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26 April 2014
वह भी कुछ तप कर मुस्काए ...
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
20 April 2014
वह रोज़ दिख जाता है.........
वह रोज़ दिख जाता है
कहीं न कहीं
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
फैली रेत और मौरंग से
अपने सपनों को
बनाते कभी मिटाते हुए .....
वहीं कहीं नजदीक
उसके माँ-पिता
जुटे रहते हैं
खून-पसीने की चाक पर
देने को आकार
किसी के
सुंदर सजीले महल को ....
एक महल
जो सुंदर नक्काशी में
ढल कर
घोंसला बनता है
जुबान से बेडौल लोगों का .....
और एक महल
जो नन्ही उँगलियों से
ढल कर
बन कर
कभी ढह कर
हौंसला बनता है
मिठास से भरी
उम्मीदों के कल का ....
वह रोज़ दिख जाता है
ईंट गारे का
ककहरा पढ़ते हुए
~यशवन्त यश©
कहीं न कहीं
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
फैली रेत और मौरंग से
अपने सपनों को
बनाते कभी मिटाते हुए .....
वहीं कहीं नजदीक
उसके माँ-पिता
जुटे रहते हैं
खून-पसीने की चाक पर
देने को आकार
किसी के
सुंदर सजीले महल को ....
एक महल
जो सुंदर नक्काशी में
ढल कर
घोंसला बनता है
जुबान से बेडौल लोगों का .....
और एक महल
जो नन्ही उँगलियों से
ढल कर
बन कर
कभी ढह कर
हौंसला बनता है
मिठास से भरी
उम्मीदों के कल का ....
वह रोज़ दिख जाता है
ईंट गारे का
ककहरा पढ़ते हुए
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
छोडता हुआ
अपनी निश्छल
मुस्कुराहट के तीखे तीर
जो चुभते तो हैं
पर होने नहीं देते
दर्द का एहसास
नोटों से बिक चुके
पत्थर दिलों को।
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
15 April 2014
आओ मतदान करें................अमित बैजनाथ गर्ग 'जैन'
अम्मा भूखी है, बच्चे बिलख रहे हैं, काका रो रहा है, अंगारे सुलग रहे हैं
सिसकती रूह को चुप कराने के लिए, अंधेरे में उजाले चमकाने के लिए
आओ मतदान करें...
कर्ज लेकर कई हरसूद मर रहे हैं, बूढ़े बाप बेटी के लिए तरस रहे हैं
बुझे हुए चूल्हों को जलाने के लिए, खेतों पर बादल बरसाने के लिए
आओ मतदान करें...
कौओं की पांख खुजलाने के लिए, खामोश चक्की को जगाने के लिए
भूखे-नंगे बदन को छुपाने के लिए, तन को निवाला खिलाने के लिए
आओ मतदान करें...
इंतजार को सिला दिलाने के लिए, कोशिशों को आजमाने के लिए
बहरों को नींद से उठाने के लिए, बिछड़ों को फिर मनाने के लिए
आओ मतदान करें...
सुलगते दंगों को बुझाने के लिए, अबला को सबल बनाने के लिए
आशा का दीया जलाने के लिए, खोया विश्वास जगाने के लिए
आओ मतदान करें...
जेलों से झांकती आहों के लिए, बॉर्डर को ताकती निगाहों के लिए
घर की ओर जाती राहों के लिए, जिस्म से लिपटी बांहों के लिए
आओ मतदान करें...
काशी-काबा संग लाने के लिए, सभ्यता-संस्कृति बचाने के लिए
विकसित अमन बनाने के लिए, चांद को भी चमन बनाने के लिए
आओ मतदान करें...
खेतों में हल उठाने के लिए, डूबते बाजार बचाने के लिए
उदास संसद बहलाने के लिए, धूर्तों को सबक सिखाने के लिए
आओ मतदान करें...
