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31 July 2015

अंधेर / प्रेमचंद ( प्रेमचंद जी की जयंती पर विशेष)

1
नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं।
साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे:
साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार
और साठे के धोबी गाते:
साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार
उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार
गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में माँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियाँ होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फरीक की दुआएँ और आरजुएँ लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दांव-पेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दाँत पीसकर रह गये।

दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभी-कभी बिजली चमकती थी मगर अँधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर काली-काली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे।
मगर आबादी से बहुत दूर कई पुरशोर नालों और ढाक के जंगलों से गुजरकर ज्वार और बाजरे के खेत थे और उनकी मेंड़ों पर साठे के किसान जगह-जगह मड़ैया ड़ाले खेतों की रखवाली कर रहे थे। तले जमीन, ऊपर अंधेरा, मीलों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीं जंगली सुअरों के गोल, कहीं नीलगायों के रेवड़, चिलम के सिवा कोई साथी नहीं, आग के सिवा कोई मददगार नहीं। जरा खटका हुआ और चौंके पड़े। अंधेरा भय का दूसरा नाम है, जब मिट्टी का एक ढेर, एक ठूँठा पेड़ और घास का ढेर भी जानदार चीजें बन जाती हैं। अंधेरा उनमें जान ड़ाल देता है। लेकिन यह मजबूत हाथोंवाले, मजबूत जिगरवाले, मजबूत इरादे वाले किसान हैं कि यह सब सख्तियाँ झेलते हैं ताकि अपने ज्यादा भाग्यशाली भाइयों के लिए भोग-विलास के सामान तैयार करें। इन्हीं रखवालों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाल भी है जो अपनी मड़ैया में बैठा हुआ है और नींद को भगाने के लिए धीमें सुरों में यह गीत गा रहा है:
मैं तो तोसे नैना लगाय पछतायी रे
अचाकन उसे किसी के पाँव की आहट मालूम हुई। जैसे हिरन कुत्तों की आवाजों को कान लगाकर सुनता है उसी तरह गोपाल ने भी कान लगाकर सुना। नींद की अंघाई दूर हो गई। लट्ठ कंधे पर रक्खा और मड़ैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाथ पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोटें पड़ीं। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर ड़ाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।

गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ललकान कर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगल था। निड़र ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे संदेह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अंधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फरियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कमाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी। दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फरियाद की-हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगाजी हण्टर लेकर दौड़े और उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी हुई थी। कांसिटेबल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं। जब गाँव के सारे आदमी आ गये तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोपाल ने रपट तक न की।
मुखिया साहब बेंत की तरह कांपते हुए बोले--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी ने गजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा--यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दूँगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा--हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुंझलाकर बोले--अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। नमाज पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही मांगता!
दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबन्द थे पाँचों वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!

मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास और बोले--यह दारोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता।
गौरा ने घूँघट में मुँह छिपाकर कहा--दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रूपये-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है।
गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला--पचास रुपये की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है?
मुखिया का चेहरा फक हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले-धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए।
लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला--मैं एक कौड़ी भी न दूँगा। देखें कौन मेरे फांसी लगा देता है।
गौरा ने बहलाने के स्वर में कहा--अच्छा, जब मैं तुमसे रूपये मांगूँ तो मत देना। यह कहकर गौरा ने, जो इस वक्त लौड़ी के बजाय रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटली निकाली और मुखिया के हाथ में रख दी। गोपाल दांत पीसकर उठा, लेकिन मुखिया साहब फौरन से पहले सरक गये। दारोगा जी ने गोपाल की बातें सुन ली थीं और दुआ कर रहे थे कि ऐ खुदा, इस मरदूद के दिल को पलट। इतने में मुखिया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटली दिखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गये थे। दारोगा जी ने खुदा का शुक्र किया। दुआ सुनी गयी। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुँचाने वालों की भीड़ को रोते और बिलबिलाते छोड़कर हवा हो गये। मोदी का गला घुंट गया। कसाई के गले पर छुरी फिर गयी। तेली पिस गया। मुखिया साहब ने गोपाल की गर्दन पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम गिरह से दिए। गाँव में सुर्खरू हो गया, प्रतिष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाल ने गौरा की खूब खबर ली। गाँव में रात भर यही चर्चा रही। गोपाल बहुत बचा और इसका सेहरा मुखिया के सिर था। बड़ी विपत्ति आई थी। वह टल गयी। पितरों ने, दीवान हरदौल ने, नीम तलेवाली देवी ने, तालाब के किनारे वाली सती ने, गोपाल की रक्षा की। यह उन्हीं का प्रताप था। देवी की पूजा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी लाजिमी हो गयी।

फिर सुबह हुई लेकिन गोपाल के दरवाजे पर आज लाल पगड़ियों के बजाय लाल साड़ियों का जमघट था। गौरा आज देवी की पूजा करने जाती थी और गाँव की औरतें उसका साथ देने आई थीं। उसका घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुलाब से कम मोहक न थी। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे खुश हो-होकर दौड़ते थे। देवी के चबूतरे पर उसने मिटटी का हाथी चढ़ाया। सती की मांग में सेंदुर डाला। दीवान साहब को बताशे और हलुआ खिलाया। हनुमान जी को लड्डू से ज्यादा प्रेम है, उन्हें लड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयारियाँ होने लगीं । मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बन्दनवारें लायीं। कुम्हार नये-नये दिये और हांडियाँ दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नयी-नयी पीढ़ियाँ बनायीं। नाइन ने आंगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें बँध गयीं। आंगन में केले की शाखें गड़ गयीं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी । यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की जिन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है । लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की बेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द्र सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दाग लगा दिया है।
शाम हुई। पण्डित मोटेरामजी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आंगन में टाट बिछा हुआ था। गाँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी बजी, शंख फुंका गया और कथा शुरू हुईं। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फूंका गया और कथा शुरू हुई। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहा—सत्यनारायण क महिमा थी कि तुम पर कोई आंच न आई।
गोपाल ने अँगड़ाई लेकर कहा—सत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अंधेर है।
--जमाना, जुलाई १९१३

साभार-गद्य कोश 

30 July 2015

खामोशी ......

इस शोर में भी
कहीं सुनाई देती है
अजीब सी
खामोशी
जो अनकहे ही
कह देती है
बहुत कुछ
जो कहीं छुपा सा है
इस भीड़ में
कहीं दबा सा है
आ जाता है
सामने 
जब खामोशी
खोल देती है
अपनी जुबां
बहते सैलाब के साथ।

~यशवन्त यश©

26 July 2015

विजय .......

