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28 July 2014

शून्य को समझना आसान नहीं

जितना आसान है
कागज़ पर उकेर देना
शून्य का चित्र
उतना ही कठिन है
ढालना
और समझना
शून्य का चरित्र .....
जो आदि से अंत तक
गुज़रता है
अनगिनत
घुमावदार मोड़ों से
जिसके रास्ते में
कभी मिलती है
समुद्र की गहराई
अंतहीन गहरी खाई
कभी मिलते हैं
मौसम के अनेकों रूप
कहीं छांव कहीं धूप
कहीं कांटे-फूल
गड्ढे
और न जाने क्या क्या
फिर भी
वह वृत्त
वह शून्य
वहीं आ मिलता है
जहां से
चला था
अपने सफर में .....
हज़ार यादों की
एक पन्ने मे रची
बेहद जटिल किताब
जिसके भीतर
कहीं छुपी सी हो
उस शून्य को
उकेरना
बहुत आसान है
पर उसे समझना
बिलकुल भी
संभव नहीं।

~यशवन्त यश©

22 July 2014

दीवारों से कुछ बातें ....

अच्छा है
कभी कभी
कर लेना
दीवारों से कुछ बातें ....
वह जैसी हैं
वैसी ही रहती हैं
बिल्कुल गंभीर
शांत
और कभी कभी
हल्के से मुस्कुराती हुई
राज़दार बन कर
सुनती हैं
सब बातें
बिना किसी तर्क-कुतर्क
बिना किसी क्रोध के ....
जिंदगी के
अँधेरों में
जब
छोड़ कर चल देते हैं
अपने ही
अपनों का हाथ
दीवारों का साथ
सुकून देता है
इसलिये
अच्छा है
कभी कभी
कर लेना
कुछ बातें
दीवारों से
क्योंकि दीवारें
बेहतर होती हैं
इन्सानों से।

~यशवन्त यश©

19 July 2014

सशक्तिकरण बनाम निर्भया

जिसे लोग समझते हैं
सशक्तिकरण
क्या वही सही है ?
घर की चौखट के बाहर
दिन के उजालों मे
रातों की चकाचौंध में
अंधेरे रास्तों से
गुज़रती
कभी पैदल चलती
कभी मोटर मे दौड़ती
हर वामा
भीतर ही भीतर
समाए रहती है
एक डर
एक दर्द
क्या पहुँच भी पाएगी
अपनी मंज़िल पर ?
किताबों में
यूं तो उसे कहा गया है
देवी और पूजनीय
उसके कदमों को
माना गया है
शुभ -लाभ
फिर भी
सिहरता रहता है
उसका मन
डोलता रहता है
उसका विश्वास ....
यहाँ कदम दर कदम
उसके 'अपनों' की नज़रें
'गैर' नजरों जैसी लगती हैं
'दृष्टि दोष' पीड़ित दुर्योधन
अपनी आँखों मे
तैरते लाल डोरों को
छुपाने के लिए
'सम्मान' का
चश्मा लगा कर
हर दिन
करते रहते हैं
उसका चीरहरण
और वह बचते बचाते
जब सोती है
गहरी नींद मे
तब बीते दिन के सपने
उसे कर देते हैं
बेचैन ....
वह
नहीं चाहती
'निर्भया'
या 'दामिनी' कहलाना
वह जीना चाहती है
अपने इसी अस्तित्व के साथ
अपनी इसी काया के साथ
जिसकी हर छाया में
उसका वामा रूप
कराता रहे एहसास
दिलाता रहे विश्वास
कि
'सशक्तिकरण'
होता है
सिर्फ
समाज की सोच
बदलने से .....
पर
क्या
यह सोच
बदली है ???
या बदलेगी ????
आखिर कब ?
आखिर कब तक ????

~यशवन्त यश©

17 July 2014

हो सके तो हमें माफ कर देना

Photo:-Palestine Solidarity Campaign UK
दूर देश से आती
तुम्हारे झुलसे हुए
नाज़ुक जिस्मों की
तस्वीरें देखकर
कौन ऐसा होगा
जो रो न देता होगा ...
मगर
सुनाई नहीं देतीं
दर्द से भरी
तुम्हारी चीखें
तुम्हारी कराहें
इस क्रूर दुनिया के
सफेदपोश लोगों को  ....
दिखाई नहीं देतीं
अनगिनत चोटें
ठंडे पड़ चुके
खामोश हो चुके
तुम्हारे बदन पर ...
इस खेलने
मस्ती करने की उम्र में
उधर
तुम्हारे ऊपर
आसमान से गिर रहे हैं बम
और इधर
अपने अंधेरे स्वार्थों के
शिखर पर
बैठे हुए हम
चुप्पी के साथ 
सिर्फ व्यक्त ही कर सकते हैं
अपनी संवेदना .....
गाज़ा के प्यारे बच्चों !
हो सके तो
हमें माफ कर देना।

~यशवन्त यश©

14 July 2014

विचार

हम सभी
उलझे रहते हैं रोज़
कितने ही विचारों के जाल में
जिनकी
उलझन को सुलझा कर
कभी हो जाते हैं मुक्त
और कभी
फँसे रहते हैं
लंबे समय तक
जूझते रहते हैं
खुद से
कभी किसी और से ....

