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22 November 2014

नया सफर

फिर शुरू हुआ
चलती साँसों का
एक नया सफर
उसी राह से
जिसकी लंबाई
हर पड़ाव पर
और बढ़ जाती है
मील के
इस पत्थर से
अगले पत्थर के
आने तक
बदलते रहते हैं
घड़ी की सूईयों के दौर
अर्श से फर्श तक
और फर्श से अर्श तक
अनगिनत ठौर
बदलते रहते हैं
दीवारों के रंग
इंसानी चेहरों के ढंग
मंज़िल की तलाश में
इन बिखरी
राहों के संग
समय की मार से
बे असर -बे खबर 
फिर शुरू हुआ
चलती साँसों का
एक नया सफर ।
 
~यशवन्त यश©

owo06112014  

17 November 2014

पुरस्कार बनाम लेखक की आज़ादी

ज के दौर में कौन ऐसा होगा जो पुरस्कार पाने को लालायित न होगा। चाहे वह कोई छोटा मोटा पुरस्कार हो या बड़े से बड़ा....पुरस्कार को ठुकराने की हिम्मत आज किसी में नहीं है। लेकिन कल के "हिंदुस्तान" में जब इस लेख को पढ़ा तो पता चला कि एक लेखक ऐसा भी था जिसने 50 साल पहले "नोबल" जैसे पुरस्कार को भी ठुकरा दिया था।
http://www.livehindustan.com/…/article1-Very-sorry-event-se… से साभार पेश है कल प्रकाशित वही एतिहासिक आलेख-
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लेखक की आजादी

 पचास वर्ष पहले एक घटना ने दुनिया में खलबली मचा दी थी। 1964 में फ्रांस के विख्यात लेखक-चिंतक ज्यां-पॉल सार्त्र ने नोबेल पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया था। सार्त्र एकमात्र शख्सियत हैं, जिन्होंने स्वेच्छा से यह पुरस्कार नहीं लिया था। अपना रवैया स्पष्ट करते हुए उन्होंने जो वक्तव्य प्रकाशित किया था, वह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। प्रस्तुत है वही वक्तव्य

