कदम गिने बगैर राह पर चलता रहा।
बेहिसाब वक्त से सवाल करता रहा।
लोग कोशिश करते रहे बैसाखी बनने की।
सहारा जब भी लिया, मैं गिरता रहा।
माना कि बेहोश था, होश में आने के पहले।
ज़माना जीता रहा और मैं मरता रहा।
~यशवन्त माथुर©
20072025
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।