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14 June 2014

आखिर क्यों

अभी 2 घंटे पहले घर के ऊपर आसमान मे काला धुआँ छाया रहा। पता चला है कि लखनऊ मे सीतापुर  रोड पर किसी प्रतिष्ठान में भीषण आग लगी है।हालांकि अब आसमान साफ है फिर भी इस धुएँ ने जो मेरे मन से कहा उसे निम्न शब्दों में व्यक्त कर रहा हूँ-

[घर की बालकनी से लिया गया यह चित्र उसी धुएँ का है।]
कभी मन के भीतर
कभी मन के बाहर
आखिर क्यों
दहक उठते हैं अंगारे
गुज़रे वक़्त के पीपों में भरी
ज्वलनशील बातों के
छलकने भर से  ....
आखिर क्यों
भड़क उठती हैं
घनघोर धुएँ को साथ लिए 
ऊंची ऊंची लपटें
जो समेट लेती हैं
खुद के भीतर
अनगिनत बीते कलों को ....
और आखिर क्यों 
सब कुछ भस्म हो चुकने बाद
बचती है
तो सिर्फ नमी ....
कुछ लहरें ...
आँखों से निकलीं 
कुछ पानी की बूंदें  ...
मन की जली हुई
दीवारों
और ज़मीं पर
जिनका अस्तित्व
संघर्ष करता सा लगता है
दम घोंटती गंध से
पार पाने को ...
आखिर क्यों
आपस मे जुड़ा है
विनाश
और विकास का यह वृत्त ....
इन सवालों के 
कई जवाबों में से
मुझे मिल न सका अब तक
मेरे मन का
सही-सटीक जवाब  ....
कभी मन के भीतर
कभी मन के बाहर
आखिर क्यों
इस कदर
भड़क उठती है आग ?

~यशवन्त यश©


[इस धुएँ की सही खबर आज-15 जून के अखबार से पता चली। ]

9 comments:

  1. मन मन है आग भी है और पानी भी है ।
    बहुत सुंदर ।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-06-2014) को "बरस जाओ अब बादल राजा" (चर्चा मंच-1644) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  3. सही कहा आपने।

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  4. विनाश और विकास का वृत्त जाने किस ओर ले जा रहा है .... विचारणीय भाव

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  5. सटीक चित्रण...

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  6. आदमी को मिले हैं दो हाथ एक जोडने दूसरा तोडने
    दोनो ही कर रहे हैं काम, कैसे मिले इसको आराम।

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  7. बहुत सुन्दर भाव...

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  8. मार्मिक रचना...रुहानी कसमकस को बयां करती प्रस्तुति।।।

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