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29 December 2015

मैं वही हूँ,मैं वहीं हूँ



~यशवन्त यश©

20 December 2015

मैंने तो नहीं कहा........

मैंने तो नहीं कहा
कि बेचैन हूँ
इस दर पर
सबको 
देखने को ....
न बिछा रखे हैं
लाल कालीन
बैठने को
न टहलने को ....
फिर भी कुछ हैं
जो आ रहे हैं
जा रहे हैं
अपनी मर्ज़ी से
एक नज़र डाल कर
किनारे हो कर
अलविदा के गीत
गा रहे हैं....
अच्छा ही है
मुक्त होना
बे मतलब की
जकड़न से
उलझन से
और इसमें
फंसे रहने को हमेशा
मैंने तो नहीं कहा ।

~यशवन्त यश©

16 December 2015

आधे टिकट के सफर का खत्म होना -गिरिराज किशोर, वरिष्ठ साहित्यकार

रकार ने आधे टिकट की कहानी पर पूर्ण विराम लगा दिया है। बच्चों को अंग्रेजों के जमाने से मिलने वाला आधा टिकट अब रेलवे की टिकट खिड़की पर नहीं मिलेगा। क्या इससे रेलवे की आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद मिलेगी? कितने बच्चे रेलवे की इस सुविधा का लाभ उठाते हैं? अपने देश में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे तो शायद ही रेल से यात्रा करते हों। हो सकता है, बहुत से उन बच्चों ने तो रेल देखी भी न हो, जो आदिवासी हैं या जो बहुत अंदर उन गांवों में रहते हैं, जहां से रेल गुजरती ही नहीं। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले परिवार तो बच्चों को लेकर या स्वयं रेल से यात्रा करते ही नहीं। मध्य वर्ग के लोग भले ही दो-चार साल में ब्याह शादी में सपरिवार चले जाते हों। बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात में तो फिर भी अवकाश के दिनों में सपरिवार यात्रा पर निकलते हैं। हिंदी पट्टी में तो देशाटन की मानसिकता नहीं के बराबर है।

इसलिए मालूम नहीं कि कितना राजस्व इन बच्चों के टिकट निरस्त करके मिलेगा? सरकार कुछ बच्चों के इस अधिकार को क्यों समाप्त करना चाहती है, जिनके माता-पिता अपने बच्चों को देश की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि से अवगत कराने के लिए इन स्थलों पर ले जाते हैं। मैं कई वर्ष पहले मंदाकिनी के किनारे एक केरलवासी से मिला। वह अपने दो बच्चों के साथ वहां बैठा उन्हें दिखा बता रहा था। उसकी गांव में साइकिल बनाने की दुकान थी। मैंने उससे पूछा, आप इतना पैसा खर्च करके इतनी दूर क्यों आए? वह बोला, हर तीन साल में अपने बच्चों को अलग-अलग दिशा में ले जाता हूं, जिससे बच्चे अपने देश के मुख्य स्थलों के बारे में सामान्य ज्ञान अर्जित करें। आज वह घटना शिद्दत से याद आ रही है।

रेलवे इन बच्चों के जीवन की इस एक संभावना को भी क्यों समाप्त करना चाहती है। आजादी के बाद से कितने सांसद और राज्यों में कितने विधायक अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। उन सब को जीवन भर के लिए मुफ्त पास मिले हुए हैं। रेलवे के अवकाश प्राप्त छोटे-बड़े कर्मचारियों को आजीवन पास दिए जाते हैं। क्या बच्चों का महत्व उन अवकाशित सांसदों और विधायकों जितना भी नहीं? अंग्रेज ने सोचा होगा कि देश के लोग घर घुसरू हैं, बाहर निकलने की आदत डालो।