मुझे इस बात का बेहद अफसोस है कि यह घटना एक सनसनी बन गई: एक पुरस्कार दिया गया और मैंने उसे लेने से इनकार कर दिया। यह सब इसलिए हुआ कि मुझे समय से सूचना नहीं दी गई कि क्या होने जा रहा है। जब 15 अक्तूबर के फिगैरो लिटरेयर में मैंने स्वीडन संवाददाता का स्तंभ पढ़ा कि पुरस्कार के लिए अकादमी का झुकाव मेरे नाम की ओर है, पर इस पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है, तो मैंने समझा कि अकादमी को एक पत्र लिखने से, जो मैंने अगले दिन ही भेज भी दिया था, मेरा पक्ष स्पष्ट हो जाएगा और इस पर भविष्य में कोई चर्चा नहीं होगी।
मुझे उस समय नहीं मालूम था कि पुरस्कार ग्रहण करने वाले से विचार-विमर्श के बिना ही नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। मुझे यकीन था कि इसकी घोषणा होने से पहले अभी इसे रोका जा सकता है। पर अब मुझे पता है कि जब स्वीडिश अकादमी एक निर्णय ले लेती है, तो बाद में इसे निरस्त नहीं कर सकती। जैसा कि मैंने अकादमी को लिखे पत्र में स्पष्ट किया है, पुरस्कार लेने से इनकार करने का संबंध न तो स्वीडिश अकादमी से है और न स्वयं नोबेल पुरस्कार से। इसमें मैंने व्यक्तिगत व वस्तुपरक दो तरह के कारणों का जिक्र किया है।
व्यक्तिगत कारण ये हैं: मेरा इनकार किसी आवेग का भाव प्रदर्शन नहीं है। मैंने हमेशा आधिकारिक सम्मान से इनकार किया है। युद्ध के बाद 1945 में जब लीजन ऑफ ऑनर का प्रस्ताव रखा गया, तो सरकार से सहानुभूति रखते हुए भी मैंने इनकार कर दिया था। इसी तरह अपने कई मित्रों की सलाह के बावजूद मैंने कभी कॉलेज डि फ्रांस में जाने का प्रयास नहीं किया। मेरा यह रुख लेखकीय कर्म की मेरी अवधारणा से संबद्ध है। एक लेखक अगर अपने राजनैतिक, सामाजिक या साहित्यिक विचार बनाता है, तो उसे सिर्फ अपने संसाधनों पर निर्भर होना चाहिए यानी लिखे शब्दों पर। वह जो भी सम्मान ग्रहण करता है, उनसे उसके पाठक को दबाव का अनुभव होता है, जो मुझे वांछनीय नहीं लगता।
जैसे अगर मैं ज्यां पॉल सार्त्र के रूप में हस्ताक्षर करता हूं, तो यह नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां पॉल सार्त्र के तौर पर हस्ताक्षर से नितांत भिन्न होगा। जो लेखक इस तरह के पुरस्कार स्वीकार करता है वह उस समिति या संस्था से भी खुद को संबद्ध अनुभव करता है, जिसने उसे सम्मानित किया हो। वेनेजुएला की क्रांति के साथ मेरी सहानुभूति केवल मुझे ही प्रतिबद्ध करती है, वहीं अगर नोबेल पुरस्कार विजेता ज्यां पॉल सार्त्र वेनेजुएला के प्रतिरोध का समर्थन करता है, तो वह संस्था के तौर पर पूरे नोबेल पुरस्कार को इसके लिए प्रतिबद्ध बना देता है।
इसलिए लेखक को खुद को संस्था में परिवर्तित होने से इनकार कर देना चाहिए, भले ही उसके लिए, जैसा कि इस मामले में है, परिस्थितियां कितनी ही सम्मानजनक क्यों न हों। नि:संदेह यह दृष्टिकोण नितांत मेरा अपना है। जो लोग यह पुरस्कार स्वीकार कर चुके हैं, उनकी कोई आलोचना इसमें नहीं है। मेरे मन में इनमें से बहुत से पुरस्कार विजेताओं के लिए सम्मान व सराहना की भावना है, जिनसे सौभाग्य से मैं परिचित हूं। मेरे वस्तुनिष्ठ कारण ये हैं: सांस्कृतिक मोर्चे पर आज जो एकमात्र संघर्ष संभव है, वह दो संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सहअस्त्वि का संघर्ष है- पूर्व और पश्चिम का संघर्ष। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि वे एक-दूसरे को गले लगा लें - मैं जानता हूं कि इन दो संस्कृतियों का आपसी विरोध मतवैभिन्न्य का रूप ले लेगा-लेकिन यह विरोध लोगों और संस्कृतियों के बीच होना चाहिए। इसमें संस्थाओं का दखल न हो।
मैं स्वयं दो संस्कृतियों के अंतर्विरोधों से गहरे प्रभावित हूं: मेरा व्यक्तित्व ऐसे ही अंतर्विरोधों से बना है। नि:संदेह मेरी सहानुभूति समाजवाद, जिसे पूर्वी ब्लॉक कहा जाता है, के साथ है, मगर मैं एक बुर्जुआ परिवार में पैदा हुआ व इसी परिवेश में मेरी परवरिश हुई। यही कारण है कि मैं उन लोगों के साथ मिल कर कार्य करना चाहता हूं, जो दोनों संस्कृतियों को निकट लाना चाहते हैं। और इसके बावजूद मुझे उम्मीद है कि बेशक जो बेहतर है, जीत उसी की होगी, यानी समाजवाद की। नि:संदेह यही कारण है कि मैं सांस्कृतिक सत्ता का दिया कोई सम्मान स्वीकार नहीं कर सकता। पश्चिम के सत्ताधिकारियों के अस्तित्व से अगर मेरी सहानुभूति हो, तब भी नहीं, वैसे ही मैं पूर्वी ब्लॉक से भी सम्मान नहीं ले सकता। हालांकि मेरी तमाम सहानुभूति समाजवादी पक्ष की ओर है, तब भी मैं उनका दिया सम्मान लेने में असमर्थ होता।
