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27 April 2013

भारत रत्न-चिराग जुयाल --क्या मेरी मांग गलत है ?

कल 26 अप्रैल  के 'हिंदुस्तान' मे यह समाचार पढ़ा-


(इस इमेज पर क्लिक कर के स्पष्ट पढ़ सकते हैं )

 ग्राफिक एरा यूनिवर्सिटी देहरादून मे इंजीनियरिंग के छात्र  चिराग जुयाल  के आविष्कार के बारे मे पढ़ कर बस यही मन मे आया की यही है सच्चा भारत रत्न। अगर इस समाचार को आप ध्यान से पढ़ेंगे तो बस यही दुआ निकलेगी कि हमारी सरकार चिराग को हर संभव मदद और प्रोत्साहन दे क्योंकि यदि इनको अपनी परियोजना मे सफलता मिलती है तो यह तेज़ी से फ़ेल रहे आतंकवाद को नियंत्रित करने,सम्पूर्ण मानवता और विश्व शांति की दिशा में  एक क्रांतिकारी खोज साबित होगी।

हम सचिन तेंदुलकर और अन्य लोगों को भारत रत्न देने की मांग कर सकते हैं तो क्यों न चिराग की सफलता के लिए दुआ करें। कम से कम मेरी नज़र में तो चिराग की अहमियत बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है।

तो अब आप ही बताइये चिराग को भारत रत्न देने की मेरी मांग क्या गलत है ? 


~यशवन्त माथुर

26 April 2013

किस की तरह बनूँ ?

एक फूल होता है 
जो सुबह खिल कर
मुस्कुराता  है
शाम होते होते
मुरझाता है
और गहरी रात के
आते आते
बिखर जाता है
मिल जाता है
यादों की धूल में ।

और एक काँटा होता है 
जो अपने बीच में
पनाह देता है
खूबसूरत फूल को
जो अड़ा रहता है
अपनी ही ज़िद्द पर
जिसके भीतर
और बाहर 
होती है
दर्द की तीखी चुभन
जो कभी हाथों को
चुभता है
और कभी दिलों को
संभाले रखता है खुद को
सुबह, दोपहर
और रात
स्थायित्व के साथ। 

सोच रहा हूँ 
किस की तरह बनूँ ?
फूल बनूँ ?
या काँटा ?
मेरी समझ में
नहीं आता। 

~यशवन्त माथुर©

25 April 2013

बदलाव नहीं होगा क्योंकि.......

सिर्फ नारे हैं यहाँ
कोई ज़िंदाबाद है
कोई मुर्दाबाद है
कहीं जुलूस हैं
हाथों में तख्तियाँ हैं
मोमबत्तियाँ हैं

सिर्फ आक्रोश है यहाँ
विरोध है
कुम्हार भी है
और उसकी चाक भी है
मगर नदारद है
बदलाव की चिकनी मिट्टी
क्योंकि
उसमे मिली हुई है रेत
टांग खिंचाई की।   


~यशवन्त माथुर©

24 April 2013

मैं कछुआ भी तो नहीं

भागते समय को
पकड़ने की
जद्दोजहद में
अक्सर याद करता हूँ
कछुआ
और खरगोश की कहानी 
और खुद पर
अफसोस 
कि मैं
कछुआ भी तो नहीं।

~यशवन्त माथुर©

22 April 2013

महंगाई के इस दौर में

आसमान को छूती
महंगाई के इस दौर में
सिर्फ इंसान ही सस्ता है
जो ज़मीन पर था
और अब भी
ज़मीन पर ही खड़ा है

वह इंसान
कभी आदमी के रूप में
कभी औरत के रूप में
आसमान की छत
और ज़मीन के फैले आँगन में
कभी लेटता है
कभी बैठता है

उस पर होने लगा  है
असर
पड़ोसी आवारा जानवरों की
संगत का
जो दुनियावी रिश्तों
और सोच से मुक्त हो कर
भोग के समुद्र में लगाते हैं
कितनी  ही डुबकियाँ
या  लगाते  हैं लोट
भूख की खुरदरी
और चुभती रेत पर

यह दौर है
बदलाव का
बदलती तकनीक का
जिसके सामने की सड़क
ले जाती है
उसी पिछले चौराहे पर
जहां हर रोज़
मिट्टी से भी कम दाम पर
आदम और हव्वा
बिकते हैं 
तुल कर 
महंगाई के तराजू पर ।

~यशवन्त माथुर©

20 April 2013

कहना हमारी शान है ,कुछ करना अपमान ...........


