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15 October 2015

ये तर्क नेताजी का अपमान करते हैं--राजीव शुक्ल ( पूर्व केंद्रीय मंत्री व सांसद)

मैं यह बात कतई मानने को तैयार नहीं हूं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस बीसों साल भारत में या दुनिया में कहीं भी रूप बदलकर, छिपकर जीवन गुजारते रहे। यह बात और यह सोच अपने आप में नेताजी जैसे महान क्रांतिकारी का बहुत बड़ा अपमान है। एक बेखौफ, जुझारू और वीर पुरुष भला इस तरह छिपकर अपनी जिंदगी क्यों गुजारना चाहेगा? जो लोग इस तरह की दलील देते हैं, लगता है कि उन्हें न तो सुभाष चंद्र बोस के स्वभाव के बारे में ठीक से पता है और न ही वे उनके अदम्य साहस को ही अच्छी तरह से पहचानते हैं।

मेरे लिहाज से नेताजी सुभाष चंद्र बोस का परिवार प्रधानमंत्री से मिलकर सिर्फ यह जानना चाहता है कि विमान हादसे में उनकी मृत्यु हुई थी या नहीं? यदि नहीं, तो फिर उसके बाद वह कहां थे? यह किसी भी परिवार के लिए लाजमी है कि वह अपने किसी पूर्वज के बारे में जानकारी मांगे।

मुझे शिकायत सिर्फ उन लोगों से है, जो तरह-तरह के इंटरव्यू और बयान देकर यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि अमुक व्यक्ति दरअसल नेताजी थे, जो साधु बनकर रहे, फलां व्यक्ति नेताजी थे, जो ताशकंद मैन बनकर     रूस में रहे। कोई कहता है कि सुभाष बाबू  करीब 30 साल तक गुमनाम बनकर अयोध्या में रहे, तो कोई यह कहता है कि वह पंजाब में रहे; कोई कहता है कि वह कई बरस तक बिहार में थे, तो कोई कहता है कि वह जर्मनी में रहे। दावे तो ऐसे भी किए गए कि एक बार बाबा जयगुरुदेव के समर्थकों ने उन्हें कानपुर के फूलबाग मैदान में सुभाष चंद्र बोस घोषित कर उनके प्रकट होने का नाटक कराया और उसके बाद वहां मौजूद लाखों लोगों ने बाबा के उन समर्थकों से जमकर मारपीट की।

आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के सी सुदर्शन स्वयं इस बात पर हमेशा विश्वास करते रहे कि नेताजी नोएडा में रहते थे। और तो और, नेताजी के गृह प्रदेश की राजधानी कोलकाता में तो आज भी ऐसे तमाम बंगाली परिवार आपको मिल जाएंगे, जो यह मानते हैं कि 118 साल की उम्र में भी नेताजी जिंदा हैं, और कहीं पर छिपे हुए हैं, जिनको भारत सरकार जान-बूझकर नहीं खोज रही है।

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर नेताजी देश की आजादी के बाद भी वेश बदलकर  छिपकर  क्यों रहेंगे? ऐसा मानने वालों में कुछ लोगों का तर्क यह है कि क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध में उन्होंने ब्रिटेन के नेतृत्व वाले एलाइड देशों का विरोध किया था, इसलिए वह  ब्रिटिश सरकार के कानून के अधीन युद्ध अपराधी घोषित थे और अगर वह सामने आ जाते, तो उन्हें ब्रिटिश सरकार गिरफ्तार कर सकती थी। इसी डर से वह वेश बदलकर, और छिपकर रहे। मगर यह तर्क अपने आप में बेहद हल्का और अपमानजनक है। गुलाम भारत में आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जो व्यक्ति ब्रिटिश सरकार की जेल से नहीं डरा और  गांधी के सिद्धांतों से असहमत होते हुए अपना सैनिक संगठन बनाकर लड़ाई के लिए तैयार था, वह आजाद भारत में, जहां अंग्रेजों का कुछ भी नहीं रह गया था, भला उनकी जेल से क्यों डरेगा? ऐसे लोगों का एक और तर्क हो सकता है कि आजादी के बाद भी ब्रिटिश सरकार भारत सरकार पर दबाव डालकर उन्हें इंग्लैंड ले जाती और उन्हें जेल में डाल देती।

