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30 June 2011

तुम्हारा जाना...

और आज
आखिर तुम चली ही गयी
उस ओर
जहाँ से वापस आना
शायद मुमकिन नहीं
तुम गिन रही थी 
साँसों को
बरसों  से
तड़प रही थी तुम
आज़ाद हो जाने को
मुक्ति  पाने को
और आज
तुम हो गयी हो मुक्त
भौतिक रूप में
औपचारिक रूप में
किन्तु न हो सकोगी मुक्त
मेरी धुंधली सी यादों से
न भूल सकुंगा
तुम्हारे उन अहसासों को
न भूल सकुंगा
तुम्हारे उस साथ को
जो क्षणिक ही सही
पर मुझ को भी मिला था
ये तो होना ही था
हुआ भी
आज तुम गयी
और कल
शायद मेरी बारी हो.

28 June 2011

वक़्त

आज फिर
'वक़्त'
मिल गया मुझ को
वो
दौड़ता हुआ
जा रहा था कहीं

कहने लगा-
तुम भी दौड़ो मेरे संग
मैं  भी दौड़ने लगा
उसका आमंत्रण  पाकर
बातें करने लगा उससे
कुछ अपनी कहता
कुछ उसकी सुनता
मैं  उसके संग
चलता जा रहा था

पर एक क्षण
मैं दौड़ते दौड़ते
खुद को संभाल न सका
मैं थक कर
हांफ हांफ कर
रुक गया
वक्त से भी कहा-
आओ तुम भी सुस्ता लो
फिर चलेंगे

वक़्त बोला -
मेरे पास
रुकने का वक़्त नहीं है
वक़्त बहुत कम है
मुझे जाना है
वो  चलता चला गया
अपनी राह

मैं देखता रह गया
और वो
बिना थके
दौड़ता जा रहा था
चलता  जा रहा था
उसी ऊर्जा से
उसी वेग से

वो हो गया था
मेरी आँखों से ओझल
वो  निकल चुका था
एक लंबे सफर पर
और मुझे
फिर शुरू करना था
दौड़ना

विश्राम से उठने  के बाद
मैं वहीँ था
जहाँ वक़्त ने मुझे छोड़ा था
और वो 'वक़्त'
तय कर रहा था
नए रास्तों को
पल  पल बीतते
वक़्त के साथ.
------------------------
[इस कविता का ऑडियो आप यहाँ सुन सकते हैं]

26 June 2011

वंशिका की कुछ ड्राइंग्स

इस ब्लॉग के माध्यम से आप वंशिका को जानते ही हैं.आज फिर प्रस्तुत हैं उनकी कुछ ड्राइंग्स.
 
 



21 June 2011

फादर्स डे पर सौम्या की कुछ कवितायेँ -

 मुझे लखनऊ की सौम्या श्रीवास्तव-आयु लगभग 12 वर्ष  (सुपुत्री श्रीमती एवं श्री अवधेश श्रीवास्तव जी) जो कक्षा-8 की छात्रा हैं , की फादर्स डे पर कुछ कवितायेँ प्राप्त हुई हैं जिनकी स्कैन कॉपी उन्हीं की हस्तलिपि में यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ.
मुझे पूरा विश्वास है आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद सौम्या को अवश्य प्राप्त होगा-



 विशेष बात यह है कि परिवार में इनके अलावा किसी का भी रुझान लेखन की तरफ नहीं रहा है.इस ब्लॉग के माध्यम से मैं इनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ.

18 June 2011

स्वीकारोक्ति

मैं नहीं कवि
न ही कविता
जो मैं लिखता हूँ
बस अपने मन की
कुछ कुछ
कहता चलता हूँ

न कोई आदि
न कोई अंत
न मात्रा ,
न हलन्त
न  समझा व्याकरण
न कभी समझ सकता हूँ
बस यूँ ही
कुछ शब्द
उकेरता रहता हूँ

मुझे कुछ नहीं पता
पर जो देखता हूँ
कुछ सोचता हूँ
और कुछ महसूस करता हूँ

कुछ कुछ
कहने की कोशिश
अक्सर 
करता रहता हूँ
मैं नहीं कवि
न ही कविता
जो मैं कहता हूँ.


13 June 2011

मुखौटा कौन था ?