विजय
किसी लड़ाई में
ताकतवर की ही नहीं होती
विजय
किसी दंगल में
बलशाली की ही नहीं होती
विजय
बंदूकों -तलवारों
और तोपों से ही नहीं होती 
विजय
स्वाभिमान-आत्मविश्वास
और मन की स्थिरता से होती है
विजय 
दृढ़ निश्चय-संकल्प
और खुद की प्रतिष्ठा से होती है
विजय
खुद की आहुति
और सच्ची निष्ठा से होती है। 

~यशवन्त यश©

25 July 2015

जब नहीं होता कुछ नया कहने के लिए

जब नहीं होता
कुछ नया कहने के लिए 
तब हम देखने लगते हैं
पुरानी
बीत चुकी बातों को
फिर से एक बार
खोजने लगते हैं
उन्हीं में से
कुछ नया
अपने मतलब का
और पिरो लेते हैं
एक माला
कई पुरानी बातों के
कुछ हिस्सों को मिला कर
बना देते हैं
कुछ नया सा
जब नहीं होता अपने पास
कुछ कहने के लिए।

~यशवन्त यश©

23 July 2015

सितारों से आगे की उलझन - हरजिंदर, हेड-थॉट, हिन्दुस्तान


वैज्ञानिकों की सोच के भी दौर चलते हैं। कुछ वैसे ही, जैसे सभ्य समाजों में फैशन के चलते हैं। आज जो आमतौर पर सोचा जा रहा है, कल भी वैसे ही सोचा जाएगा, यह जरूरी नहीं है। अभी कुछ दशक पहले की ही बात करें, तो ज्यादातर वैज्ञानिक यह मानकर चलते थे कि जीवन अगर कहीं है, तो धरती पर ही है। इस सोच के पीछे यह धारणा थी कि हमारे ग्रह पर जो जीवन है, वह अतीत की तमाम रासायनिक दुर्घटनाओं का परिणाम है। यह एक लंबी और जटिल प्रक्रिया से उपजा है। जो रासायनिक दुर्घटनाएं और जटिल प्रक्रियाएं इस धरती पर हुई हैं, वैसी ही दुनिया में कहीं और भी हुई हों, इसकी संभावना लगभग नहीं है। एक सर्वेक्षण हुआ था, जिसमें पाया गया था कि ज्यादातर वैज्ञानिक यह नहीं मानते कि ब्रह्मांड में कहीं और भी जीवन होगा। हालांकि मामला उनके मानने या न मानने का नहीं था, अनंत आकाश रहस्यमय चमक के लिए तरह-तरह की कल्पनाएं बुनना हमारी पुरानी फितरत रही है। इस फितरत ने न सिर्फ कल्पना और कथा लोक को बुना है, बल्कि यह हमारे धर्मों और पुराणशास्त्र का भी हिस्सा रहा है। लेकिन वैज्ञानिक इससे ज्यादा आगे नहीं सोचते थे। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिक डेविड मोरिसन यहां तक कहते थे कि दूसरे ग्रह के वासी सिर्फ कल्पना का नतीजा हैं, और कुछ नहीं।

इसलिए, अभी तीन माह पहले ही नासा के प्रमुख वैज्ञानिक एलेन स्टेफने ने जब यह दावा किया कि वैज्ञानिक अगले दस साल में दूसरे ग्रह के वासियों यानी एलियन को ढूंढ़ निकालेंगे, तो हर किसी को हैरत हुई थी। लेकिन अब ऐसा लगता है कि वैज्ञानिक समुदाय के ज्यादातर लोग  एलियन के अस्तित्व पर नहीं, तो उसकी संभावनाओं पर जरूर यकीन करने लगे हैं। दिलचस्प यह है कि इसमें संभावनाएं सिर्फ वैज्ञानिकों को नहीं, उद्योगपतियों को भी नजर आने लगी हैं। बात सिर्फ  इतनी ही नहीं है, वैज्ञानिकों और उद्योगपतियों ने मिलकर एलियन को खोजने के लिए करोड़ों डॉलर की एक परियोजना भी शुरू कर दी है, जिसमें एक तरफ प्रख्यात वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग शामिल हैं, तो दूसरी तरफ रूसी अरबपति यूरी मिलनर। सारे तर्क अब अचानक ही बदल गए हैं। अब कहा जा रहा है कि ब्रह्मांड में चार अरब से ज्यादा ग्रह-उपग्रह मौजूद हैं, जिनमें लगभग चार करोड़ तो ऐसे हैं ही, जहां जीवन लायक स्थितियां हो सकती हैं। और हो सकता है कि इनमें से किसी में कुछ जीवाणु, कुछ कीटाणु या किसी और तरह के जीव-जंतु सांसें ले रहे हों। फिर वह कल्पना तो खैर है ही कि हो सकता है कि हम किसी ऐसी दुनिया को भी खोज लें, जहां के लोग हमसे ज्यादा बुद्धिमान हों, या हमसे ज्यादा खतरनाक हों। या हो सकता है कि कहीं ऐसी सभ्यता भी हो, जो हमसे कहीं ज्यादा विकसित हो, और आज हम जिन समस्याओं में सिर खपा रहे हैं, उनके हल वह बहुत पहले ही तलाश चुकी हो।
शायद इस सोच के बदलने के पीछे एक कारण और भी है। धरती के भविष्य को लेकर आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। ज्यादातर वैज्ञानिक मानते हैं कि लगातार गरम होती धरती ग्लोबल वार्मिंग की ओर बढ़ती जा रही है, कुछ थोड़े-से ऐसे भी हैं, जो मानते हैं कि धरती पर हिमयुग भी वापस आ सकता है। जो भी हो, अगर पर्यावरण बदला, तो धरती का मौसम उतना सुहाना तो नहीं ही रहेगा, जितना सुहाना वह अब है। हो सकता है कि वह रहने लायक ही न रहे। स्टीफन हॉकिंग मानते हैं कि ऐसे में मानव जाति को बचाने का एक ही तरीका होगा कि आपात स्थितियों में हम सब किसी उस ग्रह पर जाकर बस जाएं, जहां के हालात हमारे अनुकूल हों। इसलिए अभी से ऐसे ग्रहों की खोज बहुत जरूरी है। जाहिर है, यह अपनी पूरी दुनिया को, यानी अपने शहर, अपने घर, अपने स्कूल, अपने उद्योग दूसरी जगह बसाने का मामला है, इसलिए इसमें उद्योगपतियों की दिलचस्पी को भी समझा जा सकता है।

ये उद्योगपति क्या सोच रहे हैं, यह तो पता नहीं है, लेकिन वैज्ञानिक कम-से-कम इतना तो जानते ही हैं कि यह काम आसान भी नहीं है। पूरे ब्रह्मांड के हिसाब से देखें, तो हमारे सौर्य मंडल का लाल ग्रह, यानी मंगल धरती से बहुत दूर भी नहीं है, लेकिन मंगल पर जीवन है या नहीं, इसे समझने के लिए हम कई दशक से जुटे हैं, लेकिन अभी तक कुछ भी जान नहीं सके। हर बार जितना जान पाते हैं, पहेली उससे ज्यादा उलझ जाती है। यह बात अलग है कि जितना ज्ञान अभी तक है, उसके आधार पर ही वहां लोगों को ले जाने की शटल सेवा चलाने, प्लॉट काटकर बेचने और बस्ती बसाने का धंधा कुछ लोगों ने जरूर शुरू कर दिया है। इन सबसे अलग यह एक लंबा और कठिन काम है, इसके लिए निरंतर भगीरथ प्रयत्न और बड़े निवेश की जरूरत है। जीवन को खोजने में हम सफल हो पाते हैं या नहीं यह एक अलग बात है, लेकिन इस कोशिश से हम अपने ब्रह्मांड को और खुद अपने आप को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकेंगे। और शायद उन कुछ पहेलियों को भी सुलझा लें, जो अक्सर हमें परेशान करती रहती हैं। लेकिन एक सवाल इस खोज से भी ज्यादा बड़ा है। हो सकता है कि हम सचमुच एलियन को खोज लें, या हो सकता है कि हम अंतिम रूप से इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि इस धरती के अलावा कहीं और जीवन नहीं है।

ऐसे में, उस कल्पना लोक, उस कथा लोक, उन सांस्कृतिक मिथकों का क्या होगा, जिनको मानव ने अपनी सभ्यता की अभी तक की यात्रा में बुना और गुना है? क्या ऐसी एक खोज सब कुछ खत्म कर देगी? हमारे कल्पना लोक, हमारे पुराण शास्त्र भी मानवीय प्रयासों के उतने ही महत्वपूर्ण परिणाम हैं, जितना कि हमारा विज्ञान। शायद यह आशंका सही नहीं है, क्योंकि विज्ञान का अभी तक का अनुभव तो यही बताता है कि कोई भी सच जब सामने आता है, तो अपने साथ शक और शुबहों की बहुत सारी नई गंुजाइश भी लाता है। हर बार नए उजागर हुए सच से विज्ञान को खड़े होने का नया आधार जरूर मिलता है, पर इसके साथ ही हमारे कल्पना लोक को उड़ान भरने का एक नया आसमान भी मिलता है।