कहना हमारी शान है ,कुछ करना अपमान
हाथ पे हाथ धर बैठना और बघारना ज्ञान

और बघारना ज्ञान, दिखाना झूठ मूठ की शान 
खुद को सुधरना है नहीं,करना कानून की मांग

अब तो कानून बन गया,फिर भी हुआ अपमान
मोम पिघलेगा फिर मगर,पत्थर दिल इंसान ?
~यशवन्त माथुर©

19 April 2013

अब वो दौर नहीं ......



अब वो दौर नहीं 
जब लिखी जाती थीं चिट्ठियाँ 
पहुँच कर मंज़िल पर 
पढ़ ली जाती थीं चिट्ठियाँ 

वो भी क्या पोस्टकार्ड 
क्या अंतर्देशीय हुआ करते थे 
टेलीग्राम का नाम सुन 
सब बेचैन हुआ करते थे

लगते थे मजमे 
पढे-लिखों के ठौर पर 
अनपढ़ जहां अपनों की 
बातें सुना करते थे

तब खून की स्याही में डूब कर 
दिल मिलाती थीं चिट्ठियाँ 
अब एक पल में पहुँच कर 
तिलमिलाती हैं चिट्ठियाँ। 

~यशवन्त माथुर© 

17 April 2013

काँटों से भरे बगीचों में


फोटो साभार-गूगल इमेज सर्च 
काँटों से भरे बगीचों में
खोजता फिर रहा गुलाबों को 
रौनक यहाँ पे कहीं नहीं
बस ख्वाब लुभाते ख्वाबों को
 
कागज़ के पन्ने हैं फैले
कलम ढूंढती दवातों को
अब वो दौर है बीत रहा
कान सुनते खटरागों को

हर तरफ बस शोर ही शोर
दिन, रात और ठंडी भोर
देखूँ चाहे जिस भी ओर
कहीं न पाता पूरा ठौर 

वेश बदलती मशीनों में
कैसे पहचानूँ इन्सानों को
काँटों से भरे बगीचों में
खोजता फिर रहा गुलाबों को  ।
 

~यशवन्त माथुर©

14 April 2013

न यह गजल है न कविता है

न यह गजल है
न कविता है
इस में न छंद
न रस ही मिलता है

यह तो बस जज़्बात है
और कुछ मन की बात है
जो व्याकरण के नियमों में
न बंधता है न घुलता है

इसे ऐसा ही रहने दो
ये जैसा है बस वैसा है
बिखरा बिखरा सा कुछ
इन 'पंक्तियों' के रूप में

जो सोचता है मन
वो ही कहता है
न यह गजल है
न कविता है


~यशवन्त माथुर©

13 April 2013

बेटों की चाह में कहीं खो रही हैं बेटियाँ.........

प्रस्तुत हैं कन्या भ्रूण हत्या पर कुछ पंक्तियाँ- 


बेटों की चाह में कहीं खो रही हैं बेटियाँ।
बदलाव के इस दौर में भी मर रही हैं बेटियाँ॥  

खुदा की नेमतों का क्यूँ कत्ल करती रूढ़ियाँ। 
भले ही चढ़ रहे हों आज तरक्कियों की सीढ़ियाँ॥ 

गर्भ के भीतर है क्या क्यूँ जानने की लालसा। 
क्यों जनक भी जननी को ही मारने की ठानता॥ 

*राजा  की चाह में जब खो चुकेंगी रानियाँ। 
इंसान भी बन जाएगा तब बीत चुकी कहानियाँ॥ 

