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28 March 2021

तो कितना अच्छा हो

सामाजिक दूरी की 
मान्यता वाले 
इस कल्पनातीत दौर में 
चुटकी भर रंगों की 
औपचारिकता के साथ 
बुरा मानने को मिल चुकी 
वैधानिकता के साथ 
बस तमन्ना इतनी है 
कि सड़कों के किनारे 
और झुग्गियों में रहने वाले 
गर रख सकें जीवंत 
शहरी रईसों द्वारा 
इतिहास बना दी गई 
फागुन की 'असभ्यता' को 
तो कितना अच्छा हो।  

तो कितना अच्छा हो 
कि आखिर कहीं तो 
हम साक्षात हो सकें 
अपने बीत चुके वर्तमान से 
जिसने कैद कर रखा है
गली-गली की मस्तियों को  
डायरियों और तस्वीरों में 
जिसने घूंट-घूंट कर पिया है 
और  जीया है 
भंग की तरंग में 
लड़खड़ाती जुबान 
और कदमों की थिरकन को
काश!
यूँ समय के सिमटने के साथ 
हम कभी भूल न पाएं 
हिलना-मिलना 
और गले लगना 
तो कितना अच्छा हो।  
.
(होली का पर्व आप सबको सपरिवार शुभ और मंगलमय हो) 

-यशवन्त माथुर©
28032021

27 March 2021

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट: डॉक्टर कृपा शंकर माथुर

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के भूतपूर्व सदस्य एवं लखनऊ विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉक्टर कृपा शंकर माथुर साहब मेरे पिता जी के मामा जी थे और उनका विशेष स्नेह सदा ही पिता जी पर रहा। 48 वर्ष की आयु में 21 सितंबर 1977 को उनके निधन का समाचार एवं चांदी के वर्क पर आधारित उनकी लेखमाला (जो अपूर्ण रह गई) का क्रमिक भाग 22 सितंबर 1977 के नवजीवन में प्रकाशित हुआ था, जो संग्रह की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत है-

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट

'नवजीवन’ के विशेष अनुरोध पर डाक्टर कृपा शंकर माथुर ने लखनऊ की दस्तकारियों के संबंध में ये लेख लिखना स्वीकार किया था। यह लेख माला अभी अधूरी है, डाक्टर माथुर की मृत्यु के कारणवश अधूरी ही रह जाएगी, यह लेख इस शृंखला में अंतिम है। 

गर आपसे पूछा जाए कि आप सोना या चांदी खाना पसंद करेंगे, तो शायद आप इसे मजाक समझें लेकिन लखनऊ में और उत्तर भारत के अधिकांश बड़े शहरों में कम से कम चांदी वर्क के रूप में काफी खाई जाती है। हमारे मुअज़्जिज मेहमान युरोपियन और अमरीकन अक्सर मिठाई या पलाव पर लगे वर्क को हटाकर ही खाना पसंद करते हैं, लेकिन हम हिन्दुस्तानी चांदी के वर्क को बड़े शौक से खाते हैं। 

चांदी के वर्क का इस्तेमाल दो वजहों से किया जाता है। एक तो खाने की सजावट के लिये और दूसरे ताकत के लिये। मरीजों को फल के मुरब्बे के साथ चांदी का वर्क अक्सर हकीम लोग खाने को बताते हैं। 

(दैनिक 'नवजीवन'-22 सितंबर 1977, पृष्ठ-04) 
कहा जाता है कि चांदी के वर्क को हिकमत में इस्तेमाल करने का ख्याल हकीम लुकमान के दिमाग में आया, सोने-चांदी मोती के कुशते तो दवाओं में दिये ही जाते हैं और दिये जाते रहे हैं, लेकिन चांदी के वर्क का इस्तेमाल लगता है कि यूनान और मुसलमानों की भारत को देन  है। चांदी के चौकोर टुकड़े को हथौड़ी से कूट-कूट कर कागज़ से भी पतला वर्क बनाना, इतना पतला कि वह खाने की चीज के साथ बगैर हलक में अटके खाया जा सके। कहते हैं कि यह विख्यात हकीम लुकमान की ही ईजाद थी। जिनकी वह ख्याति है कि मौत और बहम के अलावा हर चीज का इलाज उनके पास मौजूद था। 

लखनऊ के बाजारों में मिठाई अगर बगैर चांदी के वर्क के बने  तो बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों देहाती कहे जाएंगे। त्योहार और खासकर ईद के मुबारक मौके पर शीरीनी और सिवई की सजावट चांदी के वर्क से कि जाती है। शादी ब्याह के मौके पर नारियल, सुपारी और बताशे को  भी चांदी के वर्क से मढ़ा जाता है। यह देखने में भी अच्छा लगता है और शुभ भी माना जाता है। क्योंकि चांदी हिंदुस्तान के सभी बाशिंदों में पवित्र और शुभ मानी जाती है। 

लखनऊ के पुराने शहर में चांदी के वर्क बनाने के काम में चार सौ के करीब कारीगर लगे हैं। यह ज्यादातर मुसलमान हैं, जो चौक और उसके आस-पास की गलियों में छोटी-छोटी सीलन भरी अंधेरी दुकानों में दिन भर बैठे हुए वर्क कूटते रहते हैं।ठक-ठक की आवाज से जो पत्थर की निहाई पर लोहे की हथौड़ी से कूटने पर पैदा होती है, गलियाँ गूँजती रहती हैं। 