आज फिर उसे देखा
उसी फुटपाथ पर
जहाँ से कल होकर
मैं गुज़रा था

आज फिर
मैंने देखा
उसे उसी तरह रोते हुए
भूख से तडपते हुए
अपनी माँ की गोद में
वो  नन्ही लड़की
चिथड़ों में ढकी छुपी
सिकुड़ी सी जा रही थी

लोग
आ रहे थे
जा रहे थे
देख रहे थे उसे
एक नज़र
महसूस कर रहे थे
उसकी भूख को

आधुनिक गरीब
करुण चेहरा बनाकर
निकले जा रहे थे
करीब से
और 
पास के ढाबे में
ले रहे थे स्वाद
मन-पसंद व्यंजनों का 

वो लड़की
रोये जा रही थी
उसकी आवाज़
वहाँ भी आ रही थी

और मैं
अचानक 
रह गया स्तब्ध
जब  देखा
किसी  राह को जाते

नन्हे देवदूत को
पॉकेट मनी से खरीदा
उसने 
एक पैकेट बिस्कुट
और थमा दिया
उन नन्हे अनजान हाथों में

वो लड़की अब चुप थी
और टुकुर टुकुर
ताक रही थी
उसकी  मासूम नजरें
उसे  तलाश  रही थीं
पर वो जा चुका था
अपनी  राह
छोड़  कर एक प्रश्न

मुखौटा कौन था ?

09 June 2011

तुम आसमां हो

तुम जैसा
बनने की कोशिश
करता हूँ
कभी कभी
तुम जैसा
उठने की कोशिश
करता हूँ कभी कभी

मैं तुम को
पाना चाहता हूँ
छूना चाहता हूँ
जितनी कोशिश करता हूँ
तुम और ऊंचे उठ जाते हो
हो जाते हो
मेरी पहुँच से
बहुत दूर

ताकते रह जाना है
तुम को
यूँ ही
हमेशा
क्योंकि -
मैं ज़मीं
और तुम आसमां हो .

06 June 2011

क्यों आये हो........

जिंदगी की शामों में
तुम दिया जलाने क्यों आये हो
मैं अंधेरों में जीया करता था
तुम राह दिखाने क्यों आये हो?

ये कैसा पागलपन
क्यों मेरी सोयी उमंगें जिलाओगे
जब फैलाऊंगा मैं बाहें
रूठ कर चले जाओगे

यूँ तडपने दो तुम  मुझ को
क्यों सेज सजाने आये हो
जिंदगी की शामों में क्यों
क्यों दिया जलाने आये हो?

{नोट-मुझे ऐसा लगता है इससे मिलती जुलती पंक्तियों को पहले कहीं पढ़ा है लेकिन याद नहीं कहाँ? यदि आपको कोई ऐसी समानता नज़र आये तो कृपया  इस रचना को उससे प्रेरित समझें}

04 June 2011

ये राहें

 (1)
अक्सर उन राहों पर
कांटे देखा करता हूँ
जिन पर कभी फूल
बिछा करते थे

(2)
ये राहें
कभी
मखमली घास से ढकी 
पगडंडी होती हैं
कभी 
उधड़ी हुई सी
और कभी
कोलतार की
परतों में
ढकी
ये राहें
जीवन देती हैं
हर रूप में

पर सोचता हूँ
इन राहों की किस्मत
कितनी
अजीब होती है
एक जगह
स्थिर रह कर
ये राहें
प्राणवायु देती हैं
जीवन को
चलने को
आगे बढ़ने को

ये राहें
मौन रह कर भी
बोलती रहती हैं
इनकी भाषा
हम समझ नहीं सकते.

02 June 2011

आप सब के बीच यह एक साल

आज दो जून है और आज ही के दिन पिछले साल मैंने ब्लॉग लिखना शुरू किया था.हालांकि bloogger.com पर मैंने अगस्त 2008 में ही आई डी बना ली थी.ब्लॉग वास्तव में क्या है यह मुझे नहीं पता था हाँ इतना पता था कि अमिताभ बच्चन जी भी ब्लॉग लिखते हैं और एक दिन मेरा भी ब्लॉग होगा.और यह सपना साकार तब हुआ जब पिछले साल मई में लखनऊ ट्रांसफर न होने और एनुअल अप्रेज़ल से असंतुष्ट हो कर मैंने एक मशहूर रिटेल चेन के कस्टमर सर्विस से रिजाइन कर दिया और पापा की इच्छा और सहमति से घर पर ही अपना साइबर कैफे शुरू कर दिया.28 मई को इस कैफे ने भी एक साल पूरा कर लिया है.

यूँ देखा जाए तो लिख  तो मैं आठ वर्ष की उम्र से रहा हूँ.उसकी भी एक कहानी है.आगरा से निकलने वाले  साप्ताहिक सप्तदिवा में पापा के लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे.अक्सर पापा अखबारों में छापने वाली बाल कवितायेँ पढ़ कर सुना दिया करते थे.न जाने कहाँ से मेरे मन में यह बात आ गयी कि पापा लेख लिखते हैं मैं कवितायेँ लिखूंगा.मैंने तुकबंदी में एक बे सिर पैर की कविता लिख कर दे दी जिसे संपादक महोदय ने सहर्ष यह कहते हुए कि बच्चे ने लिखा है छपेगा ज़रूर कह कर छाप भी दिया (इसकी प्रति शीघ्र ही पापा के ब्लॉग कलम कुदाल पर उपलब्ध होगी).बस फिर क्या था अखबार में अपना नाम और कविता देख कर तो लिखने का ऐसा चस्का लगा जो अब तक ज़ारी है.

