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25 November 2021

गर कुछ लिखा न जा सका....

गहराती रात के साथ
शब्द भी खो जाते हैं
कहीं गहरी नींद में
अक्षर भी सो जाते हैं ...
जो दिन में
मन के कहीं भीतर उभर कर
सफर तय करते हैं
होठों से उंगलियों में जकड़ी
कलम तक का
लेकिन शाम होते होते
कागज की देहरी पर
विस्मृत हो जाते हैं..
विलुप्त हो जाते हैं..
क्योंकि अंधेरे की आहट पाकर
अवचेतन ओढ़ लेता है
आलस्य की लंबी चादर
और फिर
अर्द्ध मूर्च्छा में
रह जाता है
इंतजार
सिर्फ उस सुबह का
जिसमें
गर कुछ लिखा न जा सका
तो फिर से चलने लगता है
कटु सत्य की धुरी पर
समय का वही चक्र।

-यशवन्त माथुर©

24112021

5 comments:

  1. अपने ही मन की प्रतिध्वनि प्रतीत हो रहे हैं ये शब्द।

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26.11.2021 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4260 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  3. वाक़ई, सुबह सुबह लिखना सरल होता है, दिन भर की आपाधापी में शाम होते-होते मन की सहज मुखरता कहीं खो जाती है

    ReplyDelete
  4. क्योंकि अंधेरे की आहट पाकर
    अवचेतन ओढ़ लेता है
    आलस्य की लंबी चादर
    और फिर
    अर्द्ध मूर्च्छा में
    रह जाता है
    इंतजार।
    सच कहा आपने ।
    एहसासों का अप्रतिम सृजन।

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