इन्हीं में से एक कारीगर मोहम्मद आरिफ़ से हमने बातचीत की। इनके घर से पाँच-छह पुश्तों से वर्क बनाने का काम होता है। चांदी के आधा इंच वर्गाकार टुकड़ों को एक झिल्ली के खोल में रखकर पत्थर की निहाई पर और लोहे की हथौड़ी से कूटकर वर्क तैयार करते हैं। डेढ़ घंटे में कोई डेढ़ सौ वर्कों की गड्डी तैयार हो जाती है, लेकिन यह काम हर किसी के बस का नहीं है। हथौड़ी चलाना भी एक कला है और इसके सीखने में एक साल से कुछ अधिक समय लग जाता है। इसकी विशेषता यह है कि वर्क हर तरफ बराबर से पतला हो,चौकोर हो,और बीच से फटे नहीं। 

वर्क बनाने वाले कारीगर को रोजी तो कोई खास नहीं मिलती, पर यह जरूर है कि न तो कारीगर और न ही उसका बनाया हुआ सामान बेकार रहता  है। मार्केट सर्वे से पता चलता है कि चांदी के वर्क की खपत बढ़ गई है और अब यह माल देहातों में भी इस्तेमाल में आने लगा है। 

ठक…. ठक…. ठक। घड़ी की सुई जैसी नियमितता से हथौड़ी गिरती है और करीब डेढ़ घंटे में 150 वर्क तैयार। 

प्रस्तुति:यशवन्त माथुर  
संकलन:श्री विजय राज बली माथुर 

19 March 2021

'राष्ट्रसंघ - एक बंधुआ विश्व संस्था' : श्री बी.डी.एस. गौतम (पुरानी कतरनों से, भाग-2)

राष्ट्र संघ -एक बंधुआ विश्व संस्था
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पेरेज द कुइयार कह रहे हैं कि इराक के विरुद्ध अमेरिका और उसके मित्र देशों की कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाही नहीं है, पर जॉन मेजर से लेकर जॉर्ज बुश तक अमेरिकी नेतृत्व में इराक के विरुद्ध लड़े जा रहे युद्ध को इराक से संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को मनवाने के लिए की जा रही कार्यवाही बनाते हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि मित्र देश संयुक्त राष्ट्र संघ की हैसियत बनाए रखने के लिए इराक पर हमला बोल देते हैं और महासचिव को तब तक कोई सूचना ही नहीं रहती। कुइयार ने पिछले दिनों एक पश्चिमी अखबार को दिए गए अपने इंटरव्यू में बताया था कि युद्ध शुरू होने के 1 घंटे बाद मुझे इसकी सूचना मिली। कुइयार ने यह भी बताया अमेरिका ने जिस समय इराक पर हमला बोला उससे कुछ ही घंटे बाद वे खाड़ी संकट के शांति पूर्वक हल के लिए एक और राजनैतिक प्रयास कर रहे थे। मगर अमेरिका ने उनसे यह मौका छीन लिया। पेरेज द कुइयार के इस कथन से साफ-साफ जाहिर होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ नामक जिस संस्था को पिछले 45 सालों से विश्व की शांति और स्वतंत्रता की रक्षक माना जाता है वह निरा एक ढोंग है। हालांकि इतिहास में यह ढोंग पहले भी कई बार प्रकट हो चुका है, मगर वर्तमान खाड़ी युद्ध ने पूरी तरह साबित कर दिया है की यह संस्था अमेरिका की बंधुआ है।
(अमर उजाला, आगरा में 18 फरवरी 1991 को प्रकाशित)

राष्ट्र संघ की कोख से जन्मी संयुक्त राष्ट्र संघ का 45 वर्षीय इतिहास गवाह है कि विश्व संस्था के नाम पर यह अपनी ताकत का इस्तेमाल अमेरिका की दादागिरी को नैतिक सर्टिफिकेट प्रदान करने में करती रही है और यह आज से नहीं बल्कि तब से जारी है जब हैरी एस ट्रूमैन के नेतृत्व में अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में अपनी आर्थिक और सैनिक दादागिरी जमाने का इरादा बना चुका था। अमेरिका के इस इरादे की पुष्टि और  संयुक्त राष्ट्र संघ के निष्पक्षता की पोल तो वास्तव में 27 जून 1950 को ही खुल गई थी जब राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अपनी हवाई सेना और समुद्री बेड़े को उत्तर कोरिया के खिलाफ तुरंत कार्यवाही का आदेश दिया था।

संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में  कहा गया था  कि दो देशों के आपसी झगड़े में तीसरा देश संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति के बाद ही कूदेगा, मगर अमेरिका ने इस तरह के किसी कानून के पालन को जरूरी नहीं समझा। 25 जून 1950 को उत्तरी और दक्षिणी कोरिया दोनों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अमेरिका दूसरे ही दिन इस लड़ाई में हस्तक्षेप हेतु उतर आया जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस हस्तक्षेप को कानूनी जामा 5 महीने बाद यानी नवंबर 1950 में जाकर पहनाया। यही नहीं नवंबर 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब उत्तरी कोरिया के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास किया तो उसी अमेरिकी सैनिक कमांडर मैकाथेर को संयुक्त सेनाओं का कमांडर जनरल नियुक्त कर दिया जो 5 महीने पहले से ही अमेरिकी कार्यवाही का नेतृत्व कर रहा था।