सच के साथ ही जुड़ा हुआ एक सच यह भी है कि सच से अक्सर तुरंत ही सोच बदलती नहीं है, बस हर तरह की सोच आगे बढ़ती है। यह जरूर है कि धीरे-धीरे बहुत-सी सोच और धारणाएं लुप्त होने लगती हैं, धारणाओं की दुनिया में प्रगति ऐसे ही होती है। कोई एलियन इसे रातोंरात नहीं बदल सकता।

साभार-'हिंदुस्तान' 22/07/2015 

22 July 2015

इंटरव्यू में पर्सनालिटी टेस्ट ही हो नाकि इनफार्मेशन टेस्ट--नवनीत सिकेरा

नवनीत सिकेरा (I.G.UP Police)
"सबसे पहले मंदिर जाकर माथा टेकूँगा कि इस लांछन से मुक्ति मिली"
एक इंटरव्यू में , मैं बोर्ड मेंबर की हैसियत से बैठा था , मैंने महसूस किया कि बोर्ड मेंबर्स प्रतियोगी छात्र से एक से एक कठिन प्रश्न पूछे रहे हैं और जब वह जवाब नहीं दे पाता है तो बड़ी शान से मेंबर एक दूसरे को , शायद ये बताने के लिए देखो मैं कितना स्मार्ट हूँ , और ये आज कल के लड़के , इनको कुछ नहीं आता । मैं बिलकुल नहीं समझ पा रहा था कि जब लिखित परीक्षा हो चुकी है तब फिर से इन लोगों का विषय का ज्ञान या सामान्य ज्ञान पर साक्षात्कार क्यों हो रहा है । साक्षात्कार यानि पर्सनालिटी टेस्ट
प्रश्न: "स्वेज़ कैनाल की लम्बाई कितनी है"
पहला प्रतियोगी : "193.3 Km " , वेरी गुड
दूसरा प्रतियोगी : " सर नहीं पता " .... इतना भी नहीं पता 


मैं देख रहा था कि पहले प्रतियोगी को अच्छे मार्क्स मिल रहे हैं , और ये मेरी समझ से परे था कि अगर किसी प्रतियोगी को एक प्रश्न का उत्तर पता हो तो उसकी पर्सनालिटी अच्छी हो गयी , और अगर नहीं आता है तो पर्सनालिटी ख़राब हो गयी । मुझे तो अपनी ही पर्सनालिटी पर संदेह होने लगा था ।
खैर जब दूसरा प्रतियोगी आया तो मैंने भी कमर कास ली । इस प्रतियोगी को देखकर ही लग रहा था कि पहली बार ही टाई बाँधी है और किसी किसान का लड़का लग रहा था । इस लड़के ने बड़े विश्वास के साथ बोर्ड का सामना किया अब फिर वही प्रश्न स्वेज़ नहर की लम्बाई कितनी है , लड़के ने कुछ सोचा और बोला " सर नहीं पता " और बोर्ड मेंबर के चेहरे पर हलकी सी मुस्कान तैर गयी । मैंने उस लड़के से पूछा गूगल यूज़ करते हो , वह बोला " जी सर करता हूँ " तब मैंने कहा कि अपना जवाब थोड़ा सा बदल कर दो कहो " सर इस वक़्त याद नहीं है , लेकिन गूगल से तुरंत पता कर लूँगा " फिर मैंने उससे कई सिचुएशंस बताई और उसकी राय जानी की अगर ऐसी स्थिति हो तब क्या निर्णय लोगे और वैसी स्थिति में क्या करोगे । उसने शानदार तरीके से अपनी बात को रखा । पूरा बोर्ड भी उससे प्रभावित हुआ । मैंने आखिरी प्रश्न पूछा की अगर ये जॉब तुमको मिल जाये तो सबसे पहला काम क्या करोगे ? उसने कहा "सर सबसे पहले मंदिर जाकर माथा टेकूंगा कि इस लांछन से मुक्ति मिली ," कि करते क्या हो ?" नस्तर की तरह चुभता है ये सवाल और ये कहते कहते उसकी आँखे भर आयीं "
फिर जाते जाते मैंने उससे पुछा टाई तुमने खुद बाँधी है तो उसने बड़ी ईमानदारी से कहा " सर जिन्दगी में पहली बार टाई पहनी है , एक परिचित से बंधवाई है "
इस लड़के को इंटरव्यू में अच्छे मार्क्स मिले थे अब उसको जॉब मिला या नहीं मिला नहीं कह सकता , लेकिन हाँ मेरे दो तीन दिन बोर्ड में गुजारने से बोर्ड मेंबर्स का नजरिया जरूर बदला , आशा करता हूँ कि इंटरव्यू में पर्सनालिटी टेस्ट ही हो नाकि इनफार्मेशन टेस्ट।

~आदरणीय  सिकेरा जी की फेसबुक वॉल से साभार~

21 July 2015

कुछ लोग -24

कुछ लोग
जो कभी
अनजान होते हैं
अचानक ही
बन जाते हैं
इतने खास
कि उनके
सुख और दुख
लगने लगते हैं
अपने से .....
और कुछ लोग
जिन्हें हम जानते हैं
लंबे समय से
जुड़े रहते हैं जो
हमसे
अचानक ही
लगने लगते हैं
अनजान
सिर्फ अपने
व्यवहार की वजह से।


~यशवन्त यश©

18 July 2015

वक़्त के कत्लखाने में-11

वक़्त के कत्लखाने में
जल जल कर
स्वाहा होता मन
बस कुछ
ठंडी  बौछारों की
तमन्ना लिए
झुलसता रहता है
सैकड़ों तंज़ के
बोझ को
ढोते हुए
क्योंकि यही
उसकी नियति है
हर पल 
करना अनुभव
स्वर्ग और नर्क को
यहीं इसी जगह
इसी
वक़्त के कत्लखाने में ।

~यशवन्त यश©

17 July 2015

नहीं चाहता....

बीत चुके जो नज़ारे
फिर देखना नहीं चाहता ।
कह जो दिया एक बार
फिर कहना नहीं चाहता ।
मुझे पता है
क्या तुम्हारे मन में है
और क्या मेरे मन में है 
मन के मान जाने के बाद
फिर और मनाना नहीं चाहता।

~यशवन्त यश©

16 July 2015

रोटी बैंक...... फिरदौस खान


इंसान चाहे, तो क्या नहीं कर सकता. उत्तर प्रदेश के महोबा ज़िले के बाशिन्दों ने वो नेक कारनामा कर दिखाया है, जिसके लिए इंसानियत हमेशा उन पर फ़ख़्र करेगी. बुंदेली समाज के अध्यक्ष हाजी मुट्टन और संयोजक तारा पाटकर ने कुछ लोगों के साथ मिलकर एक ऐसे बैंक की शुरुआत की है, जो भूखों को रोटी मुहैया कराता है.
बीती 15 अप्रैल से शुरू हुए इस बैंक में हर घर से दो रोटियां ली जाती हैं. शुरू में इस बैंक को सिर्फ़ 10 घरों से ही रोटी मिलती थी, लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता इनकी तादाद बढ़ने लगी और अब 400 घरों से रोटियां मिलती हैं. इस तरह हर रोज़ बैंक के पास 800 रोटियां जमा हो जाती हैं, जिन्हें पैकेट बनाकर ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाया जाता है. इस वक़्त 40 युवा और पांच वरिष्ठ नागरिक इस मुहिम को चला रहे हैं.
शाम को युवा घर-घर जाकर रोटी और सब्ज़ी जमा करते हैं. फिर इनके पैकेट बनाकर इन्हें उन लोगों को पहुंचाते हैं, जिनके पास खाने का कोई इंतज़ाम नहीं है. पैकिंग का काम महिलाएं करती हैं. इस काम में तीन से चार घंटे का वक़्त लगता है. फ़िलहाल बैंक एक वक़्त का खाना ही मुहैया करा रहा है, भविष्य में दोनों वक़्त का खाना देने की योजना है.
इस नेक काम में लगे लोग बहुत ख़ुश हैं. अगर देशभर में इस तरह के रोटी बैंक खुल जाएं, तो फिर कोई भूखा नहीं सोएगा.

