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11 September 2025

इस दौर में.......

रसातल में 
कहीं खोती जा रही हैं
हमारी भावनाएं,
शब्द और मौलिकता।
भूलते जा रहे हैं हम
आचरण,सादगी
और सहनशीलता।

कृत्रिम बुद्धिमतता 
के इस दौर में
हमारा मूल चरित्र
सिमट चुका है
उंगलियों की 
टंकण शक्ति की
परिधि के भीतर
जो अंतरजाल की 
विराटता के साथ 
सिर्फ बनाता है
संकुचित होती 
सोच का 
शोचनीय रेखाचित्र
क्योंकि वर्तमान 
तकनीकी सभ्यता वाला मानव
भूल चुका है
मानवता का 
समूल।

~यशवन्त माथुर©
11092025

4 comments:

  1. कड़वा किंतु सत्य यही है

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  2. सुंदर रचना

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  3. ये कविता पढ़कर सच में लगा कि आपने आज की हालत बिल्कुल साफ़ पकड़ ली है। हम सब फोन, स्क्रीन, कीबोर्ड में घुसकर खुद को छोटा कर रहे हैं। हम महसूस करने की जगह बस टाइप कर देते हैं, सोचने की जगह स्क्रॉल कर देते हैं। तकनीक बुरी नहीं है, पर हम उसकी पकड़ में आकर अपनी ही गहराई छोड़ रहे हैं। इंसान होना अब याद दिलाना पड़ रहा है।

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