वर्तमान उदाहरण को ही देख लीजिए अपने आप पता चल जाएगा कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र का आदेश मान रहा है या संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का। 5 अगस्त 1990 को अमेरिकी कांग्रेस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाता है, 16 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र इराक के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध पास कर देता है, 16 अगस्त को अमेरिकी नौसेना आर्थिक प्रतिबंध के बहाने खाड़ी में अपना मोर्चा जमाती है और नवंबर के आखिरी सप्ताह में यू एन ओ इराक के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर देता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि नवंबर तक अमेरिका इराक के खिलाफ लगातार अपने मोर्चे सजाने में लगा रहा। 10हजार  से शुरुआत करके 3लाख  सैनिक तक इस बीच उसने खाड़ी में जमा कर दिए। स्पष्ट है यू एन ओ इराक के खिलाफ सितंबर में भी बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर सकता था यदि अमेरिका तुरंत लड़ाई के लिए तैयार होता।

कुवैत पर इराक के आक्रमण के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका जिस तरह से सक्रिय हुए वह विश्व की शांति और स्वतंत्रता के लिए मिसाल बन सकता था बशर्ते दोनों के इरादे नेक होते। मगर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों की तत्परता तब संदिग्ध हो जाती है जब इनके इतिहास की पड़ताल की जाए। उदाहरणार्थ 14 मई 1948 को जब पैलेस्टाइन से ब्रिटिश कमिश्नर राष्ट्र संघ के मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई जिम्मेदारियों को छोड़कर भाग आया तब संयुक्त राष्ट्र संघ या अमेरिका ने पैलेस्टाइन में शांति बनाए रखने के लिए सेना क्यों नहीं भेजी? तब तक तो अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध जैसी भी कोई बात नहीं थी। यही नहीं जब ब्रिटिश कमिश्नर के भागने के बाद यहूदियों ने हिंसा के बल पर जिस 'इस्त्राइल' नामक स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा की उसे मान्यता देने वाला भी अमेरिका दुनिया का पहला राष्ट्र था। यह सब कोई अकस्मात नहीं हुआ था बल्कि हैरी एस ट्रूमैन द्वारा चुनाव पूर्व यहूदियों को दिए गए उनके स्वतंत्र राष्ट्र की वायदे के मुताबिक हुआ था।

संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका की पोल 1965-66 में भी एक बार खुली थी जब यू एन ओ की निष्ठा के प्रति दुहाई देने वाला अमेरिका उसके प्रस्ताव नंबर 2232 को खुल्लम खुल्ला चुनौती देते हुए दियागा गार्सिया द्वीप को इंग्लैंड के साथ हड़प उसे दोनों ने अपना सामरिक अड्डा बना लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ शाब्दिक निंदा के अलावा कुछ नहीं कर पाया।

संयुक्त राष्ट्र संघ के 20-21वें अधिवेशन में प्रस्ताव नंबर 2232 पास किया गया था। इस प्रस्ताव में कहां गया था कि औपनिवेशिक इलाकों की क्षेत्रीय अखंडता का आंशिक या पूर्ण उल्लंघन संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र तथा उसकी नियमावली के प्रस्ताव 1514(पराधीन देशों और जनगण को स्वतंत्रता प्रदान किया जाना) का उल्लंघन होगा। मगर ब्रिटेन और अमेरिका इस प्रस्ताव को ठेंगा दिखाते हुए 30 किलोमीटर वर्ग वाले मॉरीशस के द्वीप डियागो गार्सिया को हिंद महासागर में अपने संयुक्त हितों का सामरिक अड्डा बना लिया। बाद में ब्रिटेन ने इसे सन 2016 तक के लिए अमेरिका को ही किराए पर दे दिया। 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिकी जंगी जहाज ‘इंटरप्राइज’ यहीं से चलकर बंगाल की खाड़ी पहुंचा था। वर्तमान खाड़ी युद्ध में कहर ढा रहे अमेरिका के बमवर्षक बी 52 यहीं से गए हैं।

ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ कभी विश्व कल्याण की संस्था ही नहीं रही। इसके उद्देश्य के मूल में सदैव अमेरिका तथा उसके साथ ही देशों का हित ही रहा है। वैसे यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह संस्था जिस लीग ऑफ नेशन नामक विश्व संस्था की कोख से निकली थी वह अमेरिकी राष्ट्र विल्सन की शांति थ्योरी पर आधारित है। यह बात अलग है कि तत्कालीन अमेरिकी संसद इतनी भी लिबरल नहीं थी कि वह लीग ऑफ नेशन को स्वीकार कर सकती। लीग ऑफ नेशन के बावजूद दूसरा विश्व युद्ध हो गया तो विजेता देश पुनः 1944 में वाशिंगटन के डंबरटन ओक्स नामक स्थान पर इकट्ठा हुए। जिस तरह पहले विश्व युद्ध के बाद शांति का ठेका विजयी राष्ट्रों(और उनमें भी सिर्फ अमेरिका) को मिला था उसी तरह इस बार भी शांति का ठेका विजयी देशों  ने अपने पास रखा। अगर समझा जाए तो इस विश्व संस्था का उदय ही मित्र देशों खासकर अमेरिका की मर्जी को संविधान बनाने के लिए हुआ। इसलिए इस संस्था से विश्व शांति और समानता की आशा करना ही बेमानी है। अगर विजेता देश सचमुच द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ईमानदारी से विश्व शांति के पक्षधर होते तो इस शांति योजना की रचना में शेष देशों को भी( खासकर पराजित) शामिल करते और तब इसका स्वरूप ही कुछ और होता। सच तो यह है कि अगर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व अमेरिका और सोवियत संघ नामक दो खेमों में न बंट जाता या अमेरिका के समानांतर सोवियत संघ न खड़ा होता तो अमेरिका और उसके साथी देश इस तथाकथित विश्व संस्था के जरिए भूषण का ऐसा खेल खेलते 18वीं -19वीं शताब्दी के ब्रिटिश सैन्य साम्राज्यवाद को भी मात कर देते। संभवत इसी वास्तविकता को ध्यान में रखकर सोवियत संघ ने अमेरिका के कोरिया हस्तक्षेप के बाद सुरक्षा परिषद को मान्यता प्रदान कर उसका बकायदा स्थाई सदस्य बन गया।

सोवियत संघ और चीन की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनते ही यह विश्व संस्था इस कदर नाकारा हो गई थी कि इसमें कोई मसला ही नहीं हल हुआ यह सिर्फ राजनेताओं के लिए पिकनिक स्पॉट बन कर रह गई।

अगर लॉर्ड निस्टर के शब्दों में कहा जाए तो यू एन ओ उन प्रिफेक्टरों की तरह है जो छोटे बच्चों को अनुशासन में रखना चाहते हैं परंतु स्वयं उन नियमों से जिनसे वे शासन करना चाहते हैं, बरी रहना चाहते हैं। इसलिए समय आ गया है इस कठपुतली विश्व संस्था को या तो खत्म कर देना चाहिए या फिर इसे सही अर्थों में विश्व संस्था बनाने के लिए इसकी पूरे ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करने चाहिए।
                                                                                                                                -बी.डी.एस. गौतम


प्रस्तुति: यशवन्त माथुर 
मूल संकलनकर्ता : श्री विजय राज बली माथुर 

वक़्त के कत्लखाने में-21

समय के साथ-साथ 
सब चेहरे 
धुंधले होने लगते हैं 
लिखे हुए शब्द 
मिटने से लगते हैं 
सदियों से सहेजे हुए कागज़ 
गलने लगते हैं 
लेकिन 
उन पर रचा हुआ इतिहास 
श्रुति बन कर 
गूँजता रहता है 
वक़्त के कत्लखाने में। 

-यशवन्त माथुर©
19032021

17 March 2021

भारतीय संस्कृति का मूलतत्व : श्री हरिदत्त शर्मा (पुरानी कतरनों से, भाग-1)

इधर कुछ दिनों से पापा ने सालों से सहेजी अखबारी कतरनों को फिर से देखना शुरू किया है। इन कतरनों में महत्त्वपूर्ण आलेख और चित्र तो हैं ही साथ ही ये कतरनें आज के परिप्रेक्ष्य में समाचार पत्रों के भाषागत बदलाव को भी रेखांकित करती हैं। 

आज से समय - समय पर ये कतरनें ब्लॉग पर देता रहूँगा इससे एक तो डिजिटल माध्यम पर इनका संग्रह हो सकेगा और दूसरे संभवतः किसी के काम भी आ सकती हैं। 

शुरुआत 'नवभारत टाइम्स' के तत्कालीन समाचार  संपादक श्री हरिदत्त शर्मा जी के दैनिक प्रभात (मेरठ) में 26 जनवरी 1975 को  प्रकाशित आलेख से-
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जिसकी विशिष्टता विदेशियों ने भी स्वीकार की
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व
-श्री हरिदत्त शर्मा
(समाचार संपादक -नवभारत टाईम्स)

ज के भारतीय बुद्धिजीवियों में यह शंका बार-बार पैदा होती है कि हम प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा से क्या ग्रहण करें? उनका आम ख्याल यह है कि जो अच्छा पुराना है, उसे ले लिया जाना चाहिए और जो सड़ -गल गया है उसे एकदम त्याग देना चाहिए। यह एकदम स्वस्थ दृष्टिकोण है।

बुद्धिजीवी वर्ग में एक ऐसा भी अंश है जो प्राचीन संस्कृति के किसी भी तत्व को आज के युग में उपयोगी नहीं मानता। उसका तर्क यह है आज का युग रॉकेट का युग है, इसलिए बैलगाड़ी के युग की पुरातन संस्कृति आज बिल्कुल निरर्थक है। उसका कहना यह भी है कि हम आज ही, आज के ही विज्ञान से परंपरा से हटकर अपनी नई संस्कृति का निर्माण करें और उसी संस्कृति के धरातल पर भव्य जीवन को प्रतिष्ठापित करें।