विचार
अपने तीखेपन से
कभी चुभते हैं
तीर की तरह
और कभी
करा देते हैं एहसास
शक्कर की मिठास का ....

सबके अपने अपने विचार
कभी एक से लगते हैं
कभी साधारण से लगते हैं
कभी असाधारण हो कर
छाए रहते हैं
कहीं भीतर तक ....

इन विचारों को
कहने का
लिखने का
दिखने और दिखाने का
सबका अपना तरीका है
जिसमे
कभी
होता है आकर्षण
और कभी विरक्ति
फिर भी हम सभी
मुक्त नहीं हो सकते
विचारों के
सार्वभौम अस्तित्व से।

~यशवन्त यश©

12 July 2014

एक पल ऐसा भी आना है

जानता हूँ
यूं चलते चलते
एक पल
ऐसा भी आना है
समय के साथ दौड़ में
पिछड़ना है
रुक जाना है ....
'आज' से शुरू हुआ सफर
'आज' पर ही रुक कर
भविष्य की
मिट्टी में मिल कर
भूत बन जाना है ....
समझना होगा अब तो
दर्द गुमनाम तस्वीरों का
गर्द रोज़ धुले पुछे
कुछ ऐसा कर जाना है ...
आज नहीं तो कल
एक पल
ऐसा भी आना है ....।

~यशवन्त यश ©

09 July 2014

नशा शराब में होता तो........

'नशा शराब में होता
तो नाचती बोतल
मैकदे झूमते
पैमानों मे होती हलचल'

पर नशा
शराब
या काँच की बोतल में नहीं
मन के भीतर ही कहीं
रचा बसा होता है
दबा सा होता है
जो बस
उभर आता है
कुछ बूंदों के
हलक मे उतरते ही
बना देता है
चेहरे को
कभी विकृत
कभी विदूषक
धकेल देता है
लंबी प्रतीक्षा की
अंतहीन
गहरी
अंधेरी खाई में
जिससे कुछ लोग
निकल आते हैं
बाहर
और कुछ
फंसे रहते हैं
वहीं
छटपटाते हुए।

मन के भीतर के नशे को
उभरने के लिये
ज़रूरत
शराब की नहीं
शब्दों के
पत्थर की होती है
जिसकी
हल्की सी टक्कर
पैदा कर देती है
कल्पना की शांत नदी में
नयी धारणाओं के
अनेकों कंपन
अनेकों लहरें
जिनका तीखापन
तय करता जाता है
अपने बहाव में
साथ लिए जाता है
उजली राहों से
नयी मंज़िल की ओर।

~यशवन्त यश©

07 July 2014

अच्छा ही है

अच्छा ही है
मन का थम जाना
कभी कभी
शून्य हो जाना
शब्दों का
कहीं खो जाना
कल्पना का
और यहीं कहीं
किसी किनारे पर
रुक कर सुस्ताना
बहती धारा का ....
टकरा टकरा कर
कितने ही पत्थरों को
अस्तित्वहीन कर देने के बाद
कितने ही प्यासे हलक़ों मे उतर कर
जीवन देने के बाद
अच्छा ही है
एक करवट ले कर
सो जाना
खो जाना
भविष्य की यात्रा
और नए पड़ावों के
सुनहरे सपनों मे ।

~यशवन्त यश©

04 July 2014

मैं मजदूर हूँ

आज की नींव पर
गाता हूँ
मैं
कल की
सँवरी इमारत का राग
छैनी हथोड़ी की सरगम
और ईंटों का साज़
सुना देता है
मेरे मन के
भीतर की आवाज़ ....
मैं
रूप धरता हूँ
कभी बढ़ई का
कभी राजमिस्त्री का
और कभी
नज़र आता हूँ
सिर और पीठ पर
किस्मत का
बोझा उठाए
साधारण
बेलदार के रूप में ....
मेरी झोपड़ी में
चहल पहल नहीं
हलचल नहीं
मेरे ही बनाए
आपके महलों की तरह
रेशमी पर्दे नहीं ...
मैं
बे पर्दा हूँ
क्योंकि
खुशी
और गम छुपाने को
न कल था
न आज मजबूर हूँ
मैं
मजदूर हूँ। 

~यशवन्त यश©
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