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28 December 2012

कैसी सर्दी आई है ?


धुंध कोहरे की जमी दिन भर
धूप छुपी शरमायी है
मफ़लर, टोपी, शॉल और स्वेटर
निकला कंबल, रज़ाई है

देखो सर्दी आई है  ....

हीटर, गीजर दौढ़ता मीटर
सुस्ती मे अब चलता फ्रीजर
हाट मे सस्ती मिलती गाज़र
हलवे की रुत आई है

देखो सर्दी आई है   .....

मूँगफली के दाने टूटते
रेवड़ी- गज़क के पैकेट खुलते
चाय -कॉफी की चुस्की लेते
गुड़ देख चीनी लजाई है

देखो सर्दी आई है   ......

सिर से पैर तक खुद को ढ़क कर
मौसम के अमृत को चख कर 
बाहर जब नज़र घुमाई है

नंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
मुझे कभी समझ न आई है

कैसी सर्दी आई है ?

©यशवन्त माथुर©

25 December 2012

अगर कुछ दे सको तो ........

सेंटा !
सुना है
तुम बिना मांगे
अपनी झोली से निकाल कर
खुशियाँ बांटते हो 
मुस्कुराहटें बांटते हो
और निकल लेते हो
अपनी राह
बिना कुछ कहे
बिना कुछ सुने

पर
आज
मैं मांगुंगा
और तुम्हें देना होगा
सिर्फ मुस्कुराओगे नहीं
तुम्हें बोलना भी होगा

तो सुनो
इस क्रिसमस पर
पुरुष के मन को
लज्जा ,शील, सौंदर्य
और कोमलता से भर कर
स्त्री के मन को
दृढ़ता
और बाहुबल से भर कर
दोनों की आँखों को 
सहानुभूति की नज़र
देकर 
घुमा दो अपनी
जादू की छड़ी
और बदल दो
भोग पर आश्रित
इंसानी सोच को

सुना तो ये भी है
कि बच्चों पर
जान छिड़कते हो तुम
तो
कुछ ऐसा भी कर दो
कि नन्हें अधरों की
भोली मुस्कुराहट
बनी रहे हमेशा

सेंटा!
अगर कुछ दे सको तो
पूरी कर देना
बस इतनी सी चाह
इस क्रिसमस पर !

©यशवन्त माथुर©

21 December 2012

सोचो दोस्तों..........( बहुत पुरानी पंक्तियाँ)

कल अचानक एक पुरानी डायरी का पन्ना मिल गया । इस पन्ने पर 4 अगस्त 2000 को राधा बल्लभ इंटर कॉलेज दयालबाग आगरा (तब मैं कक्षा -11 का छात्र था) के क्लास रूम की स्थिति पर लिखी मेरी पंक्तियाँ दर्ज़ हैं।यह पंक्तियाँ एकाउंटेंसी (बालमुनी कश्यप सर) के पीरियड के बाद वाले खाली पीरियड मे अपनी सीट पर लिखी थी।  हालांकी यह कॉलेज अपने अनुशासन और पढ़ाई के लिये आगरा मे प्रसिद्ध है फिर भी हमारे साथी मौका देखते ही 'अपनी' पर आ ही जाते थे :)

इन पंक्तियों को बिना किसी सुधार के उस पन्ने से उतार कर जस का तस आज अपने ब्लॉग पर भी प्रस्तुत कर रहा हूँ---


सोचो दोस्तों
हम किधर जा रहे हैं
क्लास मे बैठ के
फिल्मी गाना गा रहे हैं।

सामने हमारे
'सर' पढ़ा रहे हैं
लेकिन हम उनकी
हंसी उड़ा रहे हैं।

पूछते जब वो हैं कुछ
बता नहीं पाते हम
इसी वजह से रोज़
डंडे खूब खाते हम।

कॉलेज आते हैं
घर से कुछ खा कर नहीं हम
लेट हो कर इसीलिए
डंडे खूब खाते हम ।

सोचो दोस्तों
किधर जा रहे हैं हम
विद्या के मंदिर को
मूंह चिढ़ा रहे हम ।

सोच लो विचार लो
दृढ़ निश्चय ठान लो
सब से बड़ी विद्या है
मन मे बैठाल लो।


©यशवन्त माथुर©

18 December 2012

मर्दानगी की ख़ुदकुशी ......

पिशाचत्व का
रूप देख कर
उस रात से
शर्मसार
पौरुषत्व
नज़रें गड़ाए
ज़मीन पर
मना रहा है
शोक
मर्दानगी की
ख़ुदकुशी का

हाँ
ख़ुदकुशी
जो रोज़ करती है
मर्दानगी
कभी यहाँ
कभी वहाँ
छपती है
सुर्खियों में
तीर-तलवार या
तोप नहीं ...
दम तोड़ती
गूंगी खबर
बन कर

और बेचारा
पौरुष
अब तलाश में है
नयी उपमा की
ताकि भर सके दंभ
खुद के होने का
इसी दुनिया के
किसी पर्दानशीं
कोने में

©यशवन्त माथुर©

(दिल्ली की शर्मनाक घटना पर मेरी प्रतिक्रिया)
 

15 December 2012

कुछ बातें ....

कुछ बातें
होती हैं
हाथी के दांतों की तरह
जो सोची जाती हैं
कहीं नहीं जातीं
जो कही जातीं हैं
सोची नहीं जातीं
फिर भी
कभी मजलिसों में 
महफिलों में
या तीखी बहसों में
कह दी जाती हैं
हाथी दांत के जैसा
खुद का
अक्स दिखाने को।

©यशवन्त माथुर©

13 December 2012

वीरता का पुरस्कार ......?