सतही तौर पर देखने से इन लोगों की यह बात ठीक सी लगती है और इसीलिए समाज का एक हिस्सा ऐसे बुद्धिजीवियों का अनुसरण कर ही रहा है।

जो लोग इस प्रश्न को सतही तौर पर नहीं लेते वे इस प्रवृत्ति को सामाजिक दृष्टि से भयावह मानते हैं, क्योंकि किसी भी देश की संस्कृति चाहे वह कितनी भी संकटापन्न रही है और चाहे उसमें कितने ही हीन भाव समाविष्ट क्यों न हो गए हों उसमें कहीं ना कहीं ऐसे सूत्र अवश्य होते हैं जो इंसानियत को किसी न किसी तरह से आगे बढ़ाते रहते हैं। इस तरह से वह संस्कृति विश्व संस्कृति का एक अंग बन जाती है। जहां तक भारत का संबंध है उसकी तो बड़ी-बड़ी उपलब्धियां रही हैं और उसने धर्म, कला और साहित्य के क्षेत्रों में विश्व मानवता की बड़ी सेवाएं की हैं। साथ ही यह भी समझ लेना आवश्यक है कि सांस्कृतिक धरातल पर मानव संबंध वैज्ञानिक प्रगति की प्रतिच्छाया मात्र नहीं होते। यह स्वयं मानव विज्ञान बताता है। भारत की पुरातन संस्कृति इस सत्य की साक्षी है।

विदेशी आक्रांत मिटाने में असफल रहे
यह सही है कि हमारा भारत पिछले 13 - 14 सौ वर्ष से लगातार विदेशी आक्रमणों से आक्रांत रहा और उसका इस काल का इतिहास एक प्रकार से आक्रमणों और आंतरिक उथल-पुथल का इतिहास हो गया है। इससे इस दौर में हमारे यहां आत्मरक्षा की भावना बढ़ी और परिणामतः संस्कृति में संकोच भाव आया, जिसका प्रभाव हमारी राजनीति, अर्थनीति, समाज नीति और साहित्य पर भी बुरा पड़ा। किंतु इस कालावधि में भी ऐसे ऐसे नरपुंगव आए जिन्होंने  जड़ता को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े-बड़े सांस्कृतिक आंदोलन खड़े किए। इसीलिए यहां जड़ता में भी गतिशीलता की लहर चलती रही है और यही कारण है कि बड़े से बड़े संकट काल में भी भारतीय जनता की सिंहवृत्ति कायम रही। हमारी भारतीय जनता पर विदेशी आक्रांताओं ने जो जो अत्याचार किए वे संभवत: विश्व के किसी अन्य देश में नहीं किए गए होंगे। दारुण से दारुण पीड़ा भारतीय जनता ने झेली। उसमें कभी-कभी निराशा की अंधियारी भी छाई लेकिन अपनी संस्कृति की मूल भावना से बंधी होने के कारण वह पीड़ा से भी क्रीडा करती रही, अंधेरे में भी प्रकाश देखती रही हार में भी जीत की मानसिकता को कायम रखे रही।

संस्कृति की यह मूल भावना क्या है? कौन सी ऐसी वृत्ति है जो भारत की बहुसंनी संस्कृति में एकात्मकता स्थापित करके जीवित रखे रही? हमारी संस्कृति में ऐसी कौन सी शक्ति थी जिसने अरब, तुर्क, तातार, मुगल और अन्य आक्रमणकारियों को अपने रंग में रंग कर हिंदुस्तानी बना लिया था? यद्यपि अंग्रेज इस शक्ति के समक्ष नहीं झुका और उसने अपने बर्बर प्रहारों से पूरे तरीके से भारत को धराशाई करने की कोशिश की, तथापि भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को नष्ट करने में वह समर्थ नहीं हो सका। इतना ही नहीं हार झ़ख मार कर हमारी संस्कृति के मूल स्रोतों के निकट जिज्ञासु की तरह बैठा और अपनी भाव धाराओं को उसके ज्ञान बल से सोखने लगा।

मार्क्स द्वारा प्रशंसा
फिर यही प्रश्न आता है कि इस महान संस्कृति का कौन सा तत्व भारतीय जनता को महान और वीर बनाए हुए था? एक शब्द में हम कह सकते हैं कि यह तत्व है; हमारी जनता का चैतन्य से विश्वास। इसी विश्वास में वह अमर है। इसी चैतन्य से उसे बुद्धि की तीक्ष्णता प्राप्त हुई है और इसी से नई से नई भावना ग्रहण करने की क्षमता। मार्क्स का कहना है स्वयं ब्रिटिश अधिकारियों की राय के अनुसार हिंदुओं में नहीं ढंग के काम सीखने और मशीनों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने की विशिष्ट योग्यता है। इस बात का प्रचुर प्रमाण कलकत्ते के सिक्के बनाने के कारखाने में काम करने वाले उन देशी इंजीनियरों की क्षमता तथा कौशल में मिलता है, जो  वर्षों  से भाप से चलने वाली मशीनों पर वहां काम कर रहे हैं। इसका प्रमाण हरिद्वार के कोयले वाले इलाकों में भाप से चलने वाले इंजनों से संबंधित भारतीयों में मिलता है और भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं।