रोटी बैंक का हेल्पलाइन नंबर
9554199090
8052354434

~फिरदौस खान जी की फेसबुक वॉल से साभार  ~
 .

कहीं ......

कहीं
महलों में आबाद
इंसानी बस्तियाँ हैं

कहीं
झोपड़ों में पलती
कई ज़िंदगियाँ हैं

कहीं
फेंक दी जाती है
जूठन
सड़कों के किनारों पर

कहीं
उसी जूठन से
दो जून की
मस्तियाँ हैं

कहीं
चांदी की तश्तरी में
गोश्त और बोटियाँ हैं

कहीं
मरियल सी हथेली में
बेजान सी रोटियाँ हैं

ये 'कहीं'
हर कहीं
रोज़ की खुशियाँ और गम

कहीं
थोड़ा ज़्यादा  होता है
और कहीं थोड़ा कम  ।

~यशवन्त यश©

15 July 2015

नवनीत सिकेरा हाज़िर हो

ब भी कोर्ट आना होता है कोई न कोई अनुभव साथ जुड़ जाता है और भगवान पर विश्वास और बढ़ जाता है । अभी हाल में ही एक केस के सिलसिले में मुझे कोर्ट जाना पड़ा । मुझे उस केस में आरोपियों के विरुद्ध गवाही देनी थी । पूरा जोर लगा लिया दिमाग पर , पर याद ही नहीं आया की केस कौनसा था । अब कहाँ से याद आये 15 साल पुराना केस कहाँ से याद आये । अब आज के मोबाइल के ज़माने में 15 दिन पुरानी बात तक याद रहती नहीं 15 साल पुरानी कहाँ से कैसे याद रखूँ । अभी हाल मैं अपनी माँ से बात करनी थी मोबाइल की बैटरी ख़त्म थी , तब अहसास हुआ कि माँ का मोबाइल नंबर तक याद नहीं है यकीन मानिये बहुत छोभ हुआ । पर वकील साहब पूछ रहे थे कि बताइये पीड़ित के घर का दरवाजा उत्तर में था या दक्षिण में , तुरंत जेब में हाथ गया सोचा मोबाइल से देखूँ , तभी ख़याल आया भाई साहब कोर्ट का दरवाजा नहीं पूछ रहे थे । तभी किसी बात पर वकील साहब लोगों में बहस शुरू हो गयी और मैंने महसूस किया बहस काबिलियत या तथ्यों पर कम , आवाज़ की बुलंदी और अंग्रेजी पर ज्यादा आधारित थी । अक्सर महसूस किया है किसी डिबेट या बहस में किसी का पॉइंट कमजोर पड़ता है तो वह अंग्रेजी फेंकना शुरू कर देता है , की जैसे अंग्रेजी में पानी को वाटर कह दिया तो अब पानी शुद्ध हो गया पीलो मिनरल वाटर समझ के , भाई अंग्रेजी में बोल रहा है । पता नहीं कब मुक्ति मिलेगी इस मानसिक दासता से । लेकिन चलते चलते मैंने अपने मोबाइल से कोर्ट के दरवाजे की दिशा पता कर ली पता नहीं कब काम आ जाये। 

- नवनीत सिकेरा -

(लेखक उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं।)

~आदरणीय सिकेरा जी के आधिकारिक फेसबुक पेज से साभार~

बचपन के दिन .....

वो बचपन के दिन
जो बसे हैं
सिर्फ यादों में
कभी कभी
आ जाते हैं सामने
जब देखता हूँ
अपने जैसे ही
किसी शरारती
बच्चे को
गुजरते हुए
सामने की सड़क से
या
किसी पार्क में
खेलते हुए
झूला झूलते हुए
बरसात में भीगते हुए
या अपनी किसी ज़िद में
रोते हुए .....
यह बचपन
यह दिन
यह यादें
और यह अनोखी बातें
कहीं ज़्यादा
कीमती होती हैं
सोने-हीरे के गहनों से
क्योंकि यह दिन
नहीं आ सकते वापस
एक बार
बीत जाने के बाद। 

~यशवन्त यश©

14 July 2015

कुछ लोग-23

कुछ लोग
बहुत अजीब होते हैं
कभी
खुल कर
बयान करते हैं
अपने जज़्बात
कभी बरसों के
अनजान बन कर
कहीं खो जाते हैं
गुमसुम
असहाय से
कर लेते हैं
खुद को कैद
गहरी खामोशी में
बंद पलकों के भीतर
कुछ लोग
सिर्फ अपने ही
बहुत करीब होते हैं
कुछ लोग 
बहुत अजीब होते हैं। 

~यशवन्त यश©

13 July 2015

नया-पुराना .....

कुछ नये की
तलाश में
रोज़ पलटता हूँ
अखबारों
और पत्रिकाओं के पन्ने
लेकिन
पाता  हूँ
वही सब कुछ
खबरें
कहानियाँ
लेख
कविताएं
और विज्ञापन
जो अपने
नये कलेवर में
तलाशते हैं
वही पुराने
पाठक
और खरीददार
जिनकी
पसंद-नापसंद 
हर पल
बदलती रहती है
अपने रंग
बिना रुके
बिना थके
नये और
पुराने का खेल 
हर बार 
खुद को दोहराता है
सुबह
और शाम की तरह।

~यशवन्त यश©

12 July 2015

अनजान सी जगहों पर

बस यूं ही
चलते चलते
आ पहुँचते हैं हम
अनजान सी
जगहों पर
जहां
कुछ भी
नहीं होता अपना
सिर्फ
खुद के सिवा ....

उन अनजान सी
जगहों पर 
बेशक
समय होता है
खुद को
जानने
मानने
पहचानने 
और समझने का
फिर भी बनी रहती है
असहजता
देखने में
खुद का अक्स
किसी दर्पण में
अनजान सी
जगहों पर । 
 
~यशवन्त यश©

11 July 2015

वक़्त के कत्लखाने में -10

मेरे भीतर
ये सांसें
जो चल रही हैं
अभी तक
निर्बाध
अपनी गति से
आखिर थमेंगी ही
एक न एक दिन
अपना समय आने पर
रुकेंगी ही
बिना कुछ कहे
यूं ही मौन
कई अधूरी
इच्छाओं को 
साथ लिए
कहीं उड़ चलेंगी
किसी नये आशियाने में
फिर किसी और
वक्त के कत्लखाने में
गुनहगार बनने
अनकही
अनजानी
अनसुनी
बातों का।

~यशवन्त यश©

10 July 2015

यूं ही भटकते भटकते......