हिंदुस्तान-लखनऊ-13/12/2012 (पृष्ठ-16)
वो
एक माँ है
बेटी है
पत्नी है
उसने

11 साल पहले
संसद पर
गोली खाई है
वो वीर है
इतिहास के पन्नों पर

उसकी वीरता
आज लगा रही है झाड़ू
दिल्ली की सड़कों पर
निर्भर हो कर
ठेकेदार के करम पर

क्या वो झाड़ पाएगी
कागज के दबे पन्नों से धूल
क्या वो निकाल पाएगी
अलमारी मे छिपी
उस मोटी फाइल का बंडल
जिसमें छुप कर
कुंभकरणी नींद सो रहा है
उसकी वीरता का सबूत ?

या
यूं ही
चार हज़ार की
चक्की में
पिसता उसका जीवन
हर साल छपा करेगा
अखबार के पिछले पन्ने पर ?

(आज के 'हिंदुस्तान' मे छपे समाचार से प्रेरित-देखें चित्र)

©यशवन्त माथुर©

सफर


फिर एक नया पड़ाव
फिर एक नया मोड़
एक नया रास्ता
फिर एक नया दौर
उसी पुराने सफर का
जिसका सिलसिला
चलता चला आ रहा है

तेज़ रफ्तार दौड़ती
वक़्त की इस बस मे बैठा
बस यही सोच रहा हूँ
भोथरी होती
कलम की नोंक की तरह 
बदलाव की आस लिये
यह जीवन भी
कभी देखेगा
अपना अंतिम दिन।

©यशवन्त माथुर©

12 December 2012

जाड़े की नर्म धूप ......

बादलों संग खेलते कूदते
मंद सूरज  की
मस्ती में
जाड़े की नर्म धूप
पूनम के चाँद की
बिखरती चाँदनी
की तरह
बंद आँखों के पार
मन के शून्य में
अपने
क्षणिक एहसास के साथ
कहती है
इस पल को 
जी भर जीने को
क्योंकि
दुनिया के 
दूसरे कोने में
अंतिम सांसें गिनता
अंधेरा
कर रहा है
उसका इंतज़ार!

©यशवन्त माथुर©

09 December 2012

फर्क नहीं पड़ता

आए कोई न आए इस दर पर
फर्क नहीं पड़ता
नकाब मे चेहरा छुपा कर
कुछ कह जाए
फर्क नहीं पड़ता

शब्दों की इन राहों पर
शब्दों के तीखे मोड़ों पर
शब्दों के भीड़ भरे मेलों में
मिल जाए कोई या बिछड़ जाए
फर्क नहीं पड़ता 

न आने से पहले कहा था कुछ
न जाने से पहले कुछ कहना है
इस लाईलाज नशे मे डूब कर
खुश होना कभी बिखरना है

यह महफिल नहीं रंगों की
न रंग बिरंगे पर्दे हैं
कभी गरम तो सर्द हवा संग
एक मन और उसकी बाते हैं

हम तो चलते चलते हैं
यूं ही कुछ कुछ कहते हैं
कुछ मे कभी कुछ न मिले तो
अर्थ अनर्थ को
फर्क नहीं पड़ता। 

©यशवन्त माथुर©

06 December 2012

सन्नाटा ......



यूं तो अक्सर
दिन और रात
कटते हैं
शोर में
फिर भी
भटकता है मन
कभी कभी
सन्नाटे की तलाश में

सन्नाटा
जो घोर अंधेरी रातों में
साथ साथ चलता है

सन्नाटा
जो डर और दहशत के पलों मे
बोलता है
काँपते होठों की जुबां

सन्नाटा
जो हवा मे तैरते
शास्त्रीय स्वरों और रागों की
छिड़ी तान के साथ
बंद आँखों और खुले कानों को
सुकून देता है

वो सन्नाटा
वो बोलती खामोशी
और फिजाँ मे महकती
रात की रानी*
बीते दौर की कहानी
बन कर
अब कहीं खो चुकी है
चीखते राज मार्गों के
मर्मांतक शोर मे
भोर से
भोर के होने तक। 

----
*रात की रानी एक फूल होता  है 

©यशवन्त माथुर©  


02 December 2012

यह कविता नहीं....

बस
कुछ टूटे फूटे शब्द
नियमों से परे
कभी कभी
ले लेते हैं
एक आकार
कर देते हैं
कल्पना को साकार

जिनमे न रस
न छंद
न अलंकार की सुंदरता
जिनमे न हलंत
न विसर्ग
न विराम और
मात्राओं की जटिलता

बस है
तो सिर्फ
एक मुक्त
उछृंखल
अभिव्यक्ति
अन्तर्मन की

पंक्ति !
हाँ यह
बिखरे शब्द
इधर उधर उड़ते शब्द
कुछ कहते शब्द
सिर्फ कुछ पंक्तियाँ हैं
कविता नहीं

क्योंकि
कुछ कहना आसान है
शब्दों को ऊपर नीचे
सजाना आसान है
आसान है तुकबंदी
भावनाओं की जुगल बंदी
आसान है
मर्म स्पर्शी लिखना
पर बहुत कठिन है
कविता रचना । 

©यशवन्त माथुर©

 
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