उदाहरण के तौर पर कोई अगर मुझे देना चाहे, तब भी मैं लेनिन पुरस्कार स्वीकार नहीं कर सकता, हालांकि ऐसा कुछ है नहीं। मैं जानता हूं कि नोबेल पुरस्कार अपने आप में पश्चिमी ब्लॉक का साहित्यिक पुरस्कार नहीं है, पर अब इसका रूप कुछ ऐसा ही हो गया है। ऐसी घटनाएं हो सकती हैं, जो स्वीडिश अकादमी के अधिकार क्षेत्र के बाहर हों। वर्तमान में नोबेल पुरस्कार पश्चिम के लेखकों व पूर्व के विद्रोही लेखकों के लिए पुरस्कार के तौर पर आरक्षित हो गया लगता है। उदाहरण के तौर पर इसे नेरूदा को नहीं दिया गया, जो दक्षिण अमेरिका के महान कवियों में से एक हैं। लुई अरागां इसके सही मायनों में हकदार थे, पर उन्हें देने का कोई प्रश्न ही नहीं उठा। अफसोस है कि पुरस्कार पास्तरनाक को मिला, शोलोखोव को नहीं, यानी उस सोवियत लेखक को, जो देश के बाहर छपा और अपने देश में प्रतिबंधित हो गया। इसमें संतुलन के लिए दूसरे पक्ष के साथ भी ऐसा ही किया जा सकता था। अलजीरिया की लड़ाई के दौरान जब हमने ‘121 का घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किए, तो मैं इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लेता, क्योंकि तब यह मेरा ही नहीं, उस स्वतंत्रता का भी सम्मान होता, जिसके लिए हम संघर्ष कर रहे थे। पर ऐसा नहीं हुआ।
युद्ध के बाद ही मुझे पुरस्कार देने का निर्णय किया गया। स्वीडिश अकादमी के मंतव्य पर बात करते हुए स्वतंत्रता का जिक्र भी हुआ है। एक ऐसा शब्द जिसके बहुत से अर्थ निकाले जा सकते हैं। पश्चिम में स्वतंत्रता अपने सामान्य अर्थ में है: व्यक्तिगत रूप से मैं समझता हूं कि स्वतंत्रता ज्यादा सशक्त हो, जिसमें एक जोड़ी से ज्यादा जूते रखने और भरपूर खाने का अधिकार हो। मुझे लगता है कि पुरस्कार से इनकार करने से ज्यादा खतरनाक है, इसे स्वीकार करना। अगर मैं इसे स्वीकार करता हूं, तो यह एक तरह से अपना ‘वस्तुपरक पुनर्वास’ करना होगा। फिगैरो लिटरेयर के लेख के अनुसार, ‘एक विवादास्पद राजनीतिक अतीत को मेरे खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया गया’। मैं जानता हूं कि यह लेख अकादमी के विचार व्यक्त नहीं करता, लेकिन यह साफ तौर से व्यक्त करता है कि अगर मैं पुरस्कार स्वीकार कर लेता हूं, तो कुछ दक्षिणपंथी गुट इसे क्या मानेंगे। मैं इस ‘विवादास्पद राजनीतिक अतीत’ को अभी भी मान्य समझता हूं, भले ही मैं अपने अतीत की कुछ गलतियों को अपने साथियों के सामने स्वीकार करने को तैयार हूं।
इससे मेरा यह मतलब नहीं है कि नोबेल पुरस्कार कोई बुर्जुआ पुरस्कार है, पर इसकी यह बुर्जुआई व्याख्या मेरे आसपास के परिचित विशिष्ट परिवेश में की गई है। अंत में मैं राशि संबंधी प्रश्न पर आता हूं। यह अपने आप में बड़ा भारी बोझ है कि अकादमी विजेता को सम्मान के साथ प्रचुर धनराशि भी देती है। यही समस्या मुझे यंत्रणा देती है। या तो कोई पुरस्कार स्वीकार करे व पुरस्कार राशि उन संगठनों या आंदोलनों को दे, जिन्हें वह महत्वपूर्ण मानता है - मसलन मैं खुद लंदन की रंगभेद समिति को यह राशि देना चाहता। या कोई अपने सिद्धांतों के चलते पुरस्कार से इनकार कर इस तरह के जरूरतमंद आंदोलन को सहायता से वंचित रखे। पर मुझे लगता है कि समस्या का यह कोई बड़ा आधार नहीं है। बेशक मैं ढाई लाख क्राउन की यह राशि इसलिए अस्वीकार करता हूं, क्योंकि मैं अपने को पूर्व या पश्चिम के संस्थागत रूप में अपनी कोई पहचान नहीं बनाना चाहता, लेकिन दूसरी ओर किसी को ढाई लाख क्राउन के लिए उन सिद्धांतों को नकारने के लिए भी नहीं कहा जा सकता, जो उसके अपने ही नही हैं, उसके दूसरे साथियों की भी उनमें भागीदारी है। यही वे कारण हैं, जिन्होंने इस पुरस्कार का मिलना व इसे लेने से इनकार करना मेरे लिए पीड़ादायक बना दिया। मैं स्वीडन की जनता के साथ भाईचारा व्यक्त करते हुए यह स्पष्टीकरण समाप्त करता हूं।
(अनुवाद: सुमिता)

