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28 November 2011

ड्राफ्ट

कितना अजीब सा होता है
एडिट मोड
जहां पूरा होने का
इंतज़ार करते मिलते हैं
कुछ सिमटे से
अधूरे ड्राफ्ट
ठीक वैसे ही
जैसे पिंजरे में कैद
कोई पंछी
फड़फड़ा रहा हो  
खुली हवा मे उड़ने को

दो दो तीन तीन लाइन के  
ढेर सारे ड्राफ्ट
जिन पर
अक्सर चली जाती है 
मेरी उछ्टती सी निगाह
लेकर
एक हल्की सी मुस्कान
देता हूँ
मौन दिलासा--

'चिंता मत करो
तुम डिलीट नहीं होगे
तुमको छपना है
अंश बनना है
आने वाली
किसी पोस्ट का'

आश्वस्ति सा भाव लिये
बेचारा ड्राफ्ट
रह जाता है कैद
एडिट मोड में

और न्यू पोस्ट पर
क्लिक करते ही
बजने लगता है
की बोर्ड का राग

नयी पोस्ट बन कर
पब्लिश भी हो जाती है
और ड्राफ्ट ....?
उसे करना है
अभी कुछ और
इंतज़ार  !



24 November 2011

अजीब से ख्याल

बहुत से ख्याल हमारे मन मे अक्सर आते हैं । यह पंक्तियाँ एक कोशिश है उन लोगों के मन की बात कहने की जो सोचते तो बहुत कुछ हैं और कहते भी हैं पर लिखते नहीं है। अरे आप कोशिश तो कीजिये अपने मन की बातों को शब्द देने की कहीं न कहीं कोई न कोई आपकी बातें ज़रूर पसंद करेगा।

अजीब से ख्याल

कभी सोते मे
सपनों के सतरंगी समुंदर मे
कभी कुछ कहते हुए
कभी कुछ सुनते हुए
किसी को हँसते देख कर
गम से रोते देख कर
कलियों को खिलते देख कर
मुरझाए फूलों को देख कर
हँसते शिशुओं को देख कर 
सड़क पर चलते हुए
हवा मे उड़ते हुए
कहीं काम पर पसीना बहाते
मजदूरों को देख कर
शीत लहरी मे ठिठुरते हुए
मांस के पुतलों को देख कर
और न जाने कब कब
वक़्त बे वक़्त
कुछ ख्याल
अक्सर मन मे आते हैं

ख्याल मन मे आते हैं
कि कुछ कहूँ
किसी से बातें करूँ
उन ख्यालों को बयां करूँ

आस पास कुछ लोग हैं -
डरता हूँ मेरे अजीब से
ख्यालों को सुन कर
वो हँस न दें
कर न दें शर्मिंदा
पर आखिर मैं क्यों चुप रहूँ
क्यों न कहूँ अपने मन की
जो अब तक दबी हुई है
कहीं किसी कोने मे
मन अकुला रहा है
जैसे जाल मे फंस कर
कोई पंछी तड्फड़ा रहा हो
मुक्ति पाने को

पर ये ख्याल
ये ख्याल सच मे
बहुत अजीब होते हैं
इन ख्यालों को
लिख देना चाहता हूँ
कह देना चाहता हूँ
उन से
जो इन ख्यालों का
ख्याल रखते हों :)
दिल से !

22 November 2011

ज़मीन जैसा हूँ......

आईने मे आज फिर
अपना चेहरा देखा
कल किसी ने
इसे बेदाग कहा था
और मुझे घेर दिया था
गहरी सोच मे
क्या यह सचमुच बेदाग है?
क्या बदलते वक़्त के साथ
बीतती उम्र के साथ
वही कोमलता बाकी है?
नहीं!
नहीं हूँ मैं बे दाग
तमाम चोटों के
खरोचों के निशान
इसकी गवाही दे रहे हैं ।

खुद को ज़मीन जैसा पाता हूँ मैं
अपने पैरों तले
जिसे कुचल कर
चोटें दे देकर
वक़्त बढ़ता चला जा रहा है
चलता चला जा रहा है
अपनी राह

उम्र के बढ्ने के साथ
पुराने होते चोटों के निशान
अब भी दिख रहे हैं
आईने मे
और आने वाली चोटें
तलाश रही हैं अपनी जगह
मेरे चेहरे पर !

16 November 2011

मेरा इंतज़ार

जंगली धूप और
मरघटी रातों मे
अनजान गलियों की ,
सुनसान  सड़कों पर
अकेले चलते हुए
मैंने देखा -
हर मोड़ पर कर रहे थे
मेरा इंतज़ार
वक़्त के
अदृश्य पहरेदार!

14 November 2011

बाल दिवस की शुभकामनाएँ!