मैं यह स्वीकार करता हूँ कि इतना सब के बावजूद मेरा लेखन ,मेरी कवितायेँ और मेरे लेख मेरे हम उम्र साथियों के समान उच्च स्तर के नहीं है फिर भी यह मेरा सौभाग्य है कि आत्मसंतुष्टि की मेरी इस अभिव्यक्ति को आप विद्वतजन पसंद करते हैं.

जब मैंने ब्लॉग लिखना शुरू किया तब यह नहीं पता था कि हिंदी ब्लॉग जगत काफी विस्तृत है बहुत से लोग ब्लॉग लिखते हैं और उन पर टिप्पणियों के रूप में प्रतिक्रियाएं भी दी जाती हैं.मैंने शुरू में अपनी डायरी में लिखी हुई कविताओं को ब्लॉग पर डालना शुरू किया (हाँ जो मेरा मन कहे शीर्षक से लिखी गयी इस ब्लॉग की सर्वप्रथम कविता मैंने ब्लॉग बनाने के तुरंत बाद लिखी थी.) अब डायरी में लिखी सभी कवितायेँ यहाँ आ चुकी हैं और अब आप मेरी बिलकुल नयी रचनाएं पढ़ रहे हैं जो अधिकतर उसी समय लिख कर पब्लिश की जाती हैं.

जून में ब्लॉग शुरू हुआ और पहला कमेन्ट आदरणीया वीना जी ने लिखा मेरी पोस्ट स्वार्थ पर सितम्बर में .यह मेरे लिये अभी भी एक रहस्य ही है कि उन्हें मेरे ब्लॉग के बारे में कैसे पता चला? उस पोस्ट पर सुरेन्द्र भाम्बू जी,श्री के आर जोशी जी,अजय कुमार जी एवं आनंद पांडे जी के ब्लॉग जगत में स्वागत के भी कमेंट्स मुझे मिले.तब यह एहसास हुआ कि मेरा ब्लॉग भी पढ़ा और देखा जाता है.कमेंट्स करने वालों के प्रोफाइल्स से मुझे उनके तथा उनपर की गयी टिप्पणियों से अन्य ब्लोग्स के बारे में पता चलता गया. 

मैंने जो ब्लोग्स फौलो कर रखे हैं.उन में बच्चों के सभी ब्लोग्स (जिनके बारे में मैं अभी तक जानता हूँ)अनुष्का,पाखी,चैतन्य,रिमझिम,माधव ,लविज़ा ,पंखुरी ,कुहू ,नन्ही परी और हेमाभ के ब्लोग्स मुझे एक अलग ही दुनिया की सैर करा देते हैं.इन बच्चों का उत्साह,इनकी शैतानियाँ,डांस और ड्राइंग्स सभी कुछ बेहतरीन है और इनके मम्मी-पापा और संपादक मंडल को मैं तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ इतने अच्छे ब्लोग्स के लिये और इन नन्हे मुन्नों की गतिविधियां हम सब से शेयर करने के लिये.

जहाँ तक बड़ों के ब्लोग्स की बात है तो आदरणीय/आदरणीया प्रमोद जोशी जी,वीना जी,रश्मि जी,अनुपमा पाठक जी,अपर्णा मनोज जी,मोनिका जी,अल्पना वर्मा जी,ज़ाकिर अली जी,प्रमोद ताम्बट जी ,मनोज जी,वंदना जी, आशीष जी, इन्द्रनील जी ,डॉक्टर शरद सिंह जी,तृप्ति जी, निवेदिता जी, मीनाक्षी जी ,अपर्णा त्रिपाठी जी, कैलाश शर्मा जी, माहेश्वरी जी, अनीता जी,अनुपमा सुकृति जी,सत्यम शिवम जी,अंजलि माहिल जी, ज्योति जी,और सुषमा जी के ब्लोग्स एवं लेखन शैली से मैं सर्वाधिक प्रभावित हूँ.इनके ब्लोग्स को पढ़ कर काफी कुछ जानने ,सीखने और समझने को मिलता है.और मेरी भी कोशिश रहती है कि इन्हें पढ़ कर मैं भी अपना स्तर सुधारूं.

बहरहाल आप सभी के स्नेह और आशीर्वाद से इस 203वीं पोस्ट और 87 चाहने वालों के साथ इस ब्लॉग ने एक साल का सफर तय कर लिया है.कल क्या लिखूंगा,कब तक लिखूंगा कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं है बस इस ब्लॉग के नाम को सार्थक करने की कोशिश ज़ारी है.

[विशेष-आज पापा के ब्लॉग का भी एक वर्ष पूरा हो गया है]

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