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13 February 2016

अब तो बस यही करम करना है



हर जगह हैं रोकने वाले
हर जगह हैं टोकने वाले
अपने मन की करने वाले
नहीं किसी की सुनने वाले
दौर ए तानाशाही में
कड़वा सच नहीं कुबूलने वाले
बन बैठे जग के रखवाले ।

क्या किसी को कुछ करना है
हाथ पर हाथ धर चुप रहना है
हर बोलने वाले की गर्दन  को
तेज़ छुरी से कलम करना है ।

अब तो बस यही करम करना है।
 
~यशवन्त यश©

01 February 2016

मुझे रंजीत कात्याल ने नहीं बचाया था----विजू चेरियन, असिस्टेंट एडिटर, हिन्दुस्तान टाइम्स



साल 1990 में जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया था, तो वहां से मुझे भारत सरकार ने एयरलिफ्ट किया था, और दो महीने के उस घटनाक्रम की जो यादें मेरे जेहन में हैं, वे अक्षय कुमार की फिल्म एयरलिफ्ट  से बिल्कुल मेल नहीं खातीं। यह फिल्म अभी-अभी बॉक्स ऑफिस पर आई है।
फिल्म में भारत सरकार को संवेदनहीन व अक्षम दिखाया गया है। मगर इस फिल्म को लेकर मेरा अनुभव यही है कि यह सच के कहीं आस-पास भी नहीं है। वास्तव में वह अतिसंवेदनशील बच्चा आज भी दिल से भारत का आभारी है, जिसे उस संकटग्रस्त जगह से निकाला गया था। यह जरूर है कि देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत यह फिल्म गणतंत्र दिवस पर हमारे अंदर राष्ट्रभक्ति का जज्बा बढ़ाती है। मगर मुझे दिक्कत है, तो मुख्य नायक कारोबारी रंजीत कात्याल की भूमिका से, जिन्हें फिल्म में सारा श्रेय दे दिया गया है।
एयरलिफ्ट  फिल्म मैं इसलिए देखने गया था, ताकि अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और रोमांचक घटना को फिर से जी सकूं। जब तत्कालीन इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने अपनी ताकत दिखाने का फैसला किया, तब मैं कुवैत में एक स्कूली छात्र था। हमले के बाद मैं और मेरा परिवार कई हफ्तों तक उस मुल्क में रहे, जहां कोई कामकाजी सरकार नहीं थी और सेना की वर्दी में इराकी नौजवान मशीनगनों के साथ सड़कों पर घूमा करते थे। हमें बस में लाद दिया गया, जो रेगिस्तानी इलाके में सर्पीली सड़कों से गुजरती हुई एक रिफ्यूजी कैंप पर रुकी। यह कैंप नो-मैंस लैंड में बनाया गया था, जो इराक और जॉर्डन के बीच का रेगिस्तानी हिस्सा है। मुझे उम्मीद थी कि एयरलिफ्ट  फिल्म में इस तरह के दृश्य होंगे और मैं कह सकूंगा कि हां, मुझे वह घटना याद है या यह वाकई वैसी ही जगह है, जहां मैं रुका था। मगर अफसोस, फिल्म देखने के बाद मुझे उस डिस्क्लैमर का महत्व समझ में आया, जिसमें यह कहा गया है- इस फिल्म के सभी पात्र व घटनाएं काल्पनिक हैं। अगर किसी भी मृत अथवा जीवित व्यक्ति या स्थान के साथ इनका कोई संबंध पाया जाता है, तो यह महज संयोग है।
फिल्म में अक्षय कुमार रंजीत कात्याल की भूमिका में हैं। कुवैत पर इराकी हमले के बाद उन्हें कथित तौर पर लगभग 1.70 लाख भारतीयों (साथ में एक कुवैती और उनकी बेटी) को इराक और जॉर्डन से होते हुए कुवैत से मुंबई (तब बंबई) लाते दिखाया गया है। जैसा कि फिल्म के निर्माता भी मानते हैं कि अक्षय कुमार की भूमिका दो कारोबारी सनी मैथ्यू और एचएस वेदी के जीवन से प्रेरित है, जिन्होंने वहां से भारतीयों को निकालने में बड़ी भूमिका निभाई थी। मगर निर्देशक राजा कृष्ण मेनन ने कात्याल का ऐसा चित्रण किया है, मानो वह कोई पैगंबर हों, जो रेगिस्तान से भारतीयों को 10 बसों और 15 कारों से निकालते हैं। यह फिल्म में तथ्यों से खिलवाड़ का एक उदाहरण-भर है। 1.70 लाख भारतीयों को महज 10 बसों व 15 कारों से एक ही बार में निकालना क्या संभव है? वह बचाव अभियान कई हफ्तों तक चला था, और जैसा कि मुझे याद है, मेरे कुवैत से निकलने से पहले और बाद में भी लोग वहां से निकाले जाते रहे।
