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28 February 2013

रेत की इमारत

हर दिन
बहुत मेहनत से
बनाता हूँ मैं
रेत की इमारत
और उसे सजाता हूँ
नदी किनारे की
छोटी छोटी सीपियों से
कल्पना के घरौंदे से
बाहर निकल कर  
वह इमारत
साकार तो हो जाती है
पर शाम होते होते
उसका होने लगता है 
अंग भंग
और रात के ढलते ढलते
खो देती है
अपना अस्तित्व
बना  देती है जगह
एक और
रेतीली
इमारत के लिये। 

©यशवन्त माथुर©

27 February 2013

ऐसा क्यूँ होता है ?

ख्वाबों से निकल कर
हकीकत की ज़मीं पे
देखता हूँ जिंदगी
तो दर्द होता है।

हकीकत की ज़मीं पे
जब सोता हूँ नींद में
देखता हूँ ख्वाब
तो सुकून होता है। 

दिन को होती है भीड़
और रातों को तन्हाई
सोचता हूँ अक्सर
कि  ऐसा क्यूँ होता है ?


©यशवन्त माथुर©

26 February 2013

अनकही बातें

बसंत की
इस खिली धूप की तरह 
बगीचों मे खिले फूलों की तरह
खुली और मंद हवा में
झूमते हुए 
बाहर की दुनिया देखने को बेताब 
मन के भीतर की
अनकही बातें
शैतान बच्चे की तरह
करने लगी हैं जिद्द
शब्दों और अक्षरों के
साँचे में ढल कर
कागज पर उतर जाने को

मेरी पेशानी पर
पड़ रहे हैं बल
दुविधा में
कहाँ से लाऊं
अनगिनत साँचे
और कैसे ढालूँ
बातों को
उनके मनचाहे आकार में
न मेरे पास चाक है
न ही कुम्हार हूँ

बस यूं ही
करता रहता हूँ कोशिश
गढ़ता रहता हूँ  
टेढ़े-मेढ़े
बेडौल आकार
क्योंकि मेरे पास
कला नहीं
रस,छंद और अलंकार की।

©यशवन्त माथुर©

25 February 2013

जिंदगी

कभी हँसाती है
कभी रुलाती है जिंदगी
बेवजह कुछ ख्वाब
सजाती है जिंदगी
तिल तिल कर जीने वालों को
एक नज़र दिल से तो देखो 
फाँका मस्ती में
बेहयाई से मुस्कुराती है जिंदगी ।

©यशवन्त माथुर©

24 February 2013

क्षणिका

कुछ नहीं में
कुछ ढूँढता हुआ 
पा रहा हूँ खुद को
आईने के सामने :)


©यशवन्त माथुर©

23 February 2013

चलना ही है

कभी
एक सीधी राह दिखती है 
जो मंज़िल की ओर जाती है
सामने मंज़िल भी है


राही
चल रहा है
चलता ही जा रहा है
और उसको
सच भी समझ आ रहा है

जिसे वो समझ रहा था
खुली और उजली राह
वो मृगमरीचिका है
जिस पर हैं
तीखे मोड़
यहाँ वहाँ
गहरे गड्ढे

इस पर चलना
आसान नहीं
लेकिन जब
शुरू कर दिया चलना
जब बढ़ा दिया कदम

तो चाहे
अनचाहे
गुजरना ही है
इस सन्नाटे में
इस निर्जन में
चक्रवातों से 
पार पाना ही है

चलना ही है
थाम कर
हमराही बनी
उम्मीद का हाथ।

©यशवन्त माथुर©

22 February 2013

अनकही बातें

अनकही बातें
खामोश सी बातें
कभी कभी उतावली होती हैं
भीतर से
बाहर आने को
दबी हुई कह जाने को
पर अनकही
अनकही ही रह जाती है
कभी साँसों के उखड़ने की
मजबूरी में
और कभी
इस उम्मीद में
कि
समझने वाले ने
झांक ही लिया होगा
मन के भीतर।
©यशवन्त माथुर©

21 February 2013

अनकही बातें .....