बेटों की चाह में कहीं खो रही हैं बेटियाँ ।
दे रही हैं ठौर और हाथ थाम रहीं बेटियाँ ॥  

~यशवन्त माथुर©

*[राजा बेटा ,रानी बेटी के अर्थ में ] 

12 April 2013

मिटना ही होगा एक दिन

मिटना ही होगा एक दिन, सरहदों की लकीरों को। 
मिटना ही होगा एक दिन,हवाओं की मजबूरी को॥

यूं  तो घट रही हैं,ये दूरियाँ मुल्को की। 
फिर भी बढ़ रही हैं,अब दूरियाँ दिलों की॥

एक शहर बनेगी दुनिया,हर दिल की दिल वालों की। 
एक जुबां बोलेगी दुनिया,बस अपने ही ख्यालों की॥ 

रुख पलटना ही होगा अब नक्शों की तसवीरों को। 
एक दिन मिटना ही होगा,सरहदों की लकीरों को॥ 

~यशवन्त माथुर©

11 April 2013

मंगलमय हो संवत सत्तर

बदलता वक़्त
बदलता जीवन
ओढ़ी धरती ने
नयी चद्दर। 
हम को
तुम को
आप सबों को
मंगलमय हो
संवत सत्तर । 
(भारतीय नव संवत 2070 आप सभी को शुभ और मंगलमय हो)

~यशवन्त माथुर©

10 April 2013

छपास की इस बीमारी में.....

बिकने के लिए सजा हूँ,उस दुकान की अलमारी में। 
कभी भी अटता नहीं हूँ,खरीददार की दिहाड़ी में॥

कोई पूछता ही नहीं कभी,कि मेरा नाम क्या है। 
उसे यह अहसास है कि, इस सज़ा का अंजाम क्या है॥  

सोता हूँ रोज़ ही मैं, सफ़ेद चादर के भीतर।  
लोग जुट जाते हैं मेरे, जनाजे की तैयारी मे॥ 

बिकने के लिए सजा हूँ,उस दुकान की अलमारी में। 
कुछ नहीं पर नाम तो है,छपास की इस बीमारी में॥ 

~यशवन्त माथुर©

09 April 2013

खुद को खुदा समझ कर, जो......

खुद को खुदा समझ कर, जो आसमान में उड़ते हैं। 
जिस तेज़ी से उठते  हैं, उस तेज़ी से ही गिरते हैं। 

हम तो ज़मीं पर थे, हैं और रहेंगे।  
जुबानी सरहदों के भीतर, कुछ यूं ही कहेंगे ।

यूं तो रोज़ ही हम, गरज बादलों की सुनते हैं।
जो ऐसे ही गरजते हैं,वो शायद ही बरसते हैं।

खुद को खुदा समझ कर, जो आसमान में उड़ते हैं। 
उलझनों में फँसते हैं, कभी बाहर न निकलते हैं।


~यशवन्त माथुर©

08 April 2013

इस दुनिया में कभी कभी

इस दुनिया में कभी कभी
कुछ उल्टा पुल्टा होता है
कोई जागता सारी रात भर
कोई दिन भर सोता है

किसी किसी की जेब से पैसा
बाहर निकल बिखरता है
किसी किसी के हाथ से पैसा
कोई तीसरा छीन लेता है

एक तरफ कंगाली
इंसान आदम खोर हो जाता है
एक तरफ कोई खाते खाते
यूं ही बोर हो जाता है
 
किस्मत को कोई दोष न देना
सब फेर समझ का होता है
खुश रहता फुटपाथों पर
कोई महलों में भी रोता है

इस दुनिया में कभी कभी
कुछ उल्टा पुल्टा होता है
गूंगा यूं तो 'यशवन्त माथुर'
अपने ब्लॉग पर बोलता है।

 ~यशवन्त माथुर©

~

07 April 2013

यशवन्त....


