकार्पित आइटमों’ को दस रुपये किलो के भाव खरीदकर दौ सौ रुपये किलो बेचता है। लोकार्पकों ने तो साहित्य का भाव गिराने में कोई कसर छोड़ी नहीं है, जबकि दरियागंज वाला विक्रेता दो सौ रुपये की दर लगाकर साहित्य का भाव बढ़ा ही रहा है। उसका कुछ तो एहसानमंद होना चाहिए।

साभार -'रविवासरीय हिंदुस्तान'

03 March 2015

किश्त दर किश्त ......

किश्त दर किश्त
बीतते पल
होते जा रहे हैं दर्ज़
इतिहास की
उस किताब पर
जिसके पन्ने
थोड़े स्याह
थोड़े सफ़ेद
और कुछ
आड़ी तिरछी
लकीरों को साथ लिये
बनते जा रहे हैं
दस्तावेज़
कल के लिये
कल की
बीती दस्तानों के। 
ये दास्तानें
जो किस्से बन कर
अक्सर
सुनाई दे जाती हैं
दूसरों की ज़ुबानों से
गली के किसी नुक्कड़ पर
नये नये रूप धर कर
सामने आती हैं
और आगे बढ़ जाती हैं
नयी राहों के सफर पर 
किश्त दर किश्त
बीतते पलों के साथ
किश्त दर किश्त
ढलती उम्र
अब उस दौर मे है
जब अंधेरे को सिरहाने लगाए
अधखुली बेचैन आँखों से
मैं तलाश रहा हूँ
किश्त दर किश्त
मंद होती
रोशनी की परतों को।

~यशवन्त यश©

02 March 2015

कुछ लोग-10

भीतर ही भीतर
अनकहे गम को
साथ लिये
चेहरे पर
मुस्कुराहट का
मुखौटा ओढ़े 
कुछ लोग
चखते हुए
जीवन के
कढ़वे -तीखे स्वाद
हर दिन 
बाँटते चलते हैं
मिठास भरे शब्द
और हर रात के
गहरे काले अँधेरों  में
अपनी चादर के भीतर
करवटें बदलते हुए
पोंछते रहते हैं
गीली आँखों को।

गैर
लेकिन अपने से 
ऐसे कुछ लोग
हो सकते हैं
संख्या में कम
या अधिक
मिल सकते हैं
अपने ही कहीं आस पास
कुछ न होते हुए भी
लगते हैं कुछ खास
फिर भी
बस गुमनाम रह कर
अनेकों दिलों में
लिखवा देते हैं
अपना नाम
कुछ लोग
जिनका पता भी
कुछ लोगों को ही
पता होता है। 

~यशवन्त यश©

01 March 2015

शब्दों के परिंदे ......


मन के आसमान में
बेखौफ उड़ान भरते
शब्दों के परिंदे 
जाने कहाँ कहाँ 
उठते बैठते 
जाने क्या क्या 
कहते सुनते 
क्या क्या कर गुजरते हैं 
खुद भी नहीं जानते। 

मावस की रात में 
चमकते चाँद से बातें कर 
पूनम के अंधेरे में 
यूं ही उदास हो कर  
पतझड़ के फूलों की 
खुशबू में बहक कर  
अनलिखी किताब के 
कोरे पन्नों से लिपट कर ....

शब्दों के परिंदे 
कभी होते हैं 
तिरस्कृत ,पुरस्कृत 
और कभी बन जाते हैं 
उपहास का कारण 
फिर भी ढलते रहकर 
कविता,कहानी 
नाटक और गीतों में 
जीवन के खेलों में 
हार में और जीतों में 
क्या क्या कर गुजरते हैं 
खुद भी नहीं जानते।
 
~यशवन्त यश©
photo with thanks from- 
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