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29 October 2013

बैठा है एक दीये वाला

सड़क किनारे 
ठौर जमाए 
बैठा है एक दीये वाला 
 
भूख की आग में 
तपी मिट्टी से 
हर घर रोशन करने वाला 

उसके आगे ढेर सजे हैं 
तरह तरह के आकार ढले हैं 
वो है खुशियाँ देने वाला 

मोल भाव में वो ही फँसता 
वो ही महंगा वो ही सस्ता
फिर भी मुस्कान की चादर ओढ़े 

बैठा  है एक दीये वाला।

~यशवन्त यश©

25 October 2013

परिवर्तन .....

मेरे घर के सामने है
एक बड़ा
खाली मैदान
जिसने देखा है
पीढ़ियों को
जन्मते गुजरते
जिसकी गोद में
खेले कूदे हैं
छोटे छोटे बच्चे
जो बना है गवाह
सावन के झूलों का
पेड़ों से झरते
गुलमोहर के फूलों का ।

वो मैदान
आज खुदने लगा है
आधार बनने को
ऊंचाई छूती
नयी एक नयी इमारत का
जिसकी ईंट ईंट पर
लगने वाला
नया रंग रोगन भी
भुला न पाएगा  
बीते कल की
अमिट खुशबू को।

~यशवन्त यश©

20 October 2013

भीड़

हर रस्ते पर
हर चौराहे पर
हर आसान
और तीखे मोड़ पर
अक्सर देखता हूँ भीड़
भागते -दौड़ते
हाँफते -थकते
और आराम से चलते
इन्सानों की
जिसका हिस्सा
हुआ करता हूँ मैं भी।

इस भीड़ से
कानों को चुभती
चिल्ल पों से
मन होता है
कभी कभी
लौट जाने को
अपने आरंभ पर
लेकिन कैसे लौटूँ ?
मैं एक छोटी सी लहर हूँ
इन्सानों की भीड़ के
इस समुद्र की
जिसे नहीं आता
पीछे देखना
या ठहरना
कुछ पल को।

उसे तो बढ़ते चलना है
और खो जाना है
इस सैलाब में
किनारे की रेत पर
छोड़ कर
कुछ सीप
अपनी याद के ।  

~यशवन्त यश©

16 October 2013

तितलियाँ....

'पंक्तियों' की श्रेणी में यह मेरे जीवन और इस ब्लॉग की 500 वीं पोस्ट है। जबकि कुल प्रकाशित पोस्ट्स की संख्या 559 हो चुकी है। आप सभी के आशीर्वाद और निरंतर मिल रहे स्नेह के लिए हार्दिक आभारी हूँ।

चित्र: विभा आंटी की फेसबुक से
रंगीन फूलों से महकते
उस बगीचे में
रोज़ दिन भर
उड़ान भरती हैं
रंगीन तितलियाँ
न जाने कौन सी
बात करती हैं
अपनी ज़ुबान में
सुन कर जिसे मुस्कुराती हैं
फूलों की पंखुड़ियाँ

मेड़ पर लगी ईंटों से
कभी पत्थरों से
अनजान हवा में बहती
चलती हैं तितलियाँ
मैंने पकड़ना तो बहुत चाहा
पर खुद को ही रोक लिया
कैद में रह कर उदास
हो जाती हैं तितलियाँ

चित्र: विभा आंटी की फेसबुक से
खिले मौसम की
खिली खिली बहारों में
या बारिश की रिमझिम
बरसती फुहारों में
हँसते फूलों से प्यार
जताती हैं तितलियाँ
अपनी मस्ती में कुछ
कहती जाती हैं तितलियाँ। 

~यशवन्त यश©

13 October 2013

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक। 
भीड़ को चीरता हर चेहरा मुबारक।
हर बार की तरह राम रावण भिड़ेंगे। 
तीरों से कट कर दसों सिर गिरेंगे। 
दिशाओं को घमंड की दशा ये मुबारक।
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक। 

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक। 
महंगाई में भूखा हर चेहरा मुबारक।
गलियारे दहेज के हर कहीं मिलेंगे। 
बेकारी मे किसान कहीं लटके मिलेंगे।
मिलावट का आटा-घी-तेल मुबारक। 
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक ।

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक। 
रातों में हर उजला सवेरा मुबारक।
कहीं फुटपाथों पे लोग सोते मिलेंगे। 
जिंदगी से हार कर कहीं रोते मिलेंगे।
हम ही राम- रावण,यह लीला मुबारक।
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक ।।

-यशवन्त माथुर©

12 October 2013

वह हो गयी स्वाहा .......

