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10 September 2013

बस ऐसे ही 'एक' के अनेक हो जाते हैं

फोटो साभार-Gregg Braden
रंग अलग
रूप अलग
पसंद अलग
नापसंद अलग
हो सकता है
वेश और परिवेश अलग
भाषा और देश अलग
जाति और धर्म अलग 
फिर भी भीतर से
एक ही है
हमारा ढांचा
बिल्कुल
उसी साँचे की तरह
जिसमे रख कर
ढाला गया है
तन की मिट्टी को  
स्त्री और पुरुष बना कर
जाने कितने रंग
और रूप बना कर ।

साँसों की अमानत
साथ में लिये
वक़्त की ज़मीं -
आसमां हाथ में लिये 
जाने क्यूँ चलते चलते
रुक जाते हैं कदम
किस नशे में क्यूँ इतना
बहक जाते हैं हम।

कहीं गिराते हैं बम
कहीं छुरे चाकू चलाते हैं 
बस ऐसे ही 'एक' के
अनेक हो जाते हैं ।

~यशवन्त यश©

11 comments:

  1. सार्थक अभिव्यक्ति
    हार्दिक शुभकामनायें

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - बुधवार - 11/09/2013 को
    आजादी पर आत्मचिन्तन - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः16 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra





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  3. किस नशे में क्यूँ इतना
    बहक जाते हैं हम।

    कहीं गिराते हैं बम
    कहीं छुरे चाकू चलाते हैं

    बहुत खूब....

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  4. इस सत्य का भान हो जाए हम सबको फिर कोई समस्या नहीं रहेगी...

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  5. गहरी सोच ,सुन्दर रचना
    latest post: यादें

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  6. सच में ...पर कई कहाँ समझना चाहता है ...

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  7. एक में अनेक को देखना और अनेक में एक को देखना...यही तो देखना है

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  8. सब कुछ एक होते हुए भी कुछ मामले में हम अलग क्यों..... यही एक सवाल है......

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  9. एक में अनेक और अनेक में एक यही तो शाश्वत सत्य है..

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  10. खुबसूरत अभिवयक्ति...

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