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29 September 2014

मैं 'देवी' हूँ-3 (नवरात्रि विशेष)

ओ इन्सानों !
हर दिन
न जाने
कितनी ही जगह
न जाने
कितनी ही बार
करते हो
कितने ही वार
कभी मेरे जिस्म पर
कभी मेरे मन पर
समझते हो
सिर्फ अपनी कठपुतली
तो फिर आज
क्यों याद आयीं तुम्हें
वैदिक सूक्तियाँ
श्लोक और मंत्र
क्या इसलिए
कि यह आडंबर
अपने चोले के भीतर
ढके रखता है
तुम्हारे कुकर्मों का
काला सच ?
पर याद रखना
आज नहीं तो कल
तुम्हें भस्म होना ही है
मेरी छाया की परिधि
के भीतर
चक्रव्यूह में
जिसे रोज़ रचती हूँ
मैं देवी हूँ।

~यशवन्त यश©
owo-17092014

3 comments:

  1. इसीलिए तो संसार की सबसे खुबसुरत कृति के आगे "देवी" लगाते है ...लेकिन नासमझो की भी कमी नहीं खलती यहाँ.

    खुबसुरत रचना.

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  2. बहुत ही रहिस्य से भरी पँक्तियाँ
    आपना ब्लॉग , सफर आपका ब्लॉग ऍग्रीगेटर पर लगाकर अधिक लौगो ता पँहुचाऐ

    ReplyDelete
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