मंदिर-मस्जिद का बैर मिटाने के लिए, सूनी मांगों को फिर सजाने के लिए
धर्मों में सच्ची आस्था जगाने के लिए, शांति के परिंदों को उड़ाने के लिए
आओ मतदान करें...
- अमित बैजनाथ गर्ग 'जैन'
सिसकती रूह को चुप कराने के लिए, अंधेरे में उजाले चमकाने के लिए
आओ मतदान करें...
कर्ज लेकर कई हरसूद मर रहे हैं, बूढ़े बाप बेटी के लिए तरस रहे हैं
बुझे हुए चूल्हों को जलाने के लिए, खेतों पर बादल बरसाने के लिए
आओ मतदान करें...
कौओं की पांख खुजलाने के लिए, खामोश चक्की को जगाने के लिए
भूखे-नंगे बदन को छुपाने के लिए, तन को निवाला खिलाने के लिए
आओ मतदान करें...
इंतजार को सिला दिलाने के लिए, कोशिशों को आजमाने के लिए
बहरों को नींद से उठाने के लिए, बिछड़ों को फिर मनाने के लिए
आओ मतदान करें...
सुलगते दंगों को बुझाने के लिए, अबला को सबल बनाने के लिए
आशा का दीया जलाने के लिए, खोया विश्वास जगाने के लिए
आओ मतदान करें...
जेलों से झांकती आहों के लिए, बॉर्डर को ताकती निगाहों के लिए
घर की ओर जाती राहों के लिए, जिस्म से लिपटी बांहों के लिए
आओ मतदान करें...
काशी-काबा संग लाने के लिए, सभ्यता-संस्कृति बचाने के लिए
विकसित अमन बनाने के लिए, चांद को भी चमन बनाने के लिए
आओ मतदान करें...
खेतों में हल उठाने के लिए, डूबते बाजार बचाने के लिए
उदास संसद बहलाने के लिए, धूर्तों को सबक सिखाने के लिए
आओ मतदान करें...
मंदिर-मस्जिद का बैर मिटाने के लिए, सूनी मांगों को फिर सजाने के लिए
धर्मों में सच्ची आस्था जगाने के लिए, शांति के परिंदों को उड़ाने के लिए
आओ मतदान करें...
- अमित बैजनाथ गर्ग 'जैन'
078770 70861
कवि. लेखक. पत्रकार. प्रेस सलाहकार.
amitbaijnathgarg@gmail.com
amitbaijnathgarg@gmail.com
प्रस्तुति-आदरणीया प्रियंका जैन जी से प्राप्त ईमेल के सौजन्य से
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
14 April 2014
बदलाव का दौर
जब महका करता था
हर गली कूंचा
फूलों की खुशबू से
और उस खुशबू को
अपने आगोश में ले कर
सुबह और शाम की
ठंडी हवा
फैला दिया करती थी
पूरे मोहल्ले में .....
जब इसी खुशबू को साथ लिये
डाल डाल पर बैठे पंछी
छेड़ा करते थे सरगम
और उसकी धुन पर
नाचा करते थे
छोटे छोटे बच्चे .....
बेखौफ निकलकर बाहर
घर की चारदीवारी से
रोज़ मिलते थे गले
अमीर और गरीब
सिर्फ उम्र के लिहाज के साथ
मगर आज ......?
आज क्यारियों से सिमट कर
फूलों की वह खुशबू
बोन्साई का रूप धर कर
कैद हो गयी है
छोटे छोटे गमलों के
दम घोटते दड़बों में ....
हवा आज भी चलती है
पर उड़ाती चलती है
नये बनते
मकानों के बाहर
फैली रेत और मौरंग.....
पंछी अब भी बैठते हैं
मगर डालों पर नहीं ....
घर के छज्जों पर लगे
कूलरों की
घड़ घड़ आवाज़
दबा देती है
सरगम के सुर .....
