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04 December 2013

सोते हैं हर समय कभी तो जागते भले

 -पेश है मन की कही कुछ बेतुकी सी-

कुछ नहीं तो रात में
सपने ही भले
तुम सोओ या जागो 
अब हम तो चले

बंद आँखों मे
खुद की तस्वीर देखेंगे
सुबह उठ कर शीशे में
माथे की लकीर देखेंगे

दिन मे यूं तो सब हमें
फकीर समझेंगे
हर शाम महलों के
अमीर समझेंगे

पर्दों-मुखौटों के हर राज़
नाराज़ हो चले
सोते हैं हर समय 
कभी तो जागते भले

कुछ नहीं तो रात में
सपने ही भले
गैरों की बारात में
अपने ही भले

सोना चांदी नहीं टकसाल में
भले कांसा ही ढले
कुछ भी नहीं बाज़ार में
अब हम तो चले। 

 ~यशवन्त यश

9 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (05-12-2013) को "जीवन के रंग" चर्चा -1452
    पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत खूब...बंद आँखों में देखना आ जाये तो सारे राज खुलने लगते हैं...

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  3. बहुत सुन्दर..बेहतरीन रचना...

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  4. बहुत सुन्दर यश...
    बंद आँखों में दीदार तेरा हो ...

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  5. बहुत ही अच्छी लगी रचना........शुभकामनायें ।
    सुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा शनिवार 07/12/2013 को चलो मिलते हैं वहाँ .......( हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल : 054)
    - पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर ....

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  7. बहुत सुन्दर

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  8. बहुत सुन्दर

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