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27 March 2020

कुछ कर नहीं सकता .......












ऐसे मंज़र हैं यहाँ
और वो कहते हैं
मतलब खुद से रखो
दूसरों की तो
दूसरे ही सोचते हैं।

कहीं घास चरता बचपन है
अपने घोंसले को