बेतरतीब
भटकते भटकते
चलते चलते
इन गलियों में
थक हार कर
बैठ कर
कुछ सोच कर
उठ कर
चल कर
मंज़िल के 
करीब आने तक 
पता नहीं क्यों 
फिर गुम हो जाता हूँ
एक नयी
भूलभुलैया में  ।


~यशवन्त यश©

09 July 2015

सच

सच
हमेशा सच ही रहता है
झूठ के मुखौटे
नहीं बदल सकते
कभी उसका
असली रूप ।

सच
हर हाल में
सामने
आ ही जाता है 
कभी समय रहते
कभी समय बीतने के बाद ।

सच
कभी रुला देता है
खुशी-गम के आँसू
बिखरा देता है
और कभी
जीवन भर का
नासूर बन कर
रिसता रहता है
चाहे-अनचाहे।

~यशवन्त यश©

08 July 2015

जैसे यह यूपीए-तीन की सरकार हो --आरती आर जेरथ, वरिष्ठ पत्रकार


व्यापमं कोई पहला घोटाला नहीं है, और न ही यह भारत की राजनीति को झटका देने वाला शायद अंतिम घोटाला हो। लेकिन तमाम दूसरे घोटालों से यह इस मायने में अलग है कि इसमें मरने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब तक, इस घोटाले से जुड़े लगभग 45 लोगों की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो चुकी है। ये सब या तो घोटाले से फायदे कमाने वाले लोग थे, या बिचौलिए थे। कम से कम दो मामलों में पुलिस की छानबीन में मदद कर रहे लोगों की मौत हुई है। राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान इस तरफ तब गया, जब एक प्रतिष्ठित टीवी चैनल के पत्रकार की रहस्यमय तरीके से मौत हुई। वह पत्रकार एक मेडिकल छात्रा के पिता के साक्षात्कार के लिए मध्य प्रदेश गया था, जिसे घोटाले का लाभ मिला था और तीन साल पहले रेलवे पटरी के करीब उसकी लाश मिली थी। पुलिस का कहना है कि पत्रकार की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई, लेकिन वह युवा पत्रकार सिर्फ 38 साल का था और दिल की बीमारी का उसका कोई ज्ञात इतिहास भी नहीं था।

इस घोटाले से जुड़ी सभी मौतें रहस्यमयी और अस्वाभाविक तरीके से हुई हैं, बल्कि विचित्र तथ्य यह है कि व्यापमं घोटाले की जांच करने वाली एसटीएफ टीम या पुलिस एक भी केस की तह तक नहीं पहुंच पाई। सभी मौतों को या तो स्वाभाविक या आत्महत्या या फिर सड़क दुर्घटना के तौर पर देखा गया। ये मौतें क्या इत्तफाक हैं या हत्याकांड या फिर दोनों? मौत के आंकड़े बढ़ रहे हैं और अब किसी अन्य की मौत से पहले लोगों को जवाब चाहिए। अच्छी बात यह है कि अपने पुराने रुख से पलटते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सीबीआई जांच की मांग स्वीकार कर ली है।

उन्होंने कहा है कि वह सीबीआई जांच की सिफारिश करेंगे। जरूरी यह है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक स्वतंत्र जांच हो, जिससे यह जन-संदेश जाए कि जांच के नतीजे किसी भी तरह से प्रभावित नहीं हैं, न कि यह एहसास हो कि एक सरकारी एजेंसी ने यह जांच की है। व्यापमं घोटाले से कई मुद्दे उभरते हैं। पहला, यह भाजपा के भ्रष्टाचार-विरोधी घोषणा-पत्र की असलियत को उजागर करता है। वरिष्ठ भाजपा नेता, उनके सहयोगी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई नेता और नौकरशाह, इस कई करोड़ के घोटाले में आरोपी हैं, जिसमें सरकारी नौकरियों में भर्ती और मेडिकल कॉलेजों के लिए छात्रों के चयन को ताकतवर माफिया-तंत्र द्वारा संचालित किया गया। शायद यह अब तक का सबसे बड़ा संगठित अपराध है, हालांकि पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में भी इस तरह के भर्ती-घोटाले हुए हैं। लेकिन व्यापमं घोटाला उन सबको इसलिए पछाड़ देता है, क्योंकि एक तो घपला बड़े पैमाने पर हुआ और फिर यह कई वर्षों तक चलता रहा।

भ्रष्टाचार के आरोप मुख्यमंत्री के दफ्तर तक ही नहीं पहुंचे, बल्कि इसमें मुख्यमंत्री और उनकी पत्नी के नाम भी आए। मुख्यमंत्री के सचिव भी संदिग्ध हैं। घोटाले का यह झटका इसलिए भी बड़ा है, क्योंकि चौहान को भाजपा का आदर्श मुख्यमंत्री माना जाता रहा है और एक समय में कई लोगों को वह भावी प्रधानमंत्री के रूप में दिख रहे थे। उन्हें साफ, ईमानदार और सरल इंसान के तौर पर देखा जाता था, जिसने मध्य प्रदेश को 'बीमारू' राज्य के दर्जे से निकालकर, उसको भारत में सबसे तेजी से विकास करने वाले प्रदेशों की कतार में पहुंचाया। चौहान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आंख के भी तारे हैं, जो मध्य प्रदेश सरकार को निगलते इस स्कैंडल पर रहस्यमयी खामोशी धारण कर चुका है। देखा जाए, तो व्यापमं ने संघ के इस दावे को नुकसान पहुंचाया है कि उसके द्वारा प्रशिक्षित मजबूत नेतृत्व सुशासन देने की क्षमता रखते हैं।

दूसरा, व्यापमं घोटाला कई तरह से 2-जी या यहां तक कि बोफोर्स घोटाले से बदतर है। दरअसल, इसमें धांधली के महज चौंकाने वाले आंकड़े नहीं हैं, जैसे बोफोर्स में कहा जाता है कि 64 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ या 2-जी में 1,78,000 करोड़ रुपये की गड़बड़ी हुई। मेडिकल प्रवेश परीक्षा या सरकारी भर्ती में फर्जीवाड़ा समान अवसरों के साथ योग्यता-आधारित तंत्र के निर्माण की उम्मीद को नष्ट करता है। हजारों नौजवान छात्रों और रोजगार तलाशते लोगों के लिए इससे बुरी चीज क्या हो सकती है कि उनकी कड़ी मेहनत व वर्षों की पढ़ाई कोई मायने नहीं रखती, क्योंकि कॉलेज में दाखिला और सरकारी नौकरी पैसों के दम पर खरीदी जा सकती है।

राजीव गांधी को उस तोप की घूसखोरी के आरोप ने अर्श से फर्श पर पहुंचा दिया गया, जिसने कारगिल युद्ध में जीत दिलाई। 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में पक्षपात के जरिये देश को आर्थिक नुकसान पहुंचाने के आरोप में कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को सत्ता से जाना पड़ा। उस आक्रोश में यह तक भुला दिया गया कि देश में मोबाइल कॉल सस्ती बनी रही, क्योंकि संप्रग सरकार ने 2001 में तय बेस रेट में कोई बदलाव नहीं किया।

वहीं दूसरी तरफ, व्यापमं घोटाला सीधे आम आदमी को चोट पहुंचाता है, खासतौर पर उन युवाओं को, जिन्हें हमारी आबादी का सबसे बड़ा तबका बताया जाता है। ऐसे में, क्या एक नौजवान उस व्यवस्था के प्रति अब कोई आस्था रख सकता है, जो भ्रष्टाचार में डूबी है और उसमें आसानी से हेराफेरी की जा सकती है? मध्य प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों से पास डॉक्टरों की योग्यता या फिर व्यापमं के जरिये नियुक्त पुलिस जवानों और सरकारी बाबुओं की क्षमता या ईमानदारी के बारे में सोचकर भी डर लगता है। विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रों के समूह में अपनी जगह पक्की करने के लिए आगे बढ़ने की बजाय व्यापमं जैसे घोटाले हमें सिर्फ अंधकार व नाउम्मीदी की ओर ले जाते हैं।

