पीठ पर लादे भारी भरकम सा बस्ता
जिसके भीतर उसका हर ज्ञान सिमटता
कभी करती हुई बातें संगी साथियों से
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से
कभी हाथ थामे अपने किसी बड़े का
गुनगुनाती हुई कोई प्यारी सी कविता
खुश होता है मन उसकी शरारतों से
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से
उसे नहीं पता क्या दुनिया के तमाशे हैं
उसे तो चंद खुशियों के पल ही भाते हैं
बेखबर गुज़रती है बचपन की राहों से
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से।
~यशवन्त यश©
बहुत सुन्दर एवं ताज़गी भरी रचना !
ReplyDeleteबहुत प्यारी भावपूर्ण रचना...
ReplyDeletebahut hi badhiya
ReplyDeleteख़ूबसूरत अभिव्यक्ति…
ReplyDeleteवो दिन ही तो जावन के सबसे अच्छे दिन होते हैं ...
ReplyDeleteलाजवाब रचना ...