मेरी छोटी सी कज़िन वंशिका को तो आप जानते ही हैं लीजिये आज बाल दिवस पर फिर से देखिये उनकी कुछ ड्राइंग्स--











10 November 2011

मोड़

कल जहां था
आज फिर
आ खड़ा हूँ उसी मोड़ पर
जिससे हो कर
कभी गुज़रा था
भूल जाने की
तमन्ना ले कर

उस मोड़ पर
सब कुछ
बिल्कुल वैसा ही है
जैसा पहले था
कुछ बदला तो सिर्फ
वक़्त बदला
और उम्र बदली
और फिर वही मोड़ ....आखिर क्यों?

यह दोहराव....अचानक !
क्या सिर्फ मेरे साथ है?
या दोहराव होता है
कभी न कभी
सबके साथ ?
जब मिल जाता है
यूं ही ...
कोई भूला बिसरा मोड़
जिससे होकर गुजरना ही है
क्योंकि
न कोई विकल्प
और न कोई और
रास्ता ही है
इस एक मोड़ के सिवा।


08 November 2011

सुपर स्टार

सड़क से गुजरते हुए
किनारे बसी
मजदूरों की झोपड़ियों के बाहर
मैंने देखा उसे
बड़े ही ध्यान से
वो तल्लीन था
उस किताब मे
और दोहराता जा रहा था
एक कविता -
'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार'
शायद
उस गुदड़ी के लाल को
एहसास नहीं था
खुद के सुपर स्टार होने का।

05 November 2011

मौसम और मन .....

कभी धूप
कभी छाँव
कभी गर्मी
कभी ठंड
कभी बरसात
कभी बसंत
बदलता है मौसम
पल पल रंग।

मन भी तो ऐसा ही है
बिलकुल मौसम जैसा
पल पल बदलता हुआ
कभी अनुराग रखता है
प्रेम मे पिघलता है
और कभी
जलता है
द्वेष की गर्मी मे।

ठंड मे ठिठुरता है
किटकिटाता है
क्या हो रहा है-
सही या गलत
समझ नहीं पाता है
जम सा जाता है मन
पानी के ऊपर तैरती
बरफ की सिल्ली की तरह ।

मन!
जब बरसता है
बेहिसाब बरसता ही
चला जाता है
बे परवाह हो कर
अपनी सोच मे
अपने विचारों मे
खुद तो भीगता ही है
सबको भिगोता भी है
जैसे पहले से ही
निश्चय कर के निकला हो
बिना छाते के घर से बाहर ।

बसंत जैसा मन !
हर पल खुशनुमा सा
एक अलग ही एहसास लिये
कुछ कहता है
अपने मन की बातें करता है
मंद हवा मे झूमता है
इठलाता है
खेतों मे मुसकुराते
सरसों के फूलों मे
जैसे देख रहा हो
अपना अक्स।

मौसम और मन
कितनी समानता है
एकरूपता है
भूकंप के जैसी
सुनामियों के जैसी
ज्वालामुखियों के जैसी
और कभी
बिलकुल शांत
आराम की मुद्रा मे
लेटी हुई धरती के जैसी

~यशवन्त माथुर©

01 November 2011

दुनिया गोल है (Post Number -250)

 (इस टाइमपास पोस्ट की शुरू की आठ लाइने  फेसबुक स्टेटस मे देने के लिए लिखी थी लेकिन बढ़ते बढ़ते यह इस ब्लॉग की 250 वीं पोस्ट बन कर यहाँ प्रस्तुत हैं। )


दुनिया गोल है
हम जहां से चलते हैं
वापस वहीं पर आना ही होता है
ठीक वैसे ही
जैसे दिन की शुरुआत
फेसबुक और ब्लॉग से होती है
और दिन का अंत भी
इसी को देखते हुए होता है

मन भटकता है कभी कभी
कुछ सोच कुछ ख्याल
की बोर्ड की
कभी मंथर कभी तेज़ गति से
स्क्रीन पर उतर आते हैं
स्याही से-
कागज़ के गंदे होने का
डायरी के भरने का
किसी काट पीट
ओवर राइटिंग का
कोई झंझट ही नहीं
सब कुछ साफ -
बेदाग सा नज़र आता है

लेकिन जब
होने लगता है
पलकों मे दर्द
चटकती हैं उँगलियाँ

चैट पर-
किसी के हैलो लिखते ही
वो थकान भी दूर हो जाती है
नए सिरे  से ऊर्जा
और गति मिल जाती है
की बोर्ड को

ठीक वैसे ही
जैसे दिन की शुरुआत के समय थी
फेसबुक और ब्लॉग पर । 

आखिर दुनिया गोल जो है :)

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