यशवन्त करे न चाकरी,यशवन्त करे न काम। 
पाठक सारे भाग चलें,पढ़ कर इसी का नाम। । 

पढ़ कर इसी का नाम, हर सुबह से शाम। 
बे सिर पैर बक बक करे,बुद्धि इसकी जाम। । 

बुद्धि इसकी जाम,बुद्धिजीवी धोखा खाता ।
चश्मुद्दीन उपनाम,यह तो मन की कहता जाता। ।

~यशवन्त माथुर©

06 April 2013

भले मानसों की महफिल में.........

भले मानसों की महफिल में, क़व्वालियाँ हैं,तालियाँ हैं।
भीतर के काले दिल में, फितरती कहानियाँ हैं।। 

हम सोचते हैं अक्सर,गर हम भी वही होते। 
तो जाम बन कर गिलास से, उफन कर गिर रहे होते ।।  

झीने पर्दों के भीतर  की, रोशन रंगीनियों में। 
ज़ुदा होती खुद ही से, खुद ही की परछाईयाँ हैं।।

भले मानसों की महफिल में, क़व्वालियाँ हैं,तालियाँ हैं।
उनकी काबिलियत में शामिल,नाकाबिल मेहरबानियाँ हैं। । 

~यशवन्त माथुर©

05 April 2013

क्षणिका

जिद्दी मन
कभी कभी
खुद की भी नहीं सुनता
और वही करता है 
जो उसे
खुद को
अच्छा लगता है।

~यशवन्त माथुर©

04 April 2013

उस खामोशी में.....

आधी रात की
खामोशी में
गूँजते
गीतों की तरह
मंद और ठंडी हवा में
हिलते पत्तों की तरह
खिलने को बेचैन कलियों
और फूलों की
खुशबू की तरह 
झूमना चाहता हूँ मैं भी
मन की सरगम के साथ
उस वीरान अंधेरे में
जहां
परछाई भी मांगती है
रोशन उजालों को
रिश्वत में।  

~यशवन्त माथुर©

03 April 2013

ज़रूरी तो नहीं

हो हर समय मुस्कुराहट, ज़रूरी तो नहीं
हो हर समय गम की आहट, ज़रूरी तो नहीं।
ज़रूरी तो नहीं,हर समय मेरा यहाँ होना
कभी घनी रात,कभी सवेरा होना। 
ज़रूरी तो कुछ भी नहीं, फिर भी ज़रूरत उसी की है
जिसके न होने में बेवफाई, मजबूरी तो नहीं। 
हम तो ऐसे ही हैं 'यशवन्त', हमें ऐसे ही रहने दो
मतलब की हर बात से,मुलाक़ात ज़रूरी तो नहीं।

~यशवन्त माथुर©

02 April 2013

क्षणिका

बाहर की दुनिया में
तलाशता हुआ
उन बिखरे टुकड़ों को
उनकी तीखी
नोंकों की चुभन
अब महसूस कर सकता हूँ
मैं
खुद के ही भीतर।   
~यशवन्त माथुर©

01 April 2013

मूर्ख ही तो हैं.....

 (2 वर्ष पूर्व 2011 मे लिखी गयी यह पंक्तियाँ इस वर्ष पुनः प्रकाशित)

फुटपाथों पर जो रहगुज़र किया करते हैं 
सड़कों पर जो घिसट घिसट कर चला करते हैं 
हाथ फैलाकर जो मांगते हैं दो कौर जिंदगी के 
सूखी छातियों से चिपट कर जो दूध पीया करते हैं 
ईंट ईंट जोड़कर जो बनाते हैं महलों को 
पत्थर घिस घिस कर खुद को घिसा करते हैं 
तन ढकने को जिनको चीथड़े भी नसीब नहीं 
कूड़े के ढेरों में जो खुद को ढूँढा करते हैं 
वो क्या जानें क्या दीन क्या ईमान होता है 
उनकी नज़रों में तो भगवान भी बेईमान होता है 
ये जलवे हैं जिंदगी के ,जलजले कहीं तो हैं 
जो इनमे भी जीते हैं, मूर्ख ही तो हैं.
~यशवन्त माथुर©
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