कभी कभी
कुछ बातें
रह जाती हैं
अनकही
अनसुनी
कभी चाहे
कभी अनचाहे
कभी धोखे में
या कभी जान कर
फिर भी
उन बातों को
सुन
समझ लिया जाता है
गूंगी जीभ के स्वाद
और
अंधे को दिखाई देती
हर तस्वीर की तरह।

©यशवन्त माथुर©

20 February 2013

सपनों की दुनिया

(Photo-from a facebook friend's wall )
न ये वादियाँ हैं अब
न बहते झरने हैं
न नदियां है अब
न फूलों पे मँडराते भँवरे हैं
यूं सफेदी सा बहता पानी

अब सपना सा लगता है
कंक्रीट के जंगलों में
काला धुआँ सा उड़ता है
विकास है या विनाश
ये मुझको पता नहीं
पर सपनों की जन्नत से
कभी मन हटता नहीं
सोकर उठता हूँ अब
रोज़ देर से सवेरे
चहक कर दर पे मेरे
कोई पंछी जगाता ही नहीं।
 
©यशवन्त माथुर©

19 February 2013

सोच रहा हूँ-

सोच रहा हूँ-
वक़्त -बेवक्त दिखने वाली
धूप छांव की
इस मृग मरीचिका में
सुस्ताती हुई
जीवन कस्तूरी
आखिर क्या पाती है
यूं पहेलियाँ बुझाने से ?

©यशवन्त माथुर©

18 February 2013

उन्हें कुछ नहीं पता.....

उन्हें कुछ नहीं पता
क्या धर्म
क्या जात की ऊंच नीच
क्या गोरा क्या काला
अमीर या गरीब
उन्हें मतलब नहीं
भाषा या देश से
संस्कृति और परिवेश से
न राग से न द्वेष से  
उनका मन सिर्फ
उनका ही मन है
खुद में ही मस्त है
खुद मे ही मगन है
उन्हें लोटना है ज़मीन पर
तुतलाना है , ठुमकना है
अपनी ही दुनिया मे जीना
बच्चों का बचपना है
कभी था यह सब
खुद की हकीकत
अब यह सब  एक सपना है !

©यशवन्त माथुर©

17 February 2013

कहीं ऐसा तो नहीं

कहीं ऐसा तो नहीं
ग्लोबल वार्मिंग की वार्निंग को
धता बताते हुए
इंसानी संगत का
खुद पर असर जताते हुए
हो दरअसल यह सावन ही
और हम समझ बैठे हों बसंत
गली की कीचड़ में
डुबकी लगाते हुए
शहर में होते हुए
और गाँव का
धोखा खाते हुए। 
©यशवन्त माथुर©

16 February 2013

महसूस करना मुफ्त है .....

इस बारिश में भी
वो जुटा हुआ है
बड़ी तन्मयता से
कूड़े के ढेर में 
ढूँढने में
'कुछ मतलब  की चीज़'
और अपने कमरे में
बैठ कर
मैं सिर्फ
महसूस कर सकता हूँ  
उसकी भूख को
क्योंकि
महसूस करना
मुफ्त है
और कुछ किए बिना।

©यशवन्त माथुर©

15 February 2013

कल और आज ....

चित्र-जूही श्रीवास्तव जी की फेसबुक वॉल से 
कल
हाथों में ढेर सारे
'दिल' पकड़े
दिलवालों के इंतज़ार में
उसका दिन बीत गया

दिल वाले आते गये
'दिल' लेते गये
किसी को देते गये
और वो
खुश होता रहा

आज भी
वो उसी जगह खड़ा है
आज हाथ मे दिल नहीं
सरस्वती हैं

लोग आ रहे हैं
उसके पास
खरीद रहे हैं
ज्ञान की देवी को
सजाने के लिये
मंदिरों
और घरों में
पूजा के लिये

वो
कभी हँसता है
मुसकुराता है
कभी बना लेता है
गंभीर सा चेहरा

वह भाग्य भी है
और कर्म भी है 
पर क्या
कहीं कोई है
जो मिलवा सके उसे 
सच्ची सरस्वती से ?

©यशवन्त माथुर©

14 February 2013

मेरे लिए मुमकिन नहीं!

कभी कभी
औरों की तरह
मैं भी कोशिश करता हूँ
प्यार पर लिखने की
प्यार को परिभाषित करने की
‘तुम’ से ‘मैं’ की बात कहने की
दिल के भीतर हिलोरें लेते
बसंत की कुछ सुनने की
महसूस करने की
पर बुद्धि और सोच का छोटापन
समझने नहीं देता
कि प्यार क्या है
सिवाय इसके
कि प्यार सिर्फ प्यार है
जिसे शब्द देना
मेरे लिए मुमकिन नहीं!

©यशवन्त माथुर©

13 February 2013

अब मोमबत्तियाँ नहीं जलेंगी .....

