प्रतिलिप्याधिकार/सर्वाधिकार सुरक्षित ©

इस ब्लॉग पर प्रकाशित अभिव्यक्ति (संदर्भित-संकलित गीत /चित्र /आलेख अथवा निबंध को छोड़ कर) पूर्णत: मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित है।
यदि कहीं प्रकाशित करना चाहें तो yashwant009@gmail.com द्वारा पूर्वानुमति/सहमति अवश्य प्राप्त कर लें।

30 November 2010

तरस जाता हूँ

कभी
हरे भरे ऊंचे पेड़
कुछ आम के
कुछ  नीम के
कुछ बरगद और
गुलमोहर के
दिखाई देते थे
घर की छत से

(फोटो:साभार गूगल)

 सड़क पर चलते हुए
 कहीं से आते हुए
कहीं को जाते हुए
कभी गरमी की
तपती धूप में
कभी तेज बरसते पानी में
या कभी
यूँ ही थक कर
कुछ देर को मैं
छाँव में बैठ जाता था

पर अब
बढती विलासिताओं ने
महत्वाकांक्षाओं ने
कंक्रीट की दीवारों ने
कर लिया है
इन पेड़ों का शिकार

(मोबाइल फोटो:मेरे घर की छत से)

ये अब दिखाई नहीं देते
घर की छत से
और न ही
किसी सड़क के किनारे
अब इन्हें पाता हूँ

दो पल के सुकून को
मैं तरस जाता हूँ.




(मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

28 November 2010

खिल उठें ये कलियाँ

(1)


रोज़ सुबह
मैं देखता हूँ
इन अनखिली कलियों को
पीठ पर
आशाओं का बोझा लादे
चलती जाती हैं
जो
एक फूल बनने का
अनोखा
सपना लेकर

(2)


मैं भी चाहता हूँ
जल्दी से
ये कलियाँ खिल उठें
और मैं
महसूस कर सकूं
नए फूलों की
ताज़ी खुशबू को

उस खुशबू को
जो हर दिशा में फ़ैल कर
करवा दे
अपने होने का
एहसास

ताकि फिर खिल सकें
कुछ और
नयी कलियाँ.






(Photos:Google Image Search)                     (मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

26 November 2010

ज़रा याद कर लो...


(चित्र:साभार गूगल)


याद कर लो भले ही 
जाने और पहचानों को
पर जिनका कोई नाम नहीं
ज़रा याद करो अनजानों को 


मिट गए ज़ख्म,मिट गए निशाँ 
पर दर्द अब भी बाकी है
आओ चल कर देखलो 
सूनी कलाई और मांगों को


हम जहाँ थे हम वहीं हैं 
हम क्या होंगे पता नहीं
करने वाले करते तो हैं
न निभने वाले  वादों को


दो पल मेरा मौन समर्पित 
कुछ जानों को,अनजानों को
मुम्बई के बलिदानों को! 
देश पर मिटने वालों को!


जय हिंद! 


(मुम्बई हमले के शहीदों को मेरा नमन और श्रद्धांजली)




(मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

25 November 2010

हवा


(चित्र:साभार गूगल इमेज सर्च)


कभी लू का थपेड़ा बन कर
बदन पर चुभती है हवा
कभी सर्द लहर के आगोश में
सर सर थर थराती है हवा

आंधी कभी तूफ़ान
कभी चक्रवात बन जाती है
चिनगारी भी कभी
शोलों सी धधक जाती है

रूमानियत में मीठा सा
एहसास  बन जाती है
तन्हाइयों में भूली हुई
याद बन जाती है

जाते  हुओं को अपनी
अहमियत बताती है हवा
आते हुओं में नयी 
 आस बन जाती है हवा

कभी गम के मारों को
जी भर रूलाती है हवा
खुशबू बन कर फिजा में
कभी छा जाती है हवा.




(मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

24 November 2010

ये भी जीवन है

एक तरफ
ऊनी लबादे ओढ़ कर
सर से पैर तक ढके हुए
कृत्रिम गर्मी लेकर
मोटरों में चलने वाले लोग
गलन की ठण्ड का भी
जिन पर
कोई असर दीखता नहीं है

और एक तरफ
वो मासूम
चिथड़ों में लिपटे हुए
थर थर कांपते हुए
नियति का दंश झेलते हुए
जुटे हुए हैं
कूड़े के ढेरों पर
दो वक़्त की
रोटी की तलाश में.

ये भी जीवन है

सच्चाई है
उन्नति के शिखर पर बैठे
मेरे देश की
जिसकी आत्मा बसती है
अशिक्षा और गरीबी में.