वरिष्ठ भाजपा नेताओं के कदाचार के मामले पिछले कुछ हफ्तों से लगातार उजागर हो रहे हैं, जो कि चुनाव से पहले की नरेंद्र मोदी की छवि को फीका करते हैं। ललित मोदी जैसे विवादास्पद शख्स के साथ सुषमा स्वराज व वसुंधरा राजे की 'ललितगेट' में संदेहपूर्ण संलिप्तता है। इसके अलावा, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस और गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू का गुस्सा दिलाने वाला वीवीआईपी बर्ताव, महाराष्ट्र की मंत्री पंकजा मुंडे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप, और अब जटिल होता व्यापमं घोटाला भी लोगों के सामने है, जिसमें मृतकों की तादाद बढ़ रही है। यह सब कुछ भाजपा शासन में नए कल के भरोसे को तोड़ता है।
इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी और दृढ़ता से कदम न उठाना, इस सरकार को यूपीए-तीन जैसा बना देता है। मतदाताओं ने उन्हें इसके लिए तो नहीं चुना। यह भी गौरतलब है कि तीन दशकों में किसी राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिला था, तब लोगों ने उन्हें स्पष्ट जनादेश दिया। इसलिए उन्हें कदम उठाना चाहिए। जांच को सीबीआई के हवाले करना व सर्वोच्च न्यायालय से निगरानी का अनुरोध करना, एक अच्छा कदम होगा।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं) 

साभार-'हिंदुस्तान'08/07/2015 

कुछ लोग-22

कुछ लोग
सिर्फ याद रखते हैं
अपना आज
और आज में ही
खोए रहते हैं
भूल कर
अपना बीता कल ....
स्वाभिमान से
अभिमान की ऊंचाई से
और ऊंचे उड़ते
कुछ लोग 
जब अचानक
गिरते हैं
तब मुश्किल होता है
उनके लिए
मिटाना 
नाम के आगे लगे
प्रश्न चिह्नों को ।

~यशवन्त यश©

07 July 2015

क्योंकि हम इंसान हैं

न जाने क्यों
कभी कभी
हम एक अजीब सी
बेचैनी में जीते हैं
भारी
और उदास पलों में
कड़वे घूंट पीते हैं
फिर भी
चलते रहते हैं
अपनी राह
हर पुराने दौर को
भूल कर
क्योंकि
हम इंसान हैं।

~यशवन्त यश©

06 July 2015

जब भी देखता हूँ तस्वीरों को .........

जब भी देखता हूँ
कहीं दीवार पर
टंगी तस्वीरों को
उनके इतिहास को
पढ़ कर
समझने की
कोशिश करता हुआ
बस यही सोचता हूँ
कि क्या 
एक दिन
मैं भी
टांग दिया जाऊंगा
गर्द भरी
किसी दीवार पर
या रह जाऊंगा
 'अज्ञात'
अपने आज की तरह। 
 
~यशवन्त यश©

05 July 2015

इतने लोगों की भीड़ में .....

इतने लोगों की भीड़ में
कोई आता है
कोई जाता है
खामोशी से
और कोई
पहचान में आता है
चेहरे की शोख़ी से ।

कुछ तेज़ाब से झुलसे चेहरे
कुछ घोर काले
विकृत से चेहरे
अजीब से भले ही लगते हों
पर इन चेहरों से परे
एक अलग सी दुनिया में
उनके भीतर का दिल भी
कुछ  ख्वाब सुंदर से सजाता है ।

इतने लोगों की भीड़ में
कोई खुद से पहचान में आता है
जब अपनी ही नज़रों में
कोई खुद को पहचान पाता है।

~यशवन्त यश©

04 July 2015

दोहराव

यह मुमकिन है
कि कुछ बातें
रह जाती हैं
कहने से
यह मुमकिन है
कि कुछ बातें
रह जाती हैं
सुनने से
और फिर भी
कुछ बातें
दोहराती हैं
खुद को
एक नहीं
कई बार
बार-बार
अपने पहले जैसे
रूपों में
आती रहती हैं
सामनेक्योंकि
यह दोहराव ही
जीवन है
और 
जीवन का
अंग है।

~यशवन्त यश©

03 July 2015

नए सपने पुराने तंत्र के हवाले--हरजिंदर हेड-थॉट, हिन्दुस्तान

डिजिटल इंडिया अभियान कैसे भारत का निर्माण करेगा, यह अभी हम नहीं कह सकते, लेकिन नौकरशाही ऐसे अभियानों का कैसा हश्र कर सकती है, इसकी भूमिका कुछ हद तक दूरसंचार विभाग की एक कमेटी ने पहले ही लिख दी है। नेट तटस्थता पर बनी इस समिति ने अपनी रिपोर्ट ने कहा है कि व्हाट्सएप, बाइबर और स्काइप जैसी  इंटरनेट के जरिये बातचीत वाली सेवाओं को अगर भारत में काम करना है, तो उन्हें इसके लिए लाइसेंस लेना होगा। यह सिफारिश नेट तटस्थता के सिद्धांत के खिलाफ तो जाती ही है, साथ ही भविष्य की कई उम्मीदों और दरवाजों को बंद करने वाली है। यह मुद्दा तो खैर है ही कि अगर कोई इंटरनेट सेवा के लिए पैसे खर्च कर रहा है, तो वह उसका इस्तेमाल किस तरह से करता है और उसके जरिये अपने खर्च में कमी करने के कौन-कौन से जुगाड़ करता है, इसे पूरी तरह उसी पर छोड़ दिया जाना चाहिए। यह बात भी समझी जा सकती है कि इससे टेलीफोन सेवा देने वाली कंपनी के मुनाफे पर असर पड़ सकता है, लेकिन इसमें सरकार को दिक्कत क्यों है, यह बात आसानी से समझ में नहीं आती। इससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि स्मार्टफोन के जरिये हर रोज नई संभावनाएं सामने आ रही हैं, इनमें से कुछ ऐसी भी होंगी, जिनका मौजूदा सेवाओं पर असर पड़ेगा, तो क्या हम हर बार पुरानी सेवाओं और तकनीक को बचाने के लिए नई संभावनाओं का रास्ता यूं ही रोकते रहेंगे?
ऐसा ही एक दूसरा उदाहरण वाई-फाई सेवा का है। देश में कई जगह सार्वजनिक वाई-फाई सेवा शुरू हो चुकी है। अगले कुछ समय में इसका बहुत तेजी से विस्तार होना है- स्टेशनों, हवाई अड्डों, पर्यटन स्थलों, राजमार्गों वगैरह के लिए कई योजनाओं पर काम शुरू हो चुका है। दिल्ली सरकार तो पूरी दिल्ली में ही मुफ्त वाई-फाई सेवा देने का ऐलान कर चुकी है। देश को नए दौर में ले जाने में ऐसी चीजें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। पर लोगों के लिए यह सेवा किसी काम की न रह जाए, इसके लिए  नौकरशाही ने कमर कस ली है। सेवा शुरू होने से पहले ही हर जगह यह बताया जा रहा है कि सार्वजनिक वाई-फाई का इस्तेमाल आप सोशल मीडिया के लिए नहीं कर सकेंगे, आप इससे ई-मेल नहीं भेज सकेंगे, सार्वजनिक वाई-फाई से नेट सर्फिंग नहीं हो सकेगी। तो फिर सार्वजनिक वाई-फाई किस मर्ज की दवा होगी? तो क्या इसका इस्तेमाल सिर्फ मन की बात सुनने के लिए ही हो सकेगा?

