अंधेरे हैं, अंधेरे ही रहने दो।
मुखौटों के पीछे, मुखौटे ही रहने दो।
डर लगता है, सच के बाहर आने से।
जो दबा है भीतर, भीतर ही रहने दो।
हो गया उजास, तो नाकाबिल हो जाऊंगा मैं।
मुकाबिल होके जमाने का, खो जाऊंगा मैं।
हैं हरे अब भी ज़ख्म, उन बीत चुकी बातों के।
फिर सींच दिया, तो सूख कर बिखर जाऊंगा मैं।
इसलिए अच्छा है कि जो हो रहा है, होने दो।
वक़्त गर्द में कहीं खो रहा है, खोने दो।
-यशवन्त माथुर ©
-यशवन्त माथुर ©
01072020
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