मिस्टर कैंपबेल पर ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वाग्रहों का बड़ा प्रभाव है पर वे  स्वयं भी इस बात को कहने के लिए मजबूर हैं कि: 'भारतीय जनता के बहुत संख्या समुदाय में जबरदस्त औद्योगिक क्षमता मौजूद है' पूंजी जमा करने की तुममें अच्छी योग्यता है गणित संबंधी उसके मस्तिष्क की योग्यताबद्ध भावना  है तथा हिसाब किताब के विषय और विज्ञान में वह बहुत सुगमता से दक्षता प्राप्त कर लेती है। वह कहते हैं, उनकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण होती है।

चैतन्य में (सद के प्रति आग्रह रखते हुए) विचार और कर्म की एकात्मकता आस्था होने से ही जनता ने अंग्रेजी शासनकाल में भी अंधकार में से प्रकाश प्राप्त कर लिया। इंग्लैंड का भारत पर शासन निकृष्टतम उद्देश्यों को लेकर हुआ था किंतु भारतीय जनता ने अपनी चैतन्य आस्था के कारण सामाजिक क्रांति करके अपने को नए वैज्ञानिक युग के अनुकूल ढाल लिया। अंग्रेजों ने उसकी यह कुशाग्रता देखकर उसे भ्रष्ट शिक्षा पद्धति दी, उसे कलंकमय मानसिकता की ओर प्रेरित किया, किंतु भारतीय जनता के सपूत विश्व जीवन के सभी क्षेत्रों में योगदान करने योग्य बन गए।

संघर्ष की प्रेरणा
अंग्रेजी शासन के जाने पर यद्यपि देश विभाजन की घोर विडंबना भारत धरा पर आई और उसके बाद उसे निरंतर दुख पर दुख उठाने पड़े, यहां तक कि  अपने उत्तरी सीमांतों पर विदेशी आक्रमण का झंझावात भी से सहना पड़ा, लेकिन उसका चैतन्य में इतना विश्वास है कि आज भी आगे बढ़ रही है। कुंठा और अवसाद के विष  को नीलकंठ के सामने अपने कंठ में रख लिया है और स्थिर चित्त से चित्तमय पथ की ओर चली ही जा रही है।

इसका तात्पर्य है कि हमारी संस्कृति की मूल धारा चैतन्यमय होकर प्रवाहित होती रही है। उसने जनमानस को अपनी प्रकाश किरणों से ज्वलंत रखा है। दोष उन लोगों का रहा जो धन और सजा की लोलुपता से पथभ्रष्ट हो गए, यानी कि दोष संस्कृति का न हो कर शोषक और शासक का रहा। आज भी यही दोष है। हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं दूषण के विरुद्ध संघर्षरत होने की प्रेरणा दे रही हैं। इस दूषण में पुराने और नए दोनों दोष सम्मिलित हैं। भारत की चैतन्यवृत्ति अर्थात संस्कृति की अग्नि इस दूषण की राख - राख कर देना चाहती है। वह हर क्षण तेज को उद्दीप्त कर रही है, उस तेज को जो पापपंक और रूढ़ियों के कूड़े करकट को जला डालता है और पुष्पमय भावनाओं को तपा-तपाकर कुंदन बना देता है। इसका प्रमाण है कि हमारे समाज में सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष लगातार चलता रहता है।
यह सही है कि हमारे इन संघर्षों में दिशा हीनता भी आ जाती है, लेकिन यह भी तो सही है कि हमारे समाज के धनपति और सत्ताधिकारी  माया की तमिस्त्रा फैलाते रहते हैं। अंधेरे और उजाले की लड़ाई में अंधियारे की अधिकाई से अनेक बार रास्ता सूझना बंद हो जाता है, लेकिन प्रकाश सदा परास्त नहीं रहता। हमारा देश ज्योति, सद,अमृत अथवा चैतन्य से बंधा है, उसके पास वह श्रेष्ठ परंपरा है जिसके राम अविभक्त संपत्ति के सिद्धांत पुरस्कर्त हैं, यानी कि उनकी परंपरा मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण के विरुद्ध होने से आज के युग सत्य में समाहित हो जाती है।
                                                                                                                                              -युगवार्ता


प्रस्तुति: यशवन्त माथुर 
मूल संकलनकर्ता : श्री विजय राज बली माथुर 

14 March 2021

सिर्फ प्यास दिखती है....

चित्र:काजल सर की फ़ेसबुक वॉल से साभार 
हलक 
जब सूखता है 
सिर्फ 
प्यास दिखती है... 
जहाँ से आती हैं 
ठंडी हवाएँ 
वहीं 
एक आस दिखती है... 
फिर वह घर 
दुश्मन का ही क्यों न हो 
अंजुली भर जीवन की 
हर लहर खास दिखती है... 
प्यास, 
प्यास ही होती है 
सूखती देह को तो 
हर बाकी 
श्वास दिखती है..
लेकिन अब, 
आधुनिक भारत के लोगों की 
कमजोर नज़रों से 
सारी दुनिया 
'विश्व गुरु' के मूल्यों का 
ह्रास देखती है।   

-यशवन्त माथुर ©
14032021 

11 March 2021

उपलब्धि...