Google Image Search
अब मोमबत्तियाँ नहीं जलेंगी
न ही कुछ लिखा जाएगा
न लोग इकट्ठे होंगे
न लगेंगे मुर्दाबादी नारे
क्योंकि जिंदाबादों की यह बस्ती

आबाद है
अवसरवादी मुखौटों से!


©यशवन्त माथुर©

(इलाहाबाद रेलवे स्टेशन की घटना पर मेरी यह प्रतिक्रिया संजोग अंकल के फेसबुक स्टेटस पर टिप्पणी में है।)  

12 February 2013

नज़र जब देखती है.....

नज़र -
जब देखती है
आसमान में उमड़ते
काले बादल 
नज़र -
जब देखती है
कड़कती बिजली
और झमाझम बारिश
नज़र -
जब देखती है
बारिश के बाद का
सुनहरा -ताज़ा सा
और कुछ मैला- काला सा
चित्र 
शायद तभी एहसास होता है
वर्तमान-भविष्य और भूत के
आपस में गुंथे होने का!

©यशवन्त माथुर©

11 February 2013

सवाल-जवाब ....

उस टोकरे में लगा हुआ है
अनगिनत सवालों का ढेर
जिसको खंगाल कर
चुनना है
एक भाग्यशाली सवाल 
मेलों मे होने वाले
लकी ड्रॉ की तरह ....
मगर यह नहीं पता
मेरे पास
है भी या नहीं 
सटीक जवाब
उस भाग्यशाली
सवाल का ।

©यशवन्त माथुर©

10 February 2013

आखिरी जवाब का एहसास.....

कितने ही सवालों के
कितने ही मोड़ों
और रास्तों से गुज़र कर
आखिरी जवाब
जब पाता है
खुद को 
किसी किताब के पन्नों पर
छपा हुआ
या मूंह से निकले शब्दों के साथ
घुल जाता है
हवा में -
तब
तीखी धूप में लहराती
खुद की काली परछाई बन कर
या घुप्प अंधेरे में
किसी कोर से झाँकती
रोशनी की लकीर बन कर
जीने का दे संबल कर
परिवर्धन की आस में
मिटने को उतावले -
सम्पादन को बावले
अक्षरों की संगत में
कराता है
खुद के होने का एहसास!

©यशवन्त माथुर©

09 February 2013

एक दिन मैं भी इनमे बैठूँगा

आसमान से गुज़रा
हवाई जहाज़
और उसी क्षण
सामने की पटरी से
गुजरती रेल

पलक झपकते
दोनों का गायब हो जाना
मंज़िल से चल कर
मंज़िल की ओर
फिर आना
फिर से जाना
कितने ही चक्कर
रोज़ लगाना

उस पार की
गंदी बस्ती में
रहने वाला
काला-मैला
4 साल का छोटू
नज़रों के सामने से
और सिर के ऊपर से
भागते
सपनों को थामने की
कोशिश करता हुआ
माँ से कहता है -
एक दिन मैं भी
इनमे बैठूँगा !

©यशवन्त माथुर©

08 February 2013

क्षणिका....

थोड़ा ख्वाब
थोड़ी हकीकत
जिंदगी जो भी है
ज़िंदगी ही है!

©यशवन्त माथुर©

07 February 2013

क्या लिखता हूँ मैं और.........

बे फिकर उड़कर
मन की कविता को जब देखता हूँ
सोचता  हूँ
और बस शब्दों को सहेजता हूँ

कभी वक़्त आने पर
जान लेगी दुनिया
बिना स्याही आकाश के पन्ने पर
क्या लिखता हूँ मैं
और क्या मिटा देता  हूँ।

©यशवन्त माथुर©

(दो दिन पहले एक फेसबुक मित्र की प्रोफाइल फोटो पर
लिखी टिप्पणी जिसे थोड़ा सा संपादित कर दिया है) 

06 February 2013

इन राहों पर- चौराहों पर.........

इन राहों पर- चौराहों पर
जब भी खुद को पाता हूँ
शोर के संगीत सुरों में
कुछ यूं ही गुनगुनाता हूँ

चाहा तो लिखना बहुत है
चाहा तो कहना बहुत है
बीच राह पर चलते चलते
गिरना कभी संभलना बहुत है

लिखने को कलम तलाश कर
कहने को ज़बान तराश कर
मन की किताब के कोरे पन्ने पर
लिखता कुछ मिटाता हूँ

कहता कुछ समझाता हूँ
बस यूं ही आता जाता हूँ
इन राहों पर- चौराहों पर
जब भी खुद को पाता हूँ

©यशवन्त माथुर©

05 February 2013

बना रहे साथ.......