12 November 2014

परिवर्तनों के साथ.......

जीवन के
स्वाभाविक
अस्वाभाविक
परिवर्तनों के साथ
हम चलते रहते हैं
अपनी राह
करते रहते हैं
अपने कर्म
निभाते रहते हैं
अपना धर्म
फिर भी
अनजान बने रहते हैं
कभी कभी
डगमगाने लगते हैं
जब उतरने लगती हैं
मुखौटों की
एक एक परतें
और सामने
आने लगता है
एक अनचाहा काला सच
जो दबा हुआ था
सफेदी की भीतरी तहों में
उस सच के
बाहर आने के बाद
परतों की सिलाई
उधड़ने के बाद 
हर ओर से उठतीं
अस्तित्व को भेदतीं 
उँगलियाँ
रह सकती हैं
अब भी
अपनी सीमा के भीतर
गर कर लें संकल्प
कि
न होने देंगे खुद पर
समय के
रूप परिवर्तन का असर  ।

~यशवन्त यश©

08 November 2014

पगडंडियां .....(मृगतृष्णा जी की कविता)

कल शाम को फेसबुक पर मृगतृष्णा  जी की यह कविता पढ़ कर इसे अपने ब्लॉग पर साझा करने से खुद को न रोक सका। आप भी पढ़िये-

(1)
पगडंडियां मौके नहीं देतीं
संभलने के
पीछे से कुचले जाने का
ख़ौफ़ भी नहीं 


(2)
पगडंडियां दूर तक
नहीं जातीं
बस इनके क़िस्से
शेष रह जाते हैं

(3)
बड़े रास्तों तक पहुँचाकर
विधवा मांग सी
पीछे पड़ी रह जाती हैं
पगडंडियां

(4)
हरे हो गये मुसाफ़िर क़दम इनके
पीली दूब का श्रृंगार किये
आदिम रह जाती पगडंडियां

(5)
पहली रात के दर्द से घबराई
क़स्बाई लड़की लौट नहीं पायी घर
रात शहर उसने बदहवास खोजी
पगडंडियां

(6)
मेरे हिस्से की पगडण्डी
मिलती नहीं
घसियारिन के बाजूबंद सी
गुम हो गयीं पगडंडियाँ

---------मृगतृष्णा©

06 November 2014

बीते दौर की बातें

कभी कभी
बीते दौर की कुछ बातें
यादों के बादल बन कर
छा जाती हैं
मन के ऊपर
बना लेती हैं
एक कवच
रच देती हैं
एक चक्रव्यूह
जिसे भेदना
नहीं होता आसान
नये दौर की
नयी बातों के लिये ।
मन !
उलझा रहता है
सिमटा और
बेचैन रहता है
भीगने को
अनंत शब्दों की
तीखी बारिश में
जो अवशेष होते हैं
उड़ते जाते
उन बादलों के
जिनके भीतर
छुपा होता है
इतिहास 
उस आदिम
दौर का
जब चलना सीखा था
कल्पना की
दलदली धरती पर
कलम की
बैसाखी लेकर ।
मैं !
आज भी चल रहा हूँ
कल भी चलूँगा
चलता रहूँगा
पार करता रहूँगा 
उस दौर से
इस दौर के
नये चौराहे
मगर
इस थकान भरे सफर में
थोड़ा रुक कर
थोड़ा थम कर
आत्म मंथन के
अल्प अवकाश को
साथ ले कर
कभी कभी
बीते दौर की कुछ बातें
छा जाती हैं 
यादों के
बादल बन कर।
  
~यशवन्त यश©
owo04112014 

04 November 2014

कुछ लोग -7

कुछ लोग
होते हैं
कोरे पन्ने की तरह
सफ़ेद
जिनका मन
ज़ुबान और दिल
ढका होता है
पारदर्शक
टिकाऊ 
आवरण से....
आवरण !
जो रहता है
बे असर
चुगलखोरी की
दूषित हवा
और काली स्याही के
अनगिनत छींटों से
आवरण !
जिसे तोड़ने
चूर चूर करने की
कई कोशिशें भी
रह जाती हैं
बे असर
पाया जाता है
उन कुछ ही
लोगों के पास 
जो होते हैं
लाखों में एक 
उस जलते
चिराग की तरह
तमाम तूफानों के
बाद भी
जिसकी लौ
रोशन है
सदियों से
आज की तरह।

~यशवन्त यश©


[कुछ लोग श्रंखला की अन्य पोस्ट्स यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं] 

01 November 2014

वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से

पीठ पर लादे भारी भरकम सा बस्ता
जिसके भीतर उसका हर ज्ञान सिमटता 
कभी करती हुई बातें संगी साथियों से
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से 

कभी हाथ थामे अपने किसी बड़े का 
गुनगुनाती हुई कोई प्यारी सी कविता 
खुश होता है मन उसकी शरारतों से 
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से

उसे नहीं पता क्या दुनिया के तमाशे हैं 
उसे तो चंद खुशियों के पल ही भाते हैं  
बेखबर गुज़रती है  बचपन की राहों से 
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से। 

~यशवन्त यश©
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