जीवन के 
अनवरत चलने के क्रम में 
अक्सर 
मील के पत्थर आते जाते हैं 
हम गुजरते जाते हैं 
समय के साथ 
कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं 
कभी शून्य से शिखर पर 
कभी शिखर से शून्य पर 
कई चढ़ाईयों- ढलानों 
कँटीले रास्तों, नदियों-तालाबों 
और पहाड़ों के साथ 
रफ्तार को थामते हुए 
थोड़ा रुकते हुए 
देखते हुए 
हर मौसम के रंग 
प्रकृति के संग 
जुड़ जाती हैं 
अनायास ही 
कुछ ऐसी उपलब्धियाँ भी 
जिनका प्रतिफल 
कुछ न होते हुए भी
आत्मसंतुष्टि तो 
होता ही है।  

-यशवन्त माथुर©
11032021

यह पोस्ट/ ये पंक्तियाँ मेरे जीवन में एक उपलब्धि ही है, क्योंकि इसी के साथ मैंने 1000 मौलिक अभिव्यक्तियों (हालांकि समय-समय पर लिखे कुछेक लेखों को इसमें नहीं जोड़ा है) की संख्या प्राप्त कर ली है। मैं अपने लिखे को 'कविता' की श्रेणी में नहीं रखता, इसलिए इसे 'पंक्तियाँ' ही कहना ज्यादा सही समझता हूँ। अपने पिताजी के प्रोत्साहन से 7 वर्ष की आयु से शुरू होकर, कछुआ चाल से चलते हुए इस संख्या तक पहुँचने में मुझे 30 वर्ष से कुछ अधिक समय लगा। 
बहरहाल लिखने का क्रम अभी जारी रहेगा। 

-यशवन्त 

10 March 2021

दो शब्द ...

दो शब्द... 
सिर्फ दो शब्द 
हम लिखे देखते हैं 
किसी पुस्तक की 
प्रस्तावना के शीर्षक में... 
या साक्षी बनते हैं आग्रह के 
जो किसी मंच संचालक द्वारा 
किया जाता है 
किसी सभा के 
मुख्य अतिथि से ... 
लेकिन क्या 
दो शब्द 
सिर्फ दो शब्द ही होते हैं?
क्या दो शब्दों में 
हम समेट सकते हैं 
भावनाओं का विस्तार 
आदि और अंत?
शायद नहीं...
नहीं... बिल्कुल नहीं 
क्योंकि.. दो शब्द 
सिर्फ दो शब्द मात्र ही नहीं होते 
क्योंकि... इनमें समाई होती है 
समुद्र की अथाह गहराई 
रेगिस्तान की रेत 
दलदली धरती 
सूरज की रोशनी 
पूर्णिमा और मावस की 
अनगिनत उजली-स्याह रातें 
जिनके दो शब्दों में ढलते ही 
आकार लेता है 
एक या दो पृष्ठों का 
अतीत और वर्तमान.. 
जिसके उपसंहार में 
रख दी जाती है 
भावी इतिहास की नींव 
और उसकी 
पहली ईंट। 

-यशवन्त माथुर©
10032021

09 March 2021

.......है तो मुमकिन है

वह चाहे तो होली को दीवाली,
दीवाली को होली बोल दे।

इतिहास की जिल्द बंधी किताब के,
सारे पन्ने खोल दे।

वह चाहे तो भाषा के सारे मानक गिराकर,
खुद को खुद ही के तराजू पर तोल दे।

उसका सपना आधुनिक को प्राचीन बनाकर,
अंगीठियों के दौर में पहुंचाके सब धुंए में उड़ाना है।

वह जोड़ने की बात करता तो है, लेकिन,
टुकड़ों में बांटकर उसे दोस्तों का जहां बनाना है।

उसे नहीं मतलब कि सालों पहले जो बना तो क्यों बना, 
मेहनत की जमा पूंजी कुतर्कों से बेचते जाना है। 
 
और एक हम हैं कि बस दो रंगों में ही उलझ कर,
तय कर बैठे हैं कि उसी के जाल में फंसते ही जाना है।

-यशवन्त माथुर©
09032021

05 March 2021

वर्तमान महामारी के संदर्भ में फाइज़र की अजब-गजब शर्तें: गिरीश मालवीय

वर्तमान महामारी को लेकर इस समय दो धारणाएँ बनी हुई हैं। एक धारणा इसे वास्तविक महामारी मानती है, वहीं दूसरी धारणा इसे सिर्फ एक राजनीतिक अवसरवादिता के रूप में देखती है। बहरहाल अभी हाल ही में फ़ाइज़र ने कुछ देशों के सामने वैक्सीन की आपूर्ति हेतु कुछ अजब-गजब शर्तें रखी हैं, जिनके बारे में गिरीश मालवीय जी ने आज एक फ़ेसबुक पोस्ट लिखी है, जिसे साभार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-

दुनिया की सबसे बड़ी ओर मशहूर फार्मा कम्पनी फाइजर ने अपनी कोरोना वेक्सीन को ब्राजील अर्जेंटीना जैसे लैटिन अमेरिकी देशो को देने के लिए जो शर्तें लगाई हैं उसी से समझ आता है कि कोरोना के पीछे कितने खतरनाक खेल चल रहे हैं। 