इसी तरह, 1.70 लाख भारतीयों का जो आंकड़ा दिखाया गया है, वह भी अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है। रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा करीब 1.20 लाख ही था।
इराक ने दो अगस्त, 1990 को कुवैत पर हमला बोला था। वह जुमेरात का दिन था, और स्कूल में छुट्टी थी। स्कूली सत्र का अंतिम दिन था वह। हम खाली जगहों और बाजारों में देर तक साइकिल नहीं चला सकते थे। यहां तक कि अपने घर के नजदीक मैदान में फुटबॉल भी नहीं खेल सकते थे। हमें समुद्र के किनारे भी जाने से रोका गया था, क्योंकि ऐसी खबरें आई थीं कि सद्दाम के लड़ाकों ने उसे खोद डाला है। मगर परिवार के बड़े लोगों और बुजुर्गों का जीवन सामान्य ही था। वे गाड़ी चलाते थे और अपने ऑफिस जाते थे। मैं यहां इराक-भारत संबंधों की सराहना जरूर करूंगा कि जो गाडि़यां भारतीय चलाया करते थे, उन्हें रोका नहीं जाता था। बेशक तब खाने-पीने की चीजों का संकट हो गया था, मगर इसमें भी भारतीयों को अपनी पसंद की जगह से खाना खरीदने की अनुमति थी।
हमने 19 या 20 सितंबर को कुवैत छोड़ा। पहले हम बस से इराक के बसरा गए, जहां हमने रात के कुछ घंटे बिताए। वहां से हमें बगदाद पहुंचाया गया, जहां हमने अपनी बसें बदलीं। अगली रात हमने रेगिस्तान के बीच में बने एक कैंप में गुजारी। वहां रात में रेत की आंधी चली, जिससे सब कुछ रेत से ढक गया था; यहां तक कि टेंट और बसें भी। अगली सुबह हम नो-मैंस लैंड पहुंचे, जहां अगले दस दिनों तक के लिए टेंट नंबर ए-87 हमारा घर था। वहां संयुक्त राष्ट्र की तरफ से हमें चादर और कंबल मुहैया कराए गए, क्योंकि रेगिस्तान की रातें काफी ठंडी हो सकती थीं। ट्रकों से खाना भी बंटता था, जिसकी व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र ने ही करवाई थी। वहां रेड क्रॉस की तरफ से चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई गई थी। वहां से हम अम्मान के लिए रवाना हुए और वहां करीब पूरे दिन लाइन में लगने के बाद हमें मुंबई का टिकट मिला।
मुझे इस बात से ज्यादा ऐतराज नहीं है कि एयरलिफ्ट फिल्म में कुवैत से हुए बचाव अभियान की कहानी जिस तरह परोसी गई है, वह मेरी यादों से मेल नहीं खाती। मुझे दिक्कत इससे ज्यादा है कि इसमें तथ्यों से खिलवाड़ किया गया है। इसमें अपनी सुविधा के अनुसार घटनाओं को नए सिरे से गढ़ा गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इस फिल्म के निर्माता नया इतिहास गढ़ रहे हैं। नाटकीयता की छौंक लगाने के चक्कर में इस पटकथा की कुछ घटनाओं को बढ़ाया गया है और नई दिल्ली की भूमिका को भी बुरी तरह से अपमानित किया गया है। आम लोगों के मन में भारतीय नेताओं और नौकरशाहों के प्रति जो आज नाराजगी है, यह फिल्म उसे बड़ी चालाकी से भुनाती है। कुवैत से भारतीयों की सुरक्षित निकासी सुनिश्चित करने में नई दिल्ली के प्रयास को यह खारिज करती है। मगर तथ्य यही है कि तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल खुद इस बचाव अभियान के लिए सद्दाम हुसैन से मिले थे। इस ऑपरेशन के लिए तकलीफ और जोखिम उठाने के बावजूद उनकी चौतरफा आलोचना भी हुई, क्योंकि एक फोटो में वे दोनों एक-दूसरे के साथ गर्मजोशी से गले मिल रहे थे। बहरहाल, एयरलिफ्ट जैसी फिल्म एक उदाहरण है कि जब कोई सरकार अपनी उपलब्धियों को आम लोगों तक पहुंचाने में विफल हो जाती है और फिल्म-निर्माताओं को एक ऐतिहासिक घटना पर जनमत बनाने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है, तो फिर क्या होता है? हालांकि एक ऐसे देश में, जहां अपनी आस्तीन पर देशभक्ति चढ़ाना जरूरी बनता जा रहा है, वहां देशभक्ति से भरपूर दृश्यों वाली एयरलिफ्ट फिल्म आपकी उत्तेजना बढ़ाने की सही खुराक है।

साभार-'हिंदुस्तान'-01/02/2016

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