ऐसे लोगों से पूछने लायक एक ही सवाल है कि आजाद भारत में किस सरकार की इतनी हिम्मत हो सकती थी कि वह नेताजी को ब्रिटिश सरकार को सौंप देती? फिर अगर कोई हिमाकत करने की कोशिश भी करता, तो करोड़ों भारतीय उसके विरोध में खड़े हो जाते और जन भावनाएं अगर इतने बड़े पैमाने पर हों, तो भला किसकी ऐसी हिम्मत पड़ सकती है? और तो और, इन भावनाओं को देखते हुए भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी उनको देश के बाहर ले जाने पर रोक लगा देता और  फिर ब्रिटिश सरकार सालोंसाल अंतरराष्ट्रीय अदालत में लड़ती रहती। वैसे भी, ब्रिटेन की कोई सरकार सुभाष चंद्र्र बोस को सौंपने की मांग करती ही नहीं। इतना तो शायद  

अंग्रेज भी जानते थे कि यह काम कतई संभव नहीं है। कई बार ब्रिटेन ने खुद ही दुनिया के ऐसे बड़े लोगों के खिलाफ केस वापस ले लिए थे। वैसे आज भी न जाने कितने भारतीय अपराधी मजे से इंग्लैंड में रह रहे हैं और भारत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की छोटी-छोटी अदालतें उन्हें भारत सरकार को नहीं सौंप रही हैं। फिर भला भारत सरकार नेताजी सुभाष चंद्र्र बोस को अंग्रेजों के हवाले क्यों कर देती?

हाल ही में एक अभियान यह चला कि फैजाबाद के गुमनामी बाबा ही नेताजी थे। तमाम पत्रों का हवाला दिया गया, लेकिन कुछ साबित नहीं हो पाया। गुमनामी बाबा एक ऐसे साधु थे, जो परदे के  पीछे छिपकर रहते थे और किसी को अपना चेहरा नहीं दिखाते थे, इसलिए उन्हें नेताजी बताना लोगों को आसान लग रहा है। सवाल यह उठता है कि नेताजी भला फैजाबाद में क्यों रहेंगे? और फिर वह परदे के पीछे क्यों छिपेंगे? क्यों नहीं, उन्होंने कभी अपने भाई-भतीजे के परिवार से कोलकाता में मिलने की कोशिश की, उन्हें फोन क्यों नहीं किया, उन्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? जर्मनी में अपनी पत्नी और बेटी से कभी संपर्क क्यों नहीं किया? यह सब एक इंसान के लिए कैसे संभव है? चलिए, हम यह मान भी लें, तो आजाद हिंद फौज में जो लोग उनसे सबसे करीबी थे, उन तक उन्होंने कोई सूचना नहीं दी।

सबसे बाद तक तो उनकी घनिष्ठ सहयोगी डॉक्टर लक्ष्मी सहगल जीवित रहीं और 98 वर्ष की उम्र में पिछले साल कानपुर में उनका निधन हुआ। उन्होंने भी कभी यह नहीं बताया कि नेताजी का कभी कोई संदेश उन्हें मिला।
मेरा मानना है कि देश को इस तरह के विवाद से ऊपर उठकर नेताजी की स्मृति को संजोए रखना चाहिए और उससे प्रेरणा लेकर कई और नेताजी पैदा करने चाहिए, जो देश के लिए उतने ही समर्पित बन सकें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

साभार-'हिंदुस्तान'-15/10/2015 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शूुक्रवार (16-10-2015) को "अंधे और बटेरें" (चर्चा अंक - 2131) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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