वो सामने की सड़क
जिस पर खड़े हुए हैं महल-अटारी
जगमग जहाँ दिन रात हुए हैं
आलिशान हैं मोटर गाड़ी
वो महलों में रहने वाले
जो उड़न खटोलों में चलते हैं
जिनकी अपनी शान निराली
जो गर्दन सीधी कर चलते हैं
वो उन महलों की नारियां
खुला तन जिनका स्वाभिमान
और वो उन के रईसज़ादे
विलासितामय जिनका बचपन
मैं अक्सर देखता हूँ उनको
और फिर कहता हूँ खुदको
काश! उनके जैसा मैं भी होता
तो फिर गरीबी में न रहता
पर सड़क के उस पार
जहाँ वो टूटी फूटी झोपड़ पट्टी
जिसमें रात भर अँधेरा रहता
न दिया जलता न कोई बत्ती
उन झोपड़ियों में रहने वालों को
जो महनत मजदूरी करते हैं
साधारण सा उन का जीवन
जो इतने में ही खुश रहते हैं
वो झोपड़ियों की नारियां
छिपाती जो हैं अपना तन
जिनके खेलते नंगे बच्चे
साधारण सा जिनका बचपन
मैं अक्सर देखता हूँ उनको
और फिर से खुद को कहता हूँ
हाँ!! हाँ! मैं हूँ भारत का आम आदमी
मैं आजादी से रहता हूँ.
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