लोग चिढ़ते हैं जब कोरोना को मैं एक राजनीतिक महामारी कहता हूं।  दअरसल सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारा नेशनल ओर इंटरनेशनल मीडिया पूरी तरह से कोरोना के पीछे से रचे जा रहे अंतराष्ट्रीय षणयंत्र का हिस्सा बन चुका है, वह इन बड़ी फार्मा कम्पनियों के साथ मिला हुआ है, अगर कही भी गलती से भी उनके खिलाफ कोई खबर आ जाए तो वह पूरी कोशिश करता है उस खबर को दबाने की। 

यह पोस्ट जिस लेख का सहारा लेकर लिखी गयी है वह 23 फरवरी को 'द ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म' द्वारा प्रकाशित किया गया था, आश्चर्य की बात है बेहद प्रतिष्ठित ग्रुप द्वारा प्रकाशित की गयी इस खबर को दबा दिया गया। 

निष्पक्ष खबरें प्रकाशित करने का डंका बजाने वाले बीबीसी ओर NDTV जैसे मीडिया समूह ने भी अगले 9 दिनों तक इस पर कोई बात करना उचित नही समझा।  मजे की बात यह है कि जी न्यूज जैसी संस्था ने यह खबर कल फ्लैश की है वो भी मोदी जी की बड़ाई करते हुए। 

इस लेख में बताया गया है कि फाइजर ने कोरोना वेक्सीन को सप्लाई करने के लिए जो बातचीत शुरू की है उसमें फाइजर ने लैटिन अमेरिकी देशों को वेक्सीन के लिए ब्लैकमेल करते हुए अपने कानून तक बदलने पर मजबूर कर दिया. उन्हें "धमकाया" तक गया है। 

वेक्सीन सप्लाई के बदले कुछ देशों को संप्रभु संपत्ति,जैसे- दूतावास की इमारतों और सैन्य ठिकानों को किसी भी कानूनी कानूनी मामलों की लागत के खिलाफ गारंटी के रूप में रखने के लिए कहा है। 

फाइजर कंपनी ने अर्जेंटीना की सरकार से कहा कि अगर उसे कोरोना की वैक्सीन चाहिए तो वो एक तो ऐसा इंश्‍योरेंस यानी बीमा खरीदे जो वैक्सीन लगाने पर किसी व्यक्ति को हुए नुकसान की स्थिति में कंपनी को बचाए. यानी अगर वैक्‍सीन का कोई साइड इफेक्‍ट होता है, तो मरीज को पैसा कंपनी नहीं देगी, बल्कि बीमा कंपनी देगी।  जब सरकार ने कंपनी की बात मान ली, तो फाइजर ने वैक्सीन के लिए नई शर्त रख दी और कहा कि इंटरनेशनल बैंक में कंपनी के नाम से पैसा रिजर्व करे।  देश की राजधानी में एक मिलिट्री बेस बनाए जिसमें दवा सुरक्षित रखी जाए।  एक दूतावास बनाया जाए जिसमें कंपनी के कर्मचारी रहें ताकि उनपर देश के कानून लागू न हों। 

ब्राजील को कहा गया कि वह अपनी सरकारी संपत्तियां फाइजर कंपनी के पास गारंटी की तरह रखे,ताकि भविष्य में अगर वैक्सीन को लेकर कोई कानूनी विवाद हो तो कंपनी इन संपत्तियों को बेच कर उसके लिए पैसा इकट्ठा कर सके। ब्राजील ने इन शर्तों को मानने से मना कर दिया है। 

फाइजर 100 से अधिक देशों के साथ वैक्सीन की डील कर रहा है।  वह लैटिन अमेरिका और कैरेबियन में नौ देशों के साथ समझौते की आपूर्ति कर रहा है: चिली, कोलंबिया, कोस्टारिका, डोमिनिकन गणराज्य, इक्वाडोर, मैक्सिको, पनामा, पेरू, और उरुग्वे। उन सौदों की शर्तें अज्ञात हैं।

'द ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म' से जुड़े पत्रकारों  ने इस संदर्भ में दो देशों के अधिकारियों से बात की, जिन्होंने बताया कि कैसे फाइजर के साथ बैठकें आशाजनक रूप से शुरू हुईं, लेकिन जल्द ही दुःस्वप्न में बदल गईं। 

इन देशों को अंतराष्ट्रीय बीमा लेने पर भी मजबूर किया गया 2009 -10 के एच1एन1 के प्रकोप के दौरान भी ऐसा ही करने के लिए  कहा गया था बाद में पता लगा था कि एच1 एन1 एक फर्जी महामारी थी। 
 
जिसे इस पोस्ट पर संदेह हो वो लिंक में 'द ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म' की साइट पर प्रकाशित लेख पढ़ सकता है। लिंक निम्नवत हैं-

04 March 2021

वो दिन लौट के आएंगे......

बोल  निराशा के, कभी तो मुस्कुराएंगे।  
जो बीत चुके दिन, कभी तो लौट के आएंगे।  

चलता रहेगा समय का पहिया, 
होगी रात तो दिन भी होगा।  
माना कि मावस है कई दिनों की, 
फिर अपने शवाब पे पूरा चाँद भी होगा। 

आज काँटे हैं, कल इन्हीं में फूल खिल जाएंगे। 
ये कुछ पल की ही बात है, वो दिन लौट के आएंगे।

-यशवन्त माथुर©
04032021
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