बेशक, डिजिटल इंडिया के लिए जो योजनाएं बनाई गई हैं, वे काफी आकर्षक भी हैं और महत्वपूर्ण भी- ई-अप्वॉइंटमेंट से लेकर ई-लॉकर और ई-बस्ता तक। समस्या इन योजनाओं में नहीं है, समस्या उस तंत्र को लेकर है, जिसके हवाले इन योजनाओं को कर दिया जाएगा। अभी इन योजनाओं को लोगों के लिए सुविधा की तरह पेश किया जा रहा है, लेकिन कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में ये नई असुविधाओं का रास्ता तैयार कर दें। देश में कई बड़े बदलाव लाने में नई तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, लेकिन सिर्फ इतना काफी नहीं है। बदलाव में तकनीक की भूमिका एक औजार की होती है, लेकिन बदलाव की शुरुआत तब होती है, जब उस तंत्र की सोच भी बदली जाए, जिसके हाथ में यह औजार पकड़ाया जा रहा है। यह अच्छा है कि स्मार्टफोन के युग में हम बहुत सारी स्मार्ट व्यवस्थाएं बना रहे हैं। यह उम्मीद भी बांध रहे हैं कि इन व्यवस्थाओं से जुड़ने वाले लोग स्मार्ट नागरिक बन जाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि हम अपने प्रशासन, अपनी पुलिस और न्यायपालिका को स्मार्ट कब बनाएंगे? यह ऐसा काम है, जो सिर्फ थानों को कंप्यूटर नेटवर्क से जोड़ देने भर से पूरा नहीं होगा। इसके लिए हमें प्रशासनिक सुधार, पुलिस सुधार और न्यायिक सुधार करने ही होंगे। बिना इन सुधारों के डिजिटल इंडिया भी वैसा ही बनेगा, जैसा पिछले दिनों हमने स्वच्छ भारत बनाया था। डिजिटल इंडिया के नए सपने और प्रशासन का पुराना तंत्र, दोनों एक साथ नहीं चल सकते।

डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी जैसी योजनाएं बनाने वाली सरकार ने इन दिनों एक और बीड़ा उठाया है, और वह है 1975 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के नेता जय प्रकाश नारायण का स्मारक बनाने का। डिजिटल इंडिया में जय प्रकाश नारायण का जिक्र विषयांतर जैसा लग सकता है, लेकिन यहां उनकी याद किसी दूसरे कारण से आ रही है। जय प्रकाश नारायण कहते थे कि अगर देश की मौजूदा योजनाओं को ही पूरी ईमानदारी से लागू कर दिया जाए, तो देश में एक छोटी-सी क्रांति आ सकती है। वह मानते थे कि देश का मौजूदा तंत्र इसमें सबसे बड़ी बाधा है। हमारी दिक्कत यह है कि हम योजनाएं बनाकर उस तंत्र के हवाले कर देते हैं, जो न तो उस योजना की मूल भावना से जुड़ा होता है, और न ही उसमें योजना को लागू करने की इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता होती है। जब तक यह नहीं बदलेगा, डिजिटल इंडिया या स्मार्ट सिटी से बहुत बड़ी उम्मीद नहीं पाली जा सकती।

डिजिटल इंडिया की अगली चुनौती और भी बड़ी है। यह चुनौती है पूरे देश को इस योजना से जोड़ने की। यानी इस योजना को समावेशी बनाने की। मौजूदा रूप में तो डिजिटल इंडिया जैसी योजना स्मार्ट सिटी के अलावा देश के नगरों में काफी कुछ लागू हो सकती है। लेकिन इसके आगे की राह बहुत कठिन होगी। हमें नहीं पता कि इसे उन गांवों और कस्बों में कैसे पहुंचाया जाएगा, जहां बिजली ही ठीक से नहीं पहुंचती? उन लोगों तक कैसे पहुंचाया जाएगा, जो अब भी निरक्षर हैं? और शिक्षा के अधिकार के बावजूद उनकी अगली पीढ़ी डिजिटल इंडिया के उपयोग लायक साक्षर बन पाएगी, इसकी बहुत उम्मीद नहीं बंधती। उन लोगों के लिए कैसे उपयोगी बनाया जाएगा, जो स्वस्थ जीवन जीने लायक भोजन भी नहीं जुटा पाते?

डिजिटल इंडिया जैसी योजनाओं की हमें जरूरत है, लेकिन सिर्फ इसलिए नहीं कि हम इसके जरिये दुनिया के विकसित देशों की बराबरी कर सकें, बल्कि इसके जरिये हम अपने तंत्र को बदल सकें। ऐसी योजना, जो हमारे तंत्र और हमारी अर्थव्यवस्था को उसके वात, कफ व पित्त से मुक्ति नहीं दिला सकती, वह कितनी भी बड़ी और आधुनिक क्यों न हो, अंत में हमें कहीं नहीं ले जाएगी। डिजिटल इंडिया कार्यक्रम तभी सार्थक हो सकता है, जब वह सिर्फ कुछ लोगों की सुविधा भर न रह जाए, बल्कि सभी लोगों के लिए समाधान का जरिया बने।

साभार-'हिंदुस्तान'-02/जुलाई/2015 

मन की बात

कई तरह के जज़्बात
कई तरह की बात
अक्सर
मन की राहों पर 
मिल कर
बुन लेते हैं
कुछ सपने
फिर नये
चौराहों पर
मिलने को
हार और जीत के
किस्से कहने को ।

-

मैं भी
करता हूँ
खुद से ही
अकेले में
कुछ मन की बात
कभी
कागज़ पर लिख कर
फाड़ देता हूँ
जला देता हूँ
अनकहे को
अनकहा ही
बना देता हूँ
बस कुछ देर तक
और फिर
वापस आ जाता हूँ
अपने ही दौर में । 

