रसातल में
कहीं खोती जा रही हैं
हमारी भावनाएं,
शब्द और मौलिकता।
भूलते जा रहे हैं हम
आचरण,सादगी
और सहनशीलता।
कृत्रिम बुद्धिमतता
के इस दौर में
हमारा मूल चरित्र
सिमट चुका है
उंगलियों की
टंकण शक्ति की
परिधि के भीतर
जो अंतरजाल की
विराटता के साथ
सिर्फ बनाता है
संकुचित होती
सोच का
शोचनीय रेखाचित्र
क्योंकि वर्तमान
तकनीकी सभ्यता वाला मानव
भूल चुका है
मानवता का
समूल।
~यशवन्त माथुर©
11092025
कड़वा किंतु सत्य यही है
ReplyDeleteसटीक
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteये कविता पढ़कर सच में लगा कि आपने आज की हालत बिल्कुल साफ़ पकड़ ली है। हम सब फोन, स्क्रीन, कीबोर्ड में घुसकर खुद को छोटा कर रहे हैं। हम महसूस करने की जगह बस टाइप कर देते हैं, सोचने की जगह स्क्रॉल कर देते हैं। तकनीक बुरी नहीं है, पर हम उसकी पकड़ में आकर अपनी ही गहराई छोड़ रहे हैं। इंसान होना अब याद दिलाना पड़ रहा है।
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