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06 November 2022

नहीं जानता....

नहीं जानता 
कि मेरा अंतर्मन 
कब-क्या-कहाँ 
कैसे 
कहीं उड़ जाना चाहता है
इस लोक की परिधि में 
उस लोक का 
वास्तविक आभास कर 
गहरे काले 
अंतरिक्ष में हर तरफ 
छिटके हुए 
शब्दों-वर्णों को सहेजकर  
बिना वजह  
बिना किसी 
संदर्भ-अर्थ 
और 
बिना किसी व्याख्या के ही 
न जाने क्यों 
उजले पन्नों पर 
स्याह होकर
बिखर जाना चाहता है।  
नहीं जानता
कि विकार होते हुए भी 
निर्विकार होने की 
आत्ममुग्धता का 
सुख भोग कर 
मेरा अंतर्मन 
अपनी कल्पना के 
न जाने किस चरम पर 
क्या कहना 
और क्या 
लिखवाना चाहता है... 
बस जानता है 
तो सिर्फ इतना 
कि 
खुद के चाहने भर से 
पल भर में ही 
वह घूम सकता है
सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म 
किसी 
असीम बिन्दु के 
चारों ओर। 

-यशवन्त माथुर©
29092022

4 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०७-११-२०२२ ) को 'नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है'(चर्चा अंक-४६०५) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. अनंत की ओर ले जाती काव्यधारा

    ReplyDelete
  3. ये नहीं जानकर ही वो हुआ जाता है। हृदय स्पर्शी सृजन।

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