उसने देखे थे सपने
बाबुल के घर के बाहर की 
एक नयी दुनिया के 
जहां वह
और उसके
उन सपनों का
सजीला राजकुमार
खुशियों के आँगन में
रोज़ झूमते
नयी उमंगों की
अनगिनत लहरों पर

उन काल्पनिक
सपनों का
कटु यथार्थ
अब आने लगा था
उसके सामने
जब उतर कर
फूलों की पालकी से
उसने रखा
अपना पहला कदम
मौत के कुएं की
पहली मंज़िल पर

और एक दिन
थम ही गईं
उसकी
पल पल मुसकाने वाली सांसें..... 
दहेज के कटोरे में भरा
मिट्टी के तेल
छ्लक ही गया
उसकी देह पर
और वह
हो गयी स्वाहा
पिछले नवरात्र की
अष्टमी के दिन। 

~यशवन्त यश©

07 October 2013

क्योंकि वह माँ नहीं......

कल सारी रात
चलता रहा जगराता
सामने के पार्क में
लोग दिखाते रहे श्रद्धा
अर्पण करते रहे
अपने भाव
सुगंध,पुष्प और
प्रसाद के साथ
नमन,वंदन
अभिनंदन करते रहे
झूमते रहे
माँ को समर्पित
भजनों-भेंटों की धुन पर ।

मगर किसी ने नहीं सुनी
नजदीक के घर से
बाहर आती
बूढ़ी रुखसाना की
चीत्कार
जो झेल रही थी
साहबज़ादों के कठोर वार
मुरझाए बदन पर  ।

कोई नहीं गया
डालने एक नज़र
क्या... क्यों... कैसे...?
न किसी ने जाना
न किसी ने समझा ...
क्योंकि
दूसरे धर्म की
वह माँ नहीं!
औरत नहीं!
देवी नहीं  !!

हमारी आस्था
हमारा विश्वास
बस सिकुड़ा रहेगा
अपनी चारदीवारी के भीतर
और हम
पूजते रहेंगे
संगमरमरी मूरत को
चुप्पी की चुनरी ओढ़ी
मुस्कुराती औरत के
साँचे में ढाल कर। 
 
~यशवन्त यश©

05 October 2013

वह देवी नहीं

सड़क किनारे का मंदिर
सजा हुआ है
फूलों से
महका हुआ है
ख़ुशबुओं से
गूंज रहा है
पैरोडी भजनों से
हाज़िरी लगा रहे हैं जहां
लाल चुनरी ओढ़े
माता के भक्त
जय माता दी के
जयकारों के साथ।

उसी सड़क के
दूसरे किनारे
गंदगी के टापू पर बसी
झोपड़ी के भीतर
नन्ही उमा की
बुखार से तपती
देह 
सिमटी हुई है
एक साड़ी से
खुद को ढकती माँ के
आँचल में। 

उसकी झोपड़ी के
सामने से
अक्सर निकलते हैं
जुलूस ,पदयात्रा , जयकारे
जोशीले नारे
पर वह
नन्ही उमा !
सिर्फ गरीब की देह है
देवी या कन्या नहीं
जिसे महफूज रखे हैं
आस-पास भिनकते
मच्छरों और मक्खियों की
खून चूसती दुआएं।

~यशवन्त यश ©

02 October 2013

यह वो कल नहीं


यह वो कल नहीं
कभी जिसके बारे में 
तुमने सोचा था 

यह वो कल नहीं 
कभी जिसके कारण 
तुमने सब कुछ छोड़ा था 

यह वो कल नहीं 
कभी जिसके सुनहरे स्वप्न 
तुम्हें हर रोज़ आते थे 

यह वो कल नहीं 
कभी जिसके लिये 
तुम राम धुन को गाते थे 

नहीं! नहीं!! नहीं!!!
यह वो कल नहीं; स्वार्थी आज है 
जिसके बटुए में बंद 
तुम्हारा मूलधन और ब्याज है

यह वो कल नहीं 
करती जिसको रोशन राजघाट है 
तीनों बुराई* मे रचा बसा 
यह उल्टा पुल्टा आज है।
 
~यशवन्त यश©

*तीनों बुराई-बुरा मन देखो 
                  बुरा मत सुनो 
                  बुरा मत बोलो  
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