अब बच्चे नाचते नहीं
नचाया करते हैं
कीबोर्ड और माउस पर
अपनी नन्ही उँगलियाँ
दिखाया करते हैं करतब
स्क्रीन पर चलते
वीडियो गेम्स के ....
अब मिलते नहीं गले
मोहल्ले के अमीर-गरीब
क्योंकि उनके घरों के बीच
खुद चुकी है
दूरियों की गहरी खाई ....
वो दौर और था
यह दौर और है
आने वाला दौर
कुछ और होगा
पर क्या यह बदलाव
बदल सकेगा रंग
इन्सानों
और
जानवरों की
रग रग में बहते
लाल खून का ?
~यशवन्त यश©
हर गली कूंचा
फूलों की खुशबू से
और उस खुशबू को
अपने आगोश में ले कर
सुबह और शाम की
ठंडी हवा
फैला दिया करती थी
पूरे मोहल्ले में .....
जब इसी खुशबू को साथ लिये
डाल डाल पर बैठे पंछी
छेड़ा करते थे सरगम
और उसकी धुन पर
नाचा करते थे
छोटे छोटे बच्चे .....
बेखौफ निकलकर बाहर
घर की चारदीवारी से
रोज़ मिलते थे गले
अमीर और गरीब
सिर्फ उम्र के लिहाज के साथ
मगर आज ......?
आज क्यारियों से सिमट कर
फूलों की वह खुशबू
बोन्साई का रूप धर कर
कैद हो गयी है
छोटे छोटे गमलों के
दम घोटते दड़बों में ....
हवा आज भी चलती है
पर उड़ाती चलती है
नये बनते
मकानों के बाहर
फैली रेत और मौरंग.....
पंछी अब भी बैठते हैं
मगर डालों पर नहीं ....
घर के छज्जों पर लगे
कूलरों की
घड़ घड़ आवाज़
दबा देती है
सरगम के सुर .....
अब बच्चे नाचते नहीं
नचाया करते हैं
कीबोर्ड और माउस पर
अपनी नन्ही उँगलियाँ
दिखाया करते हैं करतब
स्क्रीन पर चलते
वीडियो गेम्स के ....
अब मिलते नहीं गले
मोहल्ले के अमीर-गरीब
क्योंकि उनके घरों के बीच
खुद चुकी है
दूरियों की गहरी खाई ....
वो दौर और था
यह दौर और है
आने वाला दौर
कुछ और होगा
पर क्या यह बदलाव
बदल सकेगा रंग
इन्सानों
और
जानवरों की
रग रग में बहते
लाल खून का ?
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
10 April 2014
अधिकार और कर्तव्य
जो अधिकार है
कभी कभी
होता है
वह भी कर्तव्य ....
और जो
कर्तव्य है
कभी कभी
होता है
वह भी अधिकार ....
फिर भी कुछ लोग
नहीं कर पाते
सच को स्वीकार .....
उनके मन का अंधेरा
निकलने नहीं देता
रोशनी के पार
और वह
काटते रहते हैं
चक्कर
अपनी उसी सोच के
चारों ओर ....
उन्हें आदत है
सुनने की
बरसों से बजती
वही जिद्दी धुन
नयी सरगम से बेखबर
जिसका हर राग
अभ्यस्त है
खुद को दोहराते रहने का ....
और इसीलिए
परिवर्तन की हवा
उनकी परिधि से बाहर
बहते रह कर
निभाती चलती है
अपना कर्तव्य
अपना अधिकार
बिना सोच
बिना विचार
यह जानकर भी
कि अनचाहे
अनजाने ही
उसे निकल जाना है
छू कर
अस्तित्व खोतीं
उन चट्टानों को
जो कभी
अड़ी खड़ी थीं
पहाड़ की तरह।
~यशवन्त यश©
कभी कभी
होता है
वह भी कर्तव्य ....
और जो
कर्तव्य है
कभी कभी
होता है
वह भी अधिकार ....
