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26 November 2019

फिर भी चलते जाने को............

होती शुरू कहीं से धारा
कहीं मिल कर खो जाने को
कितने ही पड़ाव सहेजती
भविष्य से कह कर जाने को।

उठती-गिरती दर्द को सहती
पथ को अपने चलती रहती
जब तक मिल न जाती उसको
कोई मंजिल तर  जाने को।

ऐसी ही एक धारा बन कर
काश! कि मैं भी चलता जाता
राहों की कुछ सुनता जाता
और कुछ अपनी कहता जाता।

लेकिन जाने क्यूँ अब मुझको
मेरा मैं विद्रोही लगता
माना मनाता समय ये मुझको
मैं तब भी विपरीत ही चलता।

संघर्ष ही है सच्चा साया
समय पर साथ निभाने को
भले ही काँटे बिछे राह में
फिर भी चलते जाने को।

-यशवन्त माथुर© 
26/11/2019 


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