प्रतिलिप्याधिकार/सर्वाधिकार सुरक्षित ©

इस ब्लॉग पर प्रकाशित अभिव्यक्ति (संदर्भित-संकलित गीत /चित्र /आलेख अथवा निबंध को छोड़ कर) पूर्णत: मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित है।
यदि कहीं प्रकाशित करना चाहें तो yashwant009@gmail.com द्वारा पूर्वानुमति/सहमति अवश्य प्राप्त कर लें।

27 September 2012

'एक'-'दूसरा'

एक के पास -

बड़ी चार पहिया गाड़ी है
ड्राइवर है
आलीशान मकान है
जिसके कोने कोने से
संपन्नता का देसी घी
सबको ललचाता सा गिरता है

महंगा मोबाइल है
लैपटॉप है
दस उँगलियों के इशारे पर
नाचती
ग्लोबल दुनिया है
जिसके चारों ओर
बदसूरत चाँद की तरह
वह  परिक्रमा  करता है

दूसरे के पास -

पैर में टूटी चप्पल है
सूत भर फुटपाथ है
जिसके कोने कोने में गूँजती
डरावनी पदचापों का एहसास
एक जनम मे ही
कई पुनर्जन्मों का होना है

चीख है -पुकार है
मुरझाता यौवन है
एक कपड़े मे सिमटा तन है
वेदना और सूखे आंसुओं की
अनोखी दुनिया में
उसका होना
एलियन का मिलना है

'दूसरे' का घर
'एक' के ठीक सामने है
एक समय पर
अक्सर
दोनों एक दूसरे के सामने होते हैं
'दूसरा' हाथ फैलाता है
और 
उसके ज़ख़्मों से
बेपरवाह 'एक'
काले शीशे वाली कार मे
निकल जाता है
समाजसेवा को।


©यशवन्त माथुर©

20 September 2012

घास

 













मैदानों में
ढलानों में
घर के लानों में
खेत-खलिहानों में
बागानों में
सड़कों के किनारों में
कवि के विचारों में
बारिश की रिमझिम फुहारों में
धरती का मखमली
गुदगुदा बिस्तर बनने का सुख
घास को हासिल है

घास
आस है
विश्वास है
दर्शन है
उपहास -परिहास है

घास
स्वाभिमान है -

तूफानों में
खुद को झुका लेती है
हो जाती है नत-मस्तक
छद्म -क्षणिक प्रभुत्व के आगे
और बाद की शांति में  
हो जाती है
पूर्व  की तरह अडिग
उठा लेती है खुद को

घास
निडरता का
प्रत्यक्ष प्रतीक
बन कर 
खोद कर
उखाड़ कर
फेंक दिये जाने पर भी
धरती के भीतर
छोड़ देती है
अपना अंश

हो उठती है
पुनः जीवंत
महलों के चमकते
फर्श के किनारों पर 
मौका पाते ही

घास
सिर्फ घास ही नहीं
गीता में लिखा 
जीवन का मर्म है
जिसका उद्देश्य
निरंतर कर्म है।

 ©यशवन्त माथुर©

16 September 2012

कौन जानता है ?

अर्थ के अर्थों में
डूबकी लगा कर
अनर्थ का व्यर्थ प्रपंच
किस अर्थ की
करेगा व्याख्या
कौन जानता है ?

परिदृश्य में वही है
जो सदृश्य है
श्वेत रंगीनी के पीछे
अदृश्य कालिमा की कथा
कब बांचेगा कोई
कौन जानता है ?

भद्रता की मिसरी बन कर
अभद्रता का अर्धसत्य
पूर्णविराम की प्रत्याशा में
कब तक सहेगा अल्प विराम
कौन जानता है ?

तर्क का कुतर्क रूप
अपने अस्थायित्व में
घिस घिस कर कलम की नोंक
कब तक करेगा छलनी
कागज के वक्ष को
कौन जानता है ?

अनर्थ का व्यर्थ प्रपंच
कब तक छुपा सकेगा
भीतर का रंज
अर्थ का सार्थक अर्थ
किस क्षण हो उठे प्रकट
कौन जानता है ?

©यशवन्त माथुर©

14 September 2012

लेटर टू अ बेस्ट फ्रेंड

माय डियर इंग्लिश ,

कोङ्ग्रेट्स फॉर योर ग्रेंड सक्सेस इन माय कंट्री। आई डोंट नो सो मच अबाउट यू एंड योर ग्रामर बट टुडे आय एम सेलिब्रेटिंग माय डे जस्ट लाइक अ बर्थ डे ईवन कोमन मैन ऑफ माय कंट्री लव्स मी सिंस द बिगनिंग ऑफ द भारतीय कल्चर। 