फिर भी कुछ लोग
नहीं कर पाते
सच को स्वीकार .....
उनके मन का अंधेरा
निकलने नहीं देता
रोशनी के पार
और वह
काटते रहते हैं
चक्कर
अपनी उसी सोच के
चारों ओर ....
उन्हें आदत है
सुनने की
बरसों से बजती
वही जिद्दी धुन
नयी सरगम से बेखबर
जिसका हर राग
अभ्यस्त है
खुद को दोहराते रहने का ....
और इसीलिए
परिवर्तन की हवा
उनकी परिधि से बाहर
बहते रह कर
निभाती चलती है
अपना कर्तव्य
अपना अधिकार
बिना सोच
बिना विचार
यह जानकर भी
कि अनचाहे
अनजाने ही
उसे निकल जाना है
छू कर
अस्तित्व खोतीं
उन चट्टानों को
जो कभी
अड़ी खड़ी थीं
पहाड़ की तरह।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
07 April 2014
आओ चलें
आओ चलें
तंत्र की यह पुकार है
आओ चलें
माना अलग विचार हैं
आओ चलें
धारा को जो स्वीकार है
आओ चलें
धूप या बरसात में
आओ चलें
बर्फ की बौछार में
आओ चलें
हर वेश में परिवेश में
आओ चलें
स्वतन्त्रता तैयार है
आओ चलेंहर कोई होशियार है
आओ चलें
इससे पहले कि पछताएँ
आओ चलें
इस काम में क्यों शरमाएँ
आओ चलें
आओ चलें आओ चलें
आओ चलें
मतदान का कर्तव्य
हर हाल में पूरा करें
आओ चलें ।
~यशवन्त माथुर ©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
04 April 2014
आपका मत अनिवार्य है....यशोदा अग्रवाल
यशोदा दीदी के ब्लॉग से उनकी यह रचना (http://4yashoda.blogspot.in/2014/04/blog-post_3.html)
बिना अनुमति यहाँ भी संकलित कर रहा हूँ।
आशा है कि इस ब्लॉग के सम्मानित पाठकगण उनकी इस रचना के मर्म को समझेंगे और इन चुनावों में मतदान के अपने कर्तव्य को निभाएंगे भी।
आपका मत
अनिवार्य है....
महिला हों या
पुरुष, आप
चुनावों के जरिये
चुनी जाने वाली
सरकार....
व्यक्ति विशेष नहीं
हर व्यक्ति
के जीवन को
प्रभावित करेगी।
फिर हम
इन चुनावों से
अछूते क्यों रहें !!
आईये...
इस मत-महोत्सव
को सफल बनाएँ
सोच-समझकर
न्याय पूर्वक
मतदान करें....
और लोकतंत्र के
इस अद्भुत
मत-महोत्सव में
अपनी भागीदारी
दर्ज करें
और ध्यान रखें
कभी भी
नोटा का
उपयोग न करें
इससे आपका नहीं
अयोग्य प्रत्याशी
का भला होगा....
-यशोदा ©
(प्रेरणा प्राप्त मधुरिमा से)
बिना अनुमति यहाँ भी संकलित कर रहा हूँ।
आशा है कि इस ब्लॉग के सम्मानित पाठकगण उनकी इस रचना के मर्म को समझेंगे और इन चुनावों में मतदान के अपने कर्तव्य को निभाएंगे भी।
आपका मत
अनिवार्य है....
महिला हों या
पुरुष, आप
चुनावों के जरिये
चुनी जाने वाली
सरकार....
व्यक्ति विशेष नहीं
हर व्यक्ति
के जीवन को
प्रभावित करेगी।
फिर हम
इन चुनावों से
अछूते क्यों रहें !!
आईये...
इस मत-महोत्सव
को सफल बनाएँ
सोच-समझकर
न्याय पूर्वक
मतदान करें....