शायद तभी बच्चों के लिए आधे टिकट का प्रावधान किया था। उस समय 12 साल तक के बच्चों का आधा टिकट लगता था। सरकार ने उम्र की इस सीमा को घटाते-घटाते आठ साल पर पहले ही पंहुचा दिया था, अब इसे पूरी तरह बंद किया जा रहा है। अंग्रेज सरकार ने इसे शुरू किया था और यह सरकार, जो अपनी है और विकासोन्मुखी है, उसने बच्चों की यात्रा के अवसर को समाप्त कर दिया। विकास क्या भौतिक क्षेत्र का ही होता है? क्या इस आर्थिक विकास का अर्थ यह है कि बच्चों का आंतरिक और मानसिक विकास बंद हो जाए? बुलेट ट्रेन के युग की नई सोच शायद यही है।

 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

साभार-'हिंदुस्तान'-16/12/2015

12 December 2015

कहाँ तलाशूँ.....

सोच रहा हूँ
कहाँ तलाशूँ
गुमशुदा न्याय को
जो गुलाम हो चला है
अमीरों की जेबों का .....
न्याय की मूर्ति के हाथों में
अब बराबर तौलने वाला
सिर्फ तराजू ही नहीं होता
उसके हाथों में
होती हैं
नोटों की गड्डियाँ .....
इस मूर्ति की
तीसरी आँख
अब उसी तरफ खुलती है
जिस तरफ के पलड़े पर
वजन होता है ज़्यादा .......
और हल्का पलड़ा
अपनी बेगुनाही का सुबूत
देते देते
डूब जाता है
आंसुओं के सैलाब में।

~यशवन्त यश©

05 December 2015

पत्थर नहीं समझ पाते जज़्बातों को.......

आना जाना तो लगा ही रहता है
मिलना बिछड़ना तो लगा ही रहता है
कुछ लोग आग लगाते हैं
कुछ बुझाते भी हैं
अपनी तरह से जीना
सिखाते भी हैं
समझने वाले समझते हैं
बिन कहे ही बातों को
पिघल करके भी पत्थर
नहीं समझ पाते जज़्बातों को।

~यशवन्त यश©

03 December 2015

कुछ लोग 34

मतलब
निकल जाने के बाद
अपने मन की
हो जाने के बाद
दोस्त के मुखौटे में छुपे
कुछ दगाबाज लोग
दिखाने लगते हैं
अपने असली रंग ।
उन्हें नहीं मतलब होता
उनके पिछले दौर
और
आज की कठिनाइयों से
उन्हें
सिर्फ मतलब होता है
टांग खींचने से ।
ऐसे लोग
जानते हैं सिर्फ एक ही भाषा
पद,पैसे,
पहुँच और परिचय की
लेकिन नहीं जानते
तो सिर्फ यह
कि आने वाला कल
उनकी ही तरह पलटी मार कर
उनके साथ भी कर सकता है वही
जो वह कर रहे हैं आज
औरों के साथ।

~यशवन्त यश©

02 December 2015

तस्वीरें

रंग बिरंगी
उजली काली
तस्वीरें
इंसानी चेहरों की तरह
होती हैं
जिनके सामने कुछ
और पीछे
कुछ और कहानी होती है।
कुछ
झूठ की बुनियाद पर खड़ी
और कुछ
वास्तविकता की तरह
अड़ी होती हैं।
रंग बिरंगी
उजली काली
तस्वीरें
किसी दीवार पर
सिर्फ टंगी ही नहीं होतीं
इनकी
आड़ी तिरछी रेखाओं में
कहीं फांसी पर झूल रहा होता है
अर्ध सत्य।

~यशवन्त यश©

01 December 2015

सब

सबको हक है
सबके बारे में
धारणा बनाने का ......
सबको हक है
अपने हिसाब से
चलने का .........
सबकी मंज़िलें
अलग अलग होती हैं
कुछ थोड़ी पास
कुछ बहुत दूर होती हैं .....
सब,
जो सबकी परवाह करते हैं
सबसे अलग नहीं होते हैं
लेकिन सब,
जो सब से अलग होते हैं
धारा के विपरीत चलते हैं
और संघर्षों से
सफल होते हैं।

~यशवन्त यश©
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