उजालों की तलाश में आया था, अंधेरे मिले।
जब अंधेरे पसंद आए, सुनहरे सवेरे मिले।
और फिर ऐसा ही अक्सर होता गया।
जो अच्छा लगता, दूर होता गया।
चाहत फूलों की की, गले कांटे मिले।
हर कदम पे झूठे वादे मिले।
किसी ने कहा था कि फरिश्ता हूं मैं।
दोस्ती का सच्चा रिश्ता हूं मैं।
मगर अब जान पाया, कि सिर्फ छला ही गया।
एकतरफा खुद ही था, मिला ही क्या।
मिल कर सब रंग भी, बे रंग ही मिले।
बंद मुट्ठी में बचे सिर्फ शिकवे- गिले।
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- यशवन्त माथुर©
03092023
सुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह ! सुनहरे सवेरे मिले ! यही तो सच है शेष सब तो छलावा है ही
ReplyDeleteइस कविता के भाव को मैं अपने भीतर अनुभव कर रहा हूँ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
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