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27 December 2010

बदलता ज़माना

वैसे तो यह कविता इस ब्लॉग पर पहले भी प्रकाशित कर चुका हूँ;एक बार फिर से आपकी सेवा में प्रस्तुत है-

फ़िल्मी डांस डिस्को क्लबों में नाच गाना है,
शराब और कवाब का रिश्ता पुराना है
इसी रिश्ते को और मज़बूत बनाना है
भारतीय नहीं हमें तो इंडियन कहलाना है॥

रोटी साग सब्जी दाल चावल नहीं भाता हमें
पूरी और परांठे का गुज़रा ज़माना है
चाउमीन चिकन डोसा इडली और पेटीज बर्गर
यही नए ज़माने का हाईटेक खाना है॥

शास्त्रीय राग छोड़ रॉक पॉप गाइए
कान फोडू संगीत पर ठुमका लगाना है
आशा,रफ़ी,लता,मुकेश,किशोर भूल जाइये
सुरैय्या के सुरों का न पता न ठिकाना है॥

नमस्कार,आदाब,सतश्री अकाल अब कहना नहीं
हेल्लो,हाय गुड बाय कहता ज़माना है
सीता राम,राधा कृष्ण ,प्रभु नाम लेना नहीं
घर-घर में अमिताभ-सचिन का पोस्टर सजाना है॥

दुखी हैं दूसरे के सुख से ,अपने सुख से सुखी न कोई
दौलत के अंधों ने सच्चाई को नहीं जाना है
करेंगे करम खोटे ,रोना पछताना फिर
'यशवन्त यश '  कहता फिरे ज़ालिम ज़माना है॥


25 December 2010

सेंटा क्लॉज़!

सेंटा क्लॉज़!
मुझे यकीन है
तुम आओगे
खुशियों से भरी
अपनी झोली ले कर

मैं जानता हूँ
तुम मेरे पास भी आओगे
हाथ मिलाओगे
मुस्कुराओगे
अपनी बर्फ सी  सफ़ेद दाढी पर
हाथ फिराकर
मुझे भी पकड़ा दोगे
थोड़ी सी खुशियाँ
मगर आज मैं तुम से कहना चाहता हूँ
कुछ
जो सोच कर रखा है मन में
बस इसे प्रार्थना कहो या जो कहो
पर अलविदा कहने से पहले
एक नज़र डाल लेना
तुम्हारी राह में पड़ने वाले
अनगिनत चौराहों पर
जिनके किनारे
रहते हैं वो नन्हे से नंगे मासूम
जो ठिठुर रहे हैं
माँ के आँचल में छुप कर
जाते जाते
एक मुस्कराहट उन्हें दे जाना
दे देना वो ख़ुशी वो हँसी
वो जिसके हकदार हैं
मुझे कर्ज़दार समझ लेना अपना
अगर एक काम और करो तो
पेट में मार दी जाने वाली
सब नारियों को अगर जिला सको तो

सेंटा क्लोज़ !
तुम अगर ये कर सके तो
यही ख़ुशी होगी मेरी
मैं तुम्हारी झोली में बार बार  झाँक रहा हूँ
आज बस यही उपहार मांग रहा हूँ.


 (सभी पाठकों और शुभचिंतकों को क्रिसमस की शुभ कामनाएं.) 

19 December 2010

तस्वीरें

कुछ जानी सी
पहचानी सी
कुछ रंगीन
कुछ श्वेत श्याम
कुछ दीवारों पर
अखबारों पर
बोलती सी
कुछ शांत सी
ये तस्वीरें
अगर न होती तो?

शायद कुछ अधूरे से होते हम
शायद न होती कल्पना
न कविता न कहानी होती
न स्वप्न होते
न कुछ कहते
न सुनते
पता नहीं
क्या होता कैसा होता
इन तस्वीरों के बिना

है सौभाग्य!
इन तस्वीरों के साथ
हम जीते हैं
महसूस करते हैं
भावों को
आभावों को
किसी के गम को
किसी की ख़ुशी को

ये तस्वीरें !

ये तस्वीरें!!

किसी की तकदीर बन जाती हैं
रंक को राजा
राजा को रंक बना देती हैं
ये तस्वीरें
मुर्दों को भी जिला देती हैं
पत्थरों को पिघला देती हैं
कभी सिहरा देती हैं
कभी जमा देती हैं

अपनी असीम ऊर्जा से!

ऊष्मा से!

शीतलता से!