नाऊ डेज़ यू आर मोस्ट कॉमन इन इंडिया;नोट इन भारत । भारतीय पीपुल वांट्स टू स्पीक यू ,दे लाइक टू जॉइन स्पीकिंग क्लासेस एंड ऑल बट देयर रूट्स काँट चेंज देम । भारतीय पीपुल वांट्स  टू बी नॉन एज़ इंडियन एंड माय ईजिनेस इनसिस्ट देम टू स्टैंड एज़ अ भारतीय। 

आई नो यू वांट टू किक आऊट  मी फ़्रोम माय ऑन हाउस ;योर अटेंप्ट्स आर नोट फुल्ली सक्सीडेड येट एंड ट्रस्ट मी इट्स माय हाउस फोरेवर। 

एनी वे आय हेव नो प्रॉबलम लिविंग विद यू :) माय केक इज़ वेटिंग फॉर मी ऑन द टेबल फॉर फिफ़्टीन मोर डेज़ टिल देन यू ओलसो इनवाईटेड टू फिनिश इट। 

जॉइन मी एंड एंजॉय द नेशनल हिन्दी डे /वीक / फोर्टनाइट :)

ब बाय। 
हैव अ गुड टाइम।  


©यशवन्त माथुर©

11 September 2012

तब क्या होगा ?

घरों की खिड़कियों पर
चश्मों पर 
कारों पर
मॉल की दीवारों पर
और न जाने कहाँ कहाँ
काले शीशे
सीना तान कर
शान से जड़े हैं
अड़े हैं
सफेदपोशों से
भ्राता धर्म निभाने का
संकल्प लिये

कैसी है
इन काले शीशों के पीछे की
वास्तविक दुनिया
क्या काली है
या
कुछ उजलापन बाकी है ?

बड़ी उलझन मे हूँ
इन शीशों से
परावर्तित होता
अपना अक्स देख कर

दिन की तेज़ धूप
और रात में
इन शीशों पर
चौंधियाने वाली
कृत्रिम रोशनी देख कर
डर रहा हूँ
कहीं
मेरे चश्मे के सफ़ेद शीशे
इच्छा न कर बैठें 
काला होने की

और फिर
आईने में
खुद को देख कर
मैं ही न देख सकूँ
खुद के उस पार ....

तब क्या होगा ?

 
 ©यशवन्त माथुर©

06 September 2012

अंतर्जाल का मायाजाल (Blog post No-351)

बड़ा विचित्र
चित्र है
अंतर्जाल के
मायाजाल का

मैं
तुम
और सब
फंस चुके हैं
इस जंजाल में
उलझ चुके हैं इतना
कि सुलझने का वक़्त नहीं

कोई
सीना तान कर
कर रहा है
सच का सामना
कोई हार के वार को
जीत का उपहार समझ कर
जी रहा है भ्रम में

सबकी
अपनी दुनिया है
अपने समूह हैं
सबके
अपने अधिकार हैं
कर्तव्य हैं

आभासी दुनिया में
आने से पहले
शायद पूर्वाभास नहीं था
भेड़ चाल का
मतभेद का
ऊंच-नीच का
शोषण का

पर
सच तो यही है
यहाँ सच कहना मना है
क्योंकि
अंतर्जाल का मायाजाल
टिका है
झूठ और दिखावे की
अदृश्य -अनकही
नींव पर। 

©यशवन्त माथुर©

05 September 2012

शिक्षक दिवस की शुभकामनाएँ --अरे गुरु जी का वह डंडा !

 मेरे बाबा जी (Grand Father) स्वर्गीय ताज राज बली माथुर जी ने वर्ष 1955 -56 के लगभग सैन्य अभियंत्रण सेवाओं ( M E S) से नौकरी कीशुरुआत की थी। चूंकि सरकारी आदेशानुसार कार्य स्थल पर हिन्दी अनिवार्य कर दी गयी थी अतः ओफिशियल ट्रेनिंग के हिन्दी पाठ्यक्रम मे 'सरल हिन्दी पाठमाला' (1954 मे प्रकाशित) नाम की पुस्तक भी शामिल थी जिसकी मूल प्रति हमारे पास आज भी सुरक्षित है।

प्रस्तुत हास्य कविता इसी पुस्तक से स्कैन कर के यहाँ दे रहे हैं।यह कविता रूढ़ीवादी शिक्षा-प्रणाली पर तीखा व्यंग्य है ।

और स्पष्ट पढ़ने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें  

03 September 2012

गुरु-शिष्य (शिक्षक दिवस विशेष)

पान की दुकान पर
अक्सर दिखते हैं
गुरु शिष्य साथ में
सिगरेट के कश लगाते हुए

और कभी कभी
दिख जाते हैं
शराब के उस ठेके पर
शाम के समय
गलबहियाँ किये हुए

एक को लालच है
अंक पत्र में
बढ़े हुए प्राप्तांकों का
एक को लालच है
मुफ्त की इच्छापूर्ति का 

दोनों
आधुनिक हैं -

द्रोणाचार्य
आज कल
अंगूठा नहीं
कैश इन हैंड
मांगते हैं।


©यशवन्त माथुर©
+Get Now!