आज की नींव पर
गाता हूँ
मैं
कल की
सँवरी इमारत का राग
छैनी हथोड़ी की सरगम
और ईंटों का साज़
सुना देता है
मेरे मन के
भीतर की आवाज़ ....
मैं
रूप धरता हूँ
कभी बढ़ई का
कभी राजमिस्त्री का
और कभी
नज़र आता हूँ
सिर और पीठ पर
किस्मत का
बोझा उठाए
साधारण
बेलदार के रूप में ....
मेरी झोपड़ी में
चहल पहल नहीं
हलचल नहीं
मेरे ही बनाए
आपके महलों की तरह
रेशमी पर्दे नहीं ...
मैं
बे पर्दा हूँ
क्योंकि
खुशी
और गम छुपाने को
न कल था
न आज मजबूर हूँ
मैं
मजदूर हूँ। ~यशवन्त यश©
बहुत ही भावपूर्ण रचना। यश जी सचमुच मजदुर की भावानुभूति बहुत ही गहरी की है आपने
ReplyDeleteवाह यशवंत ..बहुत अच्छा लिखा है
ReplyDeleteवाह ! बहुत प्रभावशाली पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-07-2014) को "बरसो रे मेघा बरसो" {चर्चामंच - 1665} पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया :)
ReplyDeleteआह! एक मजदूर मजबूरियों को सही दिए हैं आपने यशवंत भाई! सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteसादर
मधुरेश
भावपूर्ण .... ये तो जीवन गढ़ते है ...
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteआप की ये खूबसूरत रचना...
ReplyDeleteदिनांक 07/07/2014 की नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है...
आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित हैं...आप के आगमन से हलचल की शोभा बढ़ेगी...
सादर...
कुलदीप ठाकुर...
आप की ये खूबसूरत रचना...
ReplyDeleteदिनांक 07/07/2014 की नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है...
आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित हैं...आप के आगमन से हलचल की शोभा बढ़ेगी...
सादर...
कुलदीप ठाकुर...
badhiya likha hai yashwant ji ..bahut samay baad labour class ke baare mein aisi koi rachna padhi .. kuchh waqt pahle kaifi aazmi ki nazm "makan" padhi thi wahi yaad aa gai.
ReplyDeletebahut khoob likha hai aapne... sunder rachna
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