17 December 2010

आवाज़

[फोटो साभार:गूगल इमेज सर्च ]
आधी रात के सन्नाटे में 
घड़ी की टिकटिक और 
सुबह सुबह                                                  
गूंजती मुर्गे की बांग 
आसमां से बाते करती 
चिड़ियों की उड़ान 
कानों से लगती 
सर्द हवा की ठिठुरन 
कंपन करता शरीर और 
दाँतों का किटकिटाना
बगल की लाइन से गुज़रती
रेलों का आना जाना 
सर के ऊपर से जाते
जहाज़ को एकटक निहारना
तिराहों चौराहों पर 
धूंआँ फेकते वाहनों की चिल्लपों
और उनमे  बजता 
एफ एम का सुरीला गाना
कहीं टीवी पर सास बहू सीरियल  
कहीं के बी सी 
कहीं एक्सक्लूसिव न्यूज़ का आना
सड़क पर लगती झाड़ू की सर सर 
किसी का चीखना
किसी का चिल्लाना 
गली के कुत्तों का देखते ही गुर्राना
किसी नन्हे से बच्चे की 
मोहक सी मुस्कान 
और अचानक से उसका खिलखिलाना
पार्क में बने मंदिर से आती 
 घंटों की आवाज़ 
 पीछे की मस्जिद से  
गूंजती  अजान 
सबका अपना अपना बखान 
आपस में बतियाते जाते 
विद्यार्थी
हाथों में  हाथ डाले युगल 
छिड़ी है सबकी तान 
कुछ मीठी 
कुछ तीखी
कुछ मन को भाने वाली 
कुछ दिल को जलाने वाली 

आवाज़ !!!!!

बहुत अजीब होती है :)

15 December 2010

परछाई

(Photo Curtsy:Google Image Search)


जब कभी बोझिल सा
महसूस करता हूँ खुद को
देखता हूँ ज़मीं पर
पड़ने वाली परछाई को
दो कदम चलता हूँ
कुछ आगे
कुछ पीछे
ये परछाई
मेरे साथ ही रहती है
मैं बातें करता हूँ
अपनी ही परछाई से
जो मन में आता है
कह देता हूँ  
कभी कुछ अच्छा
कभी कुछ बुरा
जीवन की ऊंची नीची
राहों पर
सच्चे दोस्त की तरह
ये परछाई 
मेरे साथ रहती है
हर सुख में
हर दुःख में
 उन अपनों से बेहतर है
जो साथ छोड़ देते हैं
उगल देते हैं
एक दूसरे के दबे छुपे राज़
ये परछाई
सबसे अच्छी
साथी है  
सबके साथ देती है. 
जीवन के अंत तक

14 December 2010

वो

वो जिनके नाम कर रखी हैं
हमने अपनी साँसें
आज रूठ कर चले गए हैं
न जाने कहाँ
आवाज़
यूँ तो हम उनको
बहुत देर से दे रहे हैं
समझ कर बेवफा वो
रो रहे हैं
है मालूम उन्हें भी  कि
असल मोहब्बत तो वही हैं
फिर भी चाहते हैं
इज़हार हम ही करें
बेचैन  दिल है
और शायद दिमाग भी है
शायद हम ही अब अपनी
वफ़ा खो रहे हैं

12 December 2010

वंशिका की कुछ ड्राइंग्स-कृपया अपना आशीर्वाद दीजिये

लखनऊ में रहने वाली नन्ही सी वंशिका माथुर  मेरी चचेरी बहन हैं जो अभी कक्षा-4 में पढ़ती हैं.पढ़ाई के अलावा पेंटिंग इनका शौक है और खेलकूद में इन्हें सिर्फ सांप-सीढी खेलना पसंद है.मेरा तो मन था कि इनकी फोटो भी लगाता लेकिन अभी उपलब्ध नहीं है.
आप भी देखिये इनकी कुछ ड्राइंग्स और अपना आशीर्वाद भी दीजिये.

(हैप्पी क्रिसमस )

(कितनी सुन्दर है ये धरती )

(ये सब भगवान ने बनाया  है )

(इन्द्रधनुष अम्बर में छाया,बच्चों के मन को भाया )

(यूनिकॉर्न)

(तितली बनकर उड़ उड़ जाऊं )

  Children are my weakness!

10 December 2010

डूबता सूरज















 (1)

अक्सर जब देखता हूँ
डूबते हुए सूरज को
सोचता हूँ
काश
ये न डूबता
ये यूँ ही रहता
धरती के इसी तरफ
मेरी नज़रों के सामने
काश कि 
रात का घना अँधेरा न होता
काश कि वक़्त ठहरा होता
मगर नहीं
सूरज को डूबना ही है
कहीं और प्रकाश देना ही है
ये चक्र चलना ही है

(2)

ये डूबता हुआ सूरज
अँधेरे की निशानी
छोड़ देता है
एक मौका देता है
कुछ सोचने का
कुछ समझने का
ये विश्राम नहीं 
चलना ही है
विचारों का घुमड़ना ही है

(3)

ये डूबता सूरज
बादलों की ओट में
लुक छिपकर
एहसास कराता है
कुछ पाने का
कुछ खोने का

(4)

ये डूबता सूरज
बिछुड़ने का दर्द देता है
लोग देखते हैं
और खुश होते हैं
नज़रों से ओझल होते
डूबते सूरज को देख कर
और फिर सलाम करते हैं
अगली सुबह
उगने वाले नए
सूरज को देख कर

न जाने मुझे क्यों ऐसा लगता है
डूबता हुआ सूरज बहुत अच्छा लगता है

08 December 2010

फिर न वापस आऊंगा.