23 November 2010

मैं मुस्कुरा रहा हूँ

अच्छा या बुरा जो चाहे वो समझ लो मुझ को,
जो मेरा मन कहे वो करता आ रहा हूँ,
कितने भी तीर चुभो दो भले ही,
मैं मुस्कुरा रहा हूँ


तुमने सोचा होगा,
तुम्हारी कृत्रिम अदाओं का,
कुछ तो असर होगा मगर,
मैं भी मैं ही हूँ, मैं चलता जा रहा हूँ
बे परवाह तुमसे, मैं मुस्कुरा रहा हूँ


मेरी खामोशी को,
न समझ लेना स्वीकृति,
मौन रख कर भी मैं,
कुछ कुछ कहता जा रहा हूँ,
है नहीं कोई भाव - मैं मुस्कुरा रहा हूँ

मैं मुस्कुरा रहा हूँ-
कि मुस्कुराना फितरत है मेरी,
खुद की नज़रों में पल पल,
मैं चढ़ता जा रहा हूँ

मैं मुस्कुरा रहा हूँ

22 November 2010

नए दौर की ओर

शुरू हो गया
फिर एक नया दौर
कुछ आशाओं का
महत्वाकांक्षाओं का
कुछ पाने का
कुछ खोने का
नीचे गिरने का
उठ कर संभलने  का
उसी राह पर
एक नयी चाल चलने का

ये नया दौर
क्या गुल खिलायेगा
कितने सपने
सच कर दिखाएगा
दिल के बुझे चरागों को
क्या नयी रोशनी दिखाएगा

नहीं पता.

नहीं पता -
क्या होगा
क्या नहीं
वक़्त की कठपुतली बना
मैं चला जा रहा हूँ
एक नए दौर की ओर

नए दौर की ओर
जहाँ
पिछले दौर की तरह
चलता रह कर
फिर से इंतज़ार करूँगा
एक और
नए दौर का.





20 November 2010

वाह क्या बात है


(फोटो साभार:गूगल इमेज सर्च)
है मुझमें वो हिम्मत किसी पर भी गुर्रा सकता हूँ
इंसानी शिशुओं को
क्षण भर में थर्रा सकता हूँ


मंत्री, संतरी हो या नेता,कोई फ़कीर
चिथड़ों में कोई लिपटा हो या हो साहब कोई अमीर
सब पर चला सकता हूँ मैं
अबूझ जुबानी तीर

मत कहना मुझे 'कुत्ता'-
ये मेरा अपमान है
मेरा भी है अपना बिस्तर और बैड रूम  
क्योंकि मालिक मेहरबान है
वो मुझ पर कुर्बान है

आवारा गलियों में भटकूँ
पागल बन काटूँ,तो भी मैं ख़ास हूँ
मैं संगमरमरी महलों की
संपन्नता का एहसास हूँ

तुम इन्सान हो !
अरे बता दो ! तुम्हारी क्या बिसात है ?
मैं टॉमी,हैरी,टफी,जैकी या शेरू किसी का 
मेरी भी एक हैसियत 
मेरी भी औकात है 

वाह क्या बात है  




विशेष :-कल के 'हिन्दुस्तान' में "कुत्ते भी अब लगायेंगे डियोड्रेंट" शीर्षक समाचार पढ़ कर यही  विचार मन में आये.

18 November 2010

हमें चाहत ही क्या है (Post No.-100)

(फोटो: साभार गूगल इमेज सर्च )

कोई परवाह नहीं
तुम्हारी कुटिल मुस्कान की
मैं जानता हूँ कि
इसका राज़ क्या है

मेरी छटपटाहट में
तुम्हारी ये खुशी
मैं जान न सका कि
तुम्हारी पहचान क्या है

खता मेरी ही थी
तुम से  दिल लगाने की
मेरी वफ़ा की अब तुझ को
कोई परवाह क्या है

तुम जी लेना खुशी से
खुदपरस्ती  के साये में
तेरे सिवा अब भी
हमें चाहत ही क्या है



17 November 2010

नहीं मिले वो पल


वो पल
जिनमें सुकून होता है
संतुष्टि होती है
जो दिखाते हैं 
आइना 
कुछ पाने का 
जिन से मिलती है प्रेरणा 
कुछ कर गुजरने की 
नहीं मिले 
अब तक -
क्योंकि 
संघर्षों के साथ 
कभी 
चलना है
कभी दौड़ना है  
गिरना है 
संभलना है 
सब कुछ झेलना है
यूँ ही
शायद   
एक अंतहीन समय तक!

16 November 2010

एक प्रश्न ......

क्या यही है हमारी  आधुनिक और रोजगार परक शिक्षा ?

साभार 'हिन्दुस्तान'-लखनऊ-16/11/2010 



आज बस इतना ही...

15 November 2010

ये तो होना ही था

(मोबाइल फोटो)

जो फसल 
लहलहाती थी-
कभी शान से 
स्टाइल में 
लहराती भी थी-
जिसका अपना 
एक रुतबा 
कभी हुआ करता था
जिसे 
शैम्पू और तेल के 
पानी और खाद से 
सींचा करता था 
वो फसल
अब 
गुज़र रही है 
स्थाई पतझड़  के दौर से 
गिन रही है
अपनी अंतिम सासें 
वो मुझ से 
जुदा होने को है

और मुझे 
कोई गम नहीं है 
इस जुदाई का 
क्योंकि 
आज नहीं तो कल 
अंततः 
ये तो होना ही था.