~यशवन्त यश©

02 July 2015

भारत के लिए ग्रीस संकट के सबक--कन्हैया सिंह, सीनियर फेलो, एनसीएईआर

ग्रीस के आर्थिक संकट को लेकर चिंता की लकीरें पूरी दुनिया में दिखाई पड़ी हैं। भारत पर इसका बहुत ज्यादा असर शायद न पड़े, लेकिन ग्रीस के इस संकट में बहुत सारे सबक जरूर हैं, जिनमें भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों के पास सीखने लायक बहुत कुछ है। लेकिन इन बातों पर आने से पहले हमें ग्रीस के आर्थिक संकट को समझना होगा।
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई संप्रभुता प्राप्त देश ही दिवालिया हो जाए, ग्रीस के साथ इस समय यही हुआ है। यह ऐसा संकट है, जिसके लक्षण वहां 2008 के आस-पास दिखने लग गए थे। इसके कारण तो और भी पुराने हैं। यह संकट बरसों से संचित हो रही सरकारी बजट की गड़बड़ियों और ग्रीस के आंतरिक भ्रष्टाचार का भी नतीजा है। लेकिन इसका एक बड़ा कारण ग्रीस के यूरोपीय संघ और यूरो मुद्रा को अपनाने की वजह से है। किसी भी देश के पास जब अपनी मुद्रा होती है, तो उसके पास इसे नियंत्रित करने के कई अधिकार भी होते हैं। वह चाहे, तो निर्यात बढ़ाने और ज्यादा लोगों को रोजगार देने की रणनीति के तहत अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर सकता है। वह चाहे, तो अपनी जरूरत के हिसाब से मुद्रा की आपूर्ति को घटा या बढ़ा भी सकता है। वह अपने बाजार और अपनी अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए कई फैसले ले सकता है। ग्रीस ने जब यूरो मुद्रा को अपनाया, तो उसकी यह आजादी अपने आप खत्म हो गई। वह अब यूरो पर असर दिखाने वाला कोई फैसला नहीं ले सकता। ग्रीस के आर्थिक संकट के कारण कई हो सकते हैं, लेकिन ग्रीस का यूरो जोन में शामिल होना संकट-समाधान के उसके कई रास्ते खत्म कर देता है।
बेशक, यूरो अभी दुनिया की एक बहुत मजबूत मुद्रा है, यह मजबूती जर्मनी और फ्रांस की वजह से है। अगर यूरो मुद्रा न शुरू हुई होती, तो भी जर्मनी और फ्रांस यूरोप की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्थाओं में रहते, उनकी इस मजबूती में शायद यूरो की भूमिका उतनी बड़ी नहीं है। लेकिन बाकी देशों को यूरो ने किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचाया है। ग्रीस का संकट हम देख ही रहे हैं, पुर्तगाल और आयरलैंड जैसे देशों में इतना बड़ा संकट नहीं है, लेकिन समस्या वहां भी बनी हुई है। आर्थिक परेशानियां यूरो जोन के अन्य देशों में भी उभर रही हैं। इसके मुकाबले यूरोप के जो देश यूरो जोन में शामिल नहीं हुए, उनके लिए समस्या इतनी बड़ी नहीं है।
सात साल पहले, जब ग्रीस में संकट के लक्षण पहली बार दिखे थे, तो यूरोपीय आयोग, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मिलकर उसे संकट से उबारने का एक पैकेज तैयार किया था। ऐसी संस्थाएं जब कर्ज देती हैं,  तो कई तरह की शर्तें लगाती हैं, जैसे वित्तीय घाटे को तेजी से कम करना होगा, वगैरह। भारत पर जब आर्थिक संकट आया था, तो उसे भी ऐसी शर्तों पर कर्ज मिला था। इन संस्थाओं की शर्तों को पूरा करने के लिए जरूरी था कि ग्रीस सरकारी खर्चे में तेजी से कटौती करे। यह कटौती की भी गई, लेकिन इससे कोई मदद मिलने की बजाय संकट और गहरा गया। सरकारी खर्चों में कटौती से दो नुकसान एकदम सीधे हुए- एक तो इससे बेरोजगारी बढ़ गई और दूसरे, इससे जनता को मिलने वाली सुविधाएं एकदम से कम हो गईं। इन सबसे असंतोष बढ़ गया। इस बीच नया निवेश कहीं से नहीं हुआ और अर्थव्यवस्था का विकास नहीं हो सका। कर्ज बढ़ता गया, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। इसी के चलते अपने इतिहास पर गर्व करने वाला यूरोप का यह देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है। वहां ज्यादातर बैंक इन दिनों बंद चल रहे हैं। बैंकों में जमा धन निकालने तक पर पाबंदी लगा दी गई है।
इस बीच ग्रीस की सत्ता में ऐसा वामपंथी दल पहुंच चुका है, जो यह मानता है कि सरकारी खर्चों में कटौती वापस ली जानी चाहिए। साथ ही, वह इस मुद्दे पर जनमत-संग्रह की बात भी करता रहा है कि क्या ग्रीस को यूरो जोन से अलग हो जाना चाहिए? इस बीच, वहां यह सोच भी जोर पकड़ रही है कि ग्रीस अगर यूरो जोन में शामिल नहीं होता,  तो शायद वह संकट से उबरने के ज्यादा अच्छे फैसले कर सकता था। कम से कम वह मुद्रा-आपूर्ति को नियंत्रित कर सकता था, निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए योजनाएं बना सकता था, नए निवेश को आमंत्रित करने के रास्ते बना सकता था।
अगर ग्रीस यूरो जोन से अलग हो जाता है, तो क्या होगा? बेशक, यह बहुत आसान नहीं है और इससे ग्रीस की सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, यह भी नहीं कहा जा सकता। यूरो जोन से अलग होने के बाद ग्रीस को आत्म-निर्भर बनने की कठिन कवायद करनी होगी। और शुरू में इस अलगाव का एक झटका शायद पूरी दुनिया और खासकर यूरोप की अर्थव्यवस्था को भी लगेगा। लेकिन दीर्घकाल के हिसाब से देखा जाए, तो शायद यह सबके लिए अच्छा ही हो।
सोमवार को जब इस संकट के गहरा जाने की खबर आई, तो भारत के शेयर बाजारों में शेयर कीमतें अचानक ही लुढ़कने लगीं। तकरीबन, सभी तरह के शेयर सूचकांकों ने गोता लगाना शुरू कर दिया। हालांकि, शाम होते-होते बाजार थोड़ा संभल गया और मंगलवार को ग्रीस संकट से उपजी निराशा नदारद होती दिखाई दी। कारोबार के तौर पर भारत यूरो जोन से जुड़ा हुआ है, लेकिन भारत का ज्यादा कारोबार जर्मनी और फ्रांस से ही है। ग्रीस से भारत का ज्यादा व्यापार नहीं है, इसलिए बहुत सीधा और बहुत ज्यादा असर पड़ने का खतरा नहीं है। यूरो अगर टूटता है, तो इसका असर हो सकता है, लेकिन वह भी बहुत ज्यादा नहीं होगा। दूसरे, पिछली वैश्विक आर्थिक मंदी के मुकाबले इस बार भारत ज्यादा अच्छी स्थिति में है। भारत का वित्तीय घाटा कम हुआ है, विकास दर की संभावनाएं बढ़ी हैं, मुद्रास्फीति कम है और ब्याज दरें भी नीचे आ रही हैं। इसलिए हो सकता है कि भारत को इस संकट से कुछ फायदा ही मिल जाए। यूरोप के संकट को देखते हुए कई निवेशक भारत का रुख कर सकते हैं, क्योंकि भारत का बाजार इस समय ज्यादा स्थिर है और यहां संभावनाएं भी ज्यादा हैं।
इसी के साथ हमें ग्रीस संकट से यह सबक भी ले लेना चाहिए कि मजबूत वित्तीय नीतियों का कोई विकल्प नहीं है। और यह मजबूती पूरे देश में समान रूप से दिखनी चाहिए। आम तौर पर हम जब वित्तीय स्थिरता की बात करते हैं, तो सिर्फ केंद्र सरकार की नीतियों को ही देखते हैं। लेकिन पूरे देश की आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए हमें इसमें राज्यों की अर्थव्यवस्था और उनकी नीतियों को भी शामिल कर लेना चाहिए। केंद्र के पैमाने पर आर्थिक स्थिरता का अर्थ यह नहीं है कि राज्यों के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। कई राज्यों में स्थिति काफी खराब है। स्थिरता के लिए पूरे देश का आंतरिक विकास जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

साभार-'हिंदुस्तान' 01/जुलाई/2015 

अंधे-बहरों की दुनिया में ......

अंधे-बहरों की दुनिया में
क्या कहें
किस्से कहें
आँख और कान
बंद कर के
सब सोए हुए हैं
कहीं खोए हुए हैं
जाने किस
सपनीली दुनिया में
अपने अहं की
पैनी धार पर
ख़ुदकुशी के कूँए में
कूदे हुए हैं
अंधे-बहरों की दुनिया में
प्रगति के हर रास्ते
खुदे हुए हैं।

~यशवन्त यश©

01 July 2015

शुरुआत.....

शुरुआत!
एक दिन की
एक जीवन की
अंत के बाद
एक नयी आहट की।

शुरुआत!
नयी किरणों के साथ
नये पलों की
उजली-काली
परतों की
नये मुखौटों की
वादों ,धोखों
और ईमानों की।

शुरुआत!
नयी खुशियों
त्रासदियों
योजनाओं
और उन पर अमल की।

शुरुआत !
एक नये अंत के साथ
आने वाले
एक नये कल की।

~यशवन्त यश©

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