जी लेने दो
दो पल सुकून के
फिर मैं चला जाऊँगा
तुम ताकोगे राह मेरी
फिर न वापिस आऊंगा

मैं भटकुंगा
तंग गलियों में
दुनिया के शोर शराबे में
मैं चीखूंगा
चिल्लाऊंगा
पर कहीं नज़र न आऊंगा

इस कोलाहल से
गुज़र  कर
पूर्व सुनिश्चित सा
ठिठक कर
थाम लूँगा तन्हाई का हाथ
फिर आगे बढ़ता जाऊँगा

बस कुछ ही क्षण
मैं पास  तुम्हारे
दो पल का सुख लेने दो
अंतहीन सफ़र की है शुरुआत
हाथ थाम
मुझे चूम लेने  दो

ताजी हवा के
इस झोंके में
देखो अब मिल जाऊँगा
तुम ताकोगे राह मेरी
फिर न वापस  आऊंगा.

06 December 2010

विविधता में एकता

दिन भर
घर के बाहर की सड़क पर
खूब कोलाहल रहता है
और सांझ ढलते
सड़क के दोनों किनारों पर
लग जाता है मेला
सज जाती हैं दुकानें
चाट के ठेलों की
और कहीं
पटरी पर
पुराने गरम और सूती कपड़ों
की दुकानें
५० रुपये की शर्ट खरीदने को
जुटी हुई भीड़
कहीं कारों से उतरती हुईं
मेम
जो उस पार खड़े ठेले से
खरीद रही हैं
ताज़ी हरी सब्जियां
और उनके साथ वो छोटे बच्चे
अपनी मॉम से 
मचल रहे हैं
बैलून खरीदने  को
और मेरे  बगल में रहने  वाला
नन्हा छोटू
झगड़ रहा है
उस गुब्बारे के लिए
अपने बाबा के साथ 

मैं महसूस करता हूँ
विविधता में एकता को
अँधेरे के गहराने के साथ
सड़क का ये कोलाहल
शांत होने पर
घरों पर 
तेज आवाज़ में चिल्लाते
टीवी के थमने पर  
आखिर सब सो ही तो जाते हैं
कुछ मखमली गद्दों में
और कुछ
आसमां की छत के  नीचे
एक नयी सुबह की आस बांधे

सोना और जगना-
इसमें कोई भेद नहीं है
अमीर गरीब का
जाति औ धर्म का

बस तरीके अलग हैं
सोने और जागने के
कुछ सोते हुए जागते हैं
और कुछ
जागते हुए सोते हैं

आखिर कहीं तो है एकता

विविधता में एकता ! 

04 December 2010

ज़िन्दगी

हंसाती कम, रूलाती ज्यादा है ज़िन्दगी
टूटे कांच के ढेर पर, ठौर सजाती है ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हसीं किताब है, जिसके हर हर्फ़ में शिकवे हैं
पल भर में अर्श को,सिफर बना देती  है जिंदगी

क्या कहूँ कि इतना नादाँ भी नहीं हूँ मैं
समझा यही फलसफा कि बेवफा है ज़िन्दगी.





(मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

02 December 2010

फरीदा

फरीदा !
हाँ यही नाम है उसका
मैली सी फ्रॉक पहने
और एक हल्का सा स्वेटर
डाले
वो आती है रोज़ सवेरे
मेरे घर पर
घंटी बजा कर
हम सब को जगाती है
और सारा कूड़ा लेकर
मुस्कुराते हुए
डाल देती है
अपने ठेले पर।

मैं
देखता रह जाता हूँ
कभी उसको
और कभी
सामने की सड़क पर
आते जाते उसके हम उम्र
बच्चों को
जो बन ठन कर
चलते  जाते हैं
विद्या के मंदिर की ओर।

वो भी
एक नज़र डालती है उन पर
चली जाती है
अगले घर पर दस्तक देने।

रोज़ की तरह
हर सुबह सवेरे
छोड़  जाती है
एक प्रश्न चिह्न
समाज के
मस्तक पर।

-यशवन्त माथुर ©




01 December 2010

सिगरेट! अगर तू न होती

(1)
(चित्र साभार:गूगल इमेज सर्च)

सिगरेट! अगर तू न होती
तो बच जाता मैं भी
बगल वाले नेता जी के
मुहं से निकलने वाले
अजीब से
धुंए से
जो मुश्किल कर देता है
जाड़े की गुनगुनी धूप में
दो पल का मेरा बैठना

(२)

सिगरेट! अगर तू न होती
तो कितने ही
कैंसर न पनपते
झोपड़ियों और महलों में
रहने वाले
न रोते,न कलपते

पर तू है!
और तेरा आस्तित्व भी है
कहीं दो कहीं पचास और सौ रुपये में
तू छीन लेती है ईमान
नए किशोरों का
जो भटक जाते हैं
तेरे छलावे में

काश! के कुछ होठों पे
नयी मुस्कान होती
सिगरेट! अगर तू न होती
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