14 November 2010

क्या कहें

(चित्र साभार:गूगल)


 कहने को यूँ तो
बहुत सी बातें हैं मगर
क्या कहें और किस से कहें
कब कहें,कैसे कहें
उठते हैं बहुत से प्रश्न
मन के कोने में
और फिर वही उदासी
छा जाती है
क्योंकि
हर तरफ नज़र आते हैं
वास्तविक से लगने वाले 
वही
आभासी चित्र 
जो खुद भटक रहे हैं 
अपने चरित्र की तलाश में.

13 November 2010

वक़्त का पहिया

(चित्र साभार:गूगल इमेज सर्च)



बड़ा अजीब होता है
ये वक़्त का पहिया
हर दम चलता रहता है
बिना रुके
साँसों के संग

क्या क्या देखता है
क्या क्या दिखाता है
जीवन के अनगिनत
कुछ सदृश
कुछ
अदृश्य रंग.

कभी खेलता है
खुशियों की होली
कभी गम की बारिश में
भीगता है
भिगाता है

बिना रुके हरदम
वक़्त का पहिया
चलता  जाता है.





(मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

12 November 2010

फिर वही बात होगी

(चित्र :साभार गूगल )


 फिर वही सुबह
दोपहर,शाम
और रात होगी
घूम फिर कर
फिर  वही
बात होगी

होंगे वही किस्से
कहानियां और कविताएँ
अखबारों,चैनलों में
वही ख़बरें आम होंगी
जो सुनते आ रहे हैं हम
न जाने कब से .

बस होगा तो सिर्फ
नया अंदाज़ ए बयां  होगा
पुरानी नींव पर खड़ा
नया सा ताज होगा

चाहें भले ही भूलना 
मुमताज़ की कहानी को
झांसी की रानी को
मगर
शायद दिल में अब भी
कुछ आस होगी
नयी चाशनी में
पुरानी मिठास होगी.

ये तो वक़्त का पहिया है
घूमता ही रहेगा
चला था जहां से
फिर वहीं पे मिलेगा 

हर अंत से एक
नयी शुरुआत होगी 
घूम फिर कर
फिर वही
 बात होगी.






(मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

10 November 2010

ज़िन्दगी

(फोटो:गूगल से साभार )

 ज़िन्दगी
कुछ लोगों के लिए
हसीं किताब होती है
और कुछ लोग
पलटते रहते हैं
काले स्याह पन्नों को
क्योंकि 
सच की कालिख 
कभी मिटती नहीं है.



07 November 2010

धन्यवाद !

जब दीपों से जगमग
हो रहा था अपना घर -आँगन
जब आतिशबाजी से गूँज रहा था
क्या धरती और क्या गगन

जब मुस्कराहट थी हमारे चेहरों पर
उल्लास द्विगुणित तन मन में
द्वारे द्वारे दीप  जले जब
लक्ष्मी पूजन ,अर्चन, वंदन में

तब कोई था जो डटा  हुआ था
घर से बहुत दूर खड़ा हुआ था
सीना ताने अड़ा हुआ था
सीमा पर वो बिछा हुआ था

ओ! भारत के वीर सिपाही
धन्यवाद और तुम को नमन
और कुछ मैं कर नहीं सकता
बस स्वीकार करो ये  अभिनन्दन!


(मैं मुस्कुरा रहा हूँ..)

03 November 2010

कैसी दीवाली मनाएंगे?


एक तरफ भूखे नंगे
जो चुन चुन अन्न खाएंगे
कूड़े के ढेरो पे बच्चे
अपना भविष्य बनाएँगे

कैसी दीवाली मनाएँगे?

फुटपाथों पे कटती रातें
सहते शीत औ गरमी को
जूठन भी मुश्किल से मिलती
तरसते तन भी ढकने को

ये कैसी समृद्धि हाय!
आज बता दो तुम लक्ष्मी माता
जन गण मन अधिनायक भारत
क्या यही विश्व में विजय पताका?

कब मुस्काएंगे  वो चेहरे
कब हिल मिल खुशी मनाएँगे
झोपड़ियों में जब दिए जलेंगे
नूतन गाथा गाएंगे

कैसी दीवाली मनाएंगे?

-
-यशवन्त माथुर©

अर्श की ओर ले चलो

मैं फर्श पर हूँ
अर्श की ओर ले चलो
संघर्ष कर रहा हूँ
उत्कर्ष  की ओर ले चलो

हो चुका पतन मेरा
अविरल जल रहा हूँ
रहा न अनुराग किसी से
विद्वेष कर रहा हूँ

यह क्यों और कैसे
या स्वाभाविक है
नहीं पता
आस्तित्व खो चुका
चौराहे पर हूँ खड़ा

कोई हाथ थाम मेरा
मुकाम पर ले चलो
मैं फर्श पर हूँ
मुझे अर्श की ओर ले चलो.

Popular Posts

+Get Now!