पापा 
(पापा के आज 61 वें जन्मदिवस पर कुछ--)

एक साया हरपल
चला है साथ मेरे
एक हाथ हमेशा
बढ़ा है आगे मेरे

सुनाए जिंदगी ने यूं तो
कितने ही तीखे ही नगमे
एक सुर के साथ
बीत गए ढेरों अंधेरे

इन तमाम दोपहर
शामों और रातों में
बदलते मौसमों की
अनकही बातों में

दुआ बस यही
और तमन्ना भी यही है
बना रहे हमेशा साथ हाथ का
जो बना हुआ है अब तक

शुरू हुआ एक नया सफर
जन्मदिन मुबारक!

©यशवन्त माथुर©

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04 February 2013

क्षणिका.......

सड़क सिर्फ
सड़क ही नहीं
सड़क
सिर्फ एक रास्ता ही नहीं
कभी कभी सड़क
मंज़िल भी होती है
जहां से शुरू होती है
वहीं पर खत्म होती है।  

©यशवन्त माथुर©

03 February 2013

कैसे कह दूँ उन बातों को ?

अक्स बन कर अक्षर अक्षर
कहता मन के जज़्बातों को
फिर भी जो अब बची रह गईं
कैसे कह दूँ उन बातों को ?

बातों का आधार बड़ा है
बातों पर संसार खड़ा है
कोई होता विचलित पल में
कोई अंगद पाँव अड़ा है ।

बिखरी बिखरी बातें अक्सर
बनती  भाषा,लिपि या अक्षर 
और जो कुछ भी बन न सकीं तो
कैसे खोलूँ मन के पाटों को

कैसे कह दूँ उन बातों को ?
 

©यशवन्त माथुर©

02 February 2013

'साहब' और 'वह'.......(लघु कथा)

जीवन के सफ़र में राही
मिलते हैं बिछुड़ जाने को
और दे जाते हैं यादें
तन्हाई में तड़पाने को .......

किसी ज़माने में किशोर का गाया यह नगमा गुनगुनाते हुए वह अपनी ही धुन में चला जा रहा था......काले मैले कपड़े.....जिन्हें सदियों से धोया न गया हो.....वह कौन था या है....पता नहीं....बस इन्सानों जैसा एक चेहरा....जिस पर खिंची हुई थीं.....भूख की आड़ी तिरछी लकीरें ...न जाने क्यों उसे देख कर.... कभी किसी की और बढ़ने में शर्माने वाले साहब के  हाथ ....जेब में रखे नोट को मुट्ठी में भींच कर उसकी और बढ़ चले .....कुछ मिलने का एहसास उसे भी हो रहा था .....उसे भूख थी.....पर नोट की इच्छा नहीं ....इससे पहले कि उन हाथों से वह नोट उसकी झोली मे गिरता .......उसके मूंह से उसकी बनाई पैरोडी निकल पड़ी.....

ऐ भाई ज़रा देख के चलो ...
आगे भी नहीं....पीछे भी
ऐ भाई ...अपुन को नोट नहीं
कुछ खाने को दो.....

साहब के बढ़े हुए हाथ वापस  लौट चले जेब में ....और फिर अब न कुछ कहने को बचा था....न कुछ करने को.....न ही आस पास कोई दुकान थी .... हाँ उनके  के  कंधे पर लटक रहा टिफिन बॉक्स खाली ज़रूर था मगर .....बची हुई जूठन से ...पर वह जूठन उसे देना.......? साहब का मन बोल उठा.....न यह नहीं हो सकता......

सोच में मग्न साहब को जब होश आया....वह चलते चलते .....उनकी आँखों की पहुँच के पार हो गया था.....और साहब अब भी वहीं खड़े थे......उसी चौराहे की लाल बत्ती पर। 

©यशवन्त माथुर©

(लघु कथा लिखने का यह मेरा सबसे पहला प्रयास है। पता नहीं यह लघु कथा है या कुछ और ...फिर भी जब लिख गयी तो ब्लॉग पर छापने से खुद को रोक नहीं सका हूँ ) 

01 February 2013

अजीब सी सुबह

कभी अलसाई होती है
कभी मुसकुराई होती है
कभी धुंध में दबी होती है
कभी धूप छाई होती है

सुनाती है कभी
सैर को जाती चिड़ियों के तराने
या बिखराती है खुशबू
खिले फूलों के बहाने

बदलते मौसम के रंगों की
अपनी एक कहानी होती है
हर अजीब सी सुबह
खुद मे सुहानी होती है।
  
©यशवन्त माथुर©
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