और लोकतंत्र के
इस अद्भुत
मत-महोत्सव में
अपनी भागीदारी
दर्ज करें
और ध्यान रखें
कभी भी
नोटा का
उपयोग न करें
इससे आपका नहीं
अयोग्य प्रत्याशी
का भला होगा....
-यशोदा ©
(प्रेरणा प्राप्त मधुरिमा से)
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
02 April 2014
वक़्त के कत्लखाने में -5
वक़्त के कत्लखाने में
कैद जिंदगी
कभी कभी देख लेती है
उखड़ती साँसों की
खिड़कियों के
पर्दे हटा कर
बाहर की दुनिया
और हो जाती है हैरान
झोपड़ियों को घूरती
महलों की नज़रें देख कर ....
आज नहीं तो कल
फूस के ये नन्हें मकान
या तो खिसक जाएंगे
दो कदम आगे
या तो बदल लेंगे
खुद का रूप
या सिमट जाएंगे
लॉन की
हरी घास बन कर ....
शायद इसीलिए खुश है
जिंदगी
उखड़ती साँसों के
पर्दे डली
खिड़कियों के भीतर
वक़्त के कत्लखाने में
जिसके अंधेरे तहखाने की
सीढ़ियाँ
चढ़ती-उतरती है
अपनी मर्ज़ी से
बाहर के अंधेरे-उजालों से
बे परवाह हो कर।
~यशवन्त यश©
कैद जिंदगी
कभी कभी देख लेती है
उखड़ती साँसों की
खिड़कियों के
पर्दे हटा कर
बाहर की दुनिया
और हो जाती है हैरान
झोपड़ियों को घूरती
महलों की नज़रें देख कर ....
आज नहीं तो कल
फूस के ये नन्हें मकान
या तो खिसक जाएंगे
दो कदम आगे
या तो बदल लेंगे
खुद का रूप
या सिमट जाएंगे
लॉन की
हरी घास बन कर ....
शायद इसीलिए खुश है
जिंदगी
उखड़ती साँसों के
पर्दे डली
खिड़कियों के भीतर
वक़्त के कत्लखाने में
जिसके अंधेरे तहखाने की
सीढ़ियाँ
चढ़ती-उतरती है
अपनी मर्ज़ी से
बाहर के अंधेरे-उजालों से
बे परवाह हो कर।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
01 April 2014
वक़्त के कत्लखाने में - 4
टंगा हुआ है
एक आईना
वक़्त के कत्लखाने में
देख कर जिसमें
खुद का अक्स
अक्सर गुनगुनाती है जिंदगी
बीते दौर के नगमे
जो सहेजे हुए हैं
मन की एल्बम के
हर पन्ने पर .....
इन नगमों में
दर्द है
मस्ती है
बहती नदियां
और उनमें
तैरती कश्ती है
जो चलती जा रही है
अपनी मंज़िल की ओर
भँवरों में फंस कर
उबरते हुए
तेज़ लहरों में डगमगा कर
संभलते हुए .....
इन नगमों में
तस्वीरें हैं
उस बीते दौर की
जब खिलखिलाती थी
जिंदगी
हलाल होने को
वक़्त के
इसी कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
एक आईना
वक़्त के कत्लखाने में
देख कर जिसमें
खुद का अक्स
अक्सर गुनगुनाती है जिंदगी
बीते दौर के नगमे
जो सहेजे हुए हैं
मन की एल्बम के
हर पन्ने पर .....
इन नगमों में
दर्द है
मस्ती है
बहती नदियां
और उनमें
तैरती कश्ती है
जो चलती जा रही है
अपनी मंज़िल की ओर
भँवरों में फंस कर
उबरते हुए
तेज़ लहरों में डगमगा कर
संभलते हुए .....
इन नगमों में
तस्वीरें हैं
उस बीते दौर की
जब खिलखिलाती थी
जिंदगी
हलाल होने को
वक़्त के
इसी कत्लखाने में।
~यशवन्त यश©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
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