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28 July 2012

सोच रहा हूँ

अभी अभी फेसबुक पर यह चित्र देखा ;इसे देख कर जो मेरे मन ने कहा ,वह प्रस्तुत है- 

साभार : फेसबुक 

















मन की कलम में
बादलों की स्याही भर कर
सोच रहा हूँ
कुछ लिख दूँ
आसमां के पन्ने पर 

कुछ ऐसा
जो उड़ कर मिट न पाए
कुछ ऐसा जो
हर पल नज़र आए
कुछ ऐसा कि
जिसे पढ़ कर
कोई हँसे तो
कोई रोए
जी भर कर

सोच रहा हूँ
कुछ लिख दूँ
आसमां के पन्ने पर 

©यशवन्त माथुर©

25 July 2012

खुली किताब

समझता हूँ खुद को
एक खुली किताब
जिसका हर पन्ना
रंगा है
आड़ी तिरछी 
स्याह सफ़ेद
लकीरों से
और
बीच बीच में उभरते 
अनाम सा चेहरा बनाते
कुछ छींटे
कुछ धब्बे
खट्टी मीठी
यादों को साथ लिये
घूर रहे हैं
अगले
खाली पन्नों को।


©यशवन्त माथुर©

23 July 2012

वादी हूँ

आज कल वाद और वादी होने  का बड़ा चलन है ,लोग सच को स्वीकार करना नहीं चाहते,ज़मीन से जुड़ी बातों को समझना नहीं चाहते। प्रस्तुत पंक्तियाँ एक प्रवासी फेसबुकिया मार्क्सवादी की सोच  से प्रेरित हैं और इन शब्दों मे उन्हीं की सोच को दर्शाने का प्रयास किया है; फिर भी पाठकों से अनुरोध है कि इसे सिर्फ एक रचना की तरह से पढ़ें और इसके अर्थों में न जाएँ। 


है सोच संकुचित पर निस्संकोच प्रगतिवादी हूँ
शोषकों का हितैषी ,सदोष जनवादी हूँ 
वादी हूँ, फरियादी हूँ, लेनिन-मार्क्सवादी हूँ
हूँ एक लकीर का फकीर ,उन्मादी- रूढ़ीवादी हूँ
चाट हूँ कट्टरता की,घनघोर जातिवादी हूँ
जेपी नहीं एपी हूँ ,असली विघटनवादी हूँ
राम राज को गाली देता,फर्जी गांधीवादी हूँ
दूर देश से देता लेक्चर,सच्चा बकवादी हूँ
मानो या न मानो मुझ को,कागजी राष्ट्रवादी हूँ
सिद्धांतों की ऐसी तैसी ,लेकिन मार्क्सवादी हूँ

©यशवन्त माथुर©

19 July 2012

क्षणिका ,,

बादलों के पर्दे में
लुक छिप कर
डूबता सूरज
लग रहा है
जैसे कह रहा हो
अपने मन की बात
कि अंत
सिर्फ यही नहीं है।


©यशवन्त माथुर©

15 July 2012

जिंदगी ये भी है


जिंदगी ये भी है कि, सीख कर ककहरा
लिख दूँ इबारत, एक मुकम्मल तस्वीर की

जिंदगी ये भी है कि, खाक छान कर गलियों की
जला कर शाम को चूल्हा, तस्वीर देखूँ तकदीर की

हूँ उलझन में बहुत ,जलते चराग देख कर
रोशन हैं अरमां कहीं ;कहीं सिसकते राख़ बन कर 

जिंदगी ये भी है कि ,महलों की बदज़ुबानी के साये तले
बगल की बस्ती में, बाअदब गुलाब महकते हैं। 


©यशवन्त माथुर©

12 July 2012

मंज़िल के पार

चित्र साभार :http://latimesblogs.latimes.com
















चाहे -अनचाहे
इस दुनिया मे आने के बाद
अब 
धधक रहा है ज्वालामुखी 
'उनकी' अपेक्षाओं का
अरमानों का
और मेरे
अनगिने सपनों का

वक़्त की बुलेट ट्रेन पर
शुरू हो चुकी है
मेरी प्रगति यात्रा

अब बस इंतज़ार है
अपेक्षाओं और सपनों के
ज्वालामुखी के फटने का
जिससे निकलने वाला
फूलों का लावा
अपनी खुशबू की
चपेट मे लेगा  
सारी दुनिया को

महकी हुई हवा
बहक कर छूएगी मुझे 
और मेरा नाम लेकर
कहेगी
आ ले चलूँ तुझे
तेरी मंज़िल के पार!
 

[उनकी=माता-पिता की 
मैं या मेरी =एक छोटी लड़की जो यहाँ अपनी बात कह रही है ]
 
©यशवन्त माथुर©

11 July 2012

दोनों वक़्त का चाँद

[Mobile Photo:10/07/2012]



  











ये चाँद भी
बदसूरत है
बेहयाई से दिखता है
दोनों पक्षों में
रात में
और दिन में भी

बिना सोचे
बिना समझे
'फिकरों'* की फिकर
किये बगैर
ये चाँद
करता है परिक्रमा
मेरे साथ
मेरी सोच की

दुनिया की।

*फिकरा =ताना(व्यंग्य)


©यशवन्त माथुर©

09 July 2012

शब्दों की मेड़

यहीं कहीं तो थी
शब्दों की वह मेड़
जिससे घेरा था
तरल मन को
बह जाने से रोकने को

वह मेड़ मजबूत थी
ठोस और अटल थी
विश्वास ,उत्साह  और
स्वाभिमान से लिपी पुती थी

शायद आत्ममुग्ध भी थी

तरल मन के भीतर की
अस्थिर लहरों की
धीमी धीमी चोटों से
आहत
शब्दों की 
वह मेड़
बिखर कर,टूट कर 
अब खो चुकी है कहीं
हमेशा के लिये

और मैं जुटा हूँ
पहले से मजबूत
एक और
नयी मेड़ बनाने में । 

©यशवन्त माथुर©

05 July 2012

बारिश के पहले,बारिश के बाद

बारिश के पहले 

बारिश होने से पहले
सूखे की संभावना के साथ
दोनों हाथ ऊपर फैलाए
अन्नदाता मांग रहा था भीख 
झुलसती क्यारियों में
नये जीवन की।

बारिश होने से पहले
हरियाली हीन
सड़कों पर
चलते हुए
मेरे चटकते तलवे
चाह में थे
ठंडक की।

बारिश  के बाद  

बारिश होने के बाद
अन्नदाता खुश है
तृप्त क्यारियों की
अनकही चमक देख कर
झरते मोतियों की
बिखरती माला देख कर
मानो मन के मनके
खुश हों
नये जीवन में
बेसुध हो कर।

बारिश होने के बाद
अब मैं फिर से चाहता हूँ
पहले जैसा सब कुछ
तलवों पर लगी
काई और कीचड़ देख कर
उतरे चेहरे के साथ
सोच रहा हूँ
ये क्या हो गया ?


अन्नदाता =किसान 
मेरा /मैं  =आम शहरी नागरिक 

©यशवन्त माथुर©

02 July 2012

जुलाई का महीना

जुलाई का महीना
बस्ते के बोझ का महीना
फीस और किताबों की
कीमत से पस्त
मगर भविष्य को देख कर
खुशी से मुसकुराती
जेब का महीना
आशा का महीना
अभिलाषा का महीना 
ऊंची महत्वाकांक्षा का महीना

(धरती की झुर्रियां)हिंदुस्तान-लखनऊ-02/जुलाई/2012
मगर इस महीने में
जब धरती बहाती है
खुशी और गम के आँसू
कंक्रीट ,पत्थर और
शीशे के महलों  के भीतर
बसने वाले
कृत्रिम वायु मण्डल ने
कर दिया है चेतना हीन

जुलाई का महीना
यौवन पर इठलाने वाली
धरती की
झुर्रियां देख कर
रो रहा है
मन ही मन।

©यशवन्त माथुर©
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