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01 November 2014

वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से

पीठ पर लादे भारी भरकम सा बस्ता
जिसके भीतर उसका हर ज्ञान सिमटता 
कभी करती हुई बातें संगी साथियों से
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से 

कभी हाथ थामे अपने किसी बड़े का 
गुनगुनाती हुई कोई प्यारी सी कविता 
खुश होता है मन उसकी शरारतों से 
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से

उसे नहीं पता क्या दुनिया के तमाशे हैं 
उसे तो चंद खुशियों के पल ही भाते हैं  
बेखबर गुज़रती है  बचपन की राहों से 
वो निकलती है रोज़ मेरे घर के सामने से। 

~यशवन्त यश©

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर एवं ताज़गी भरी रचना !

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  2. बहुत प्यारी भावपूर्ण रचना...

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  3. ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति…

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  4. वो दिन ही तो जावन के सबसे अच्छे दिन होते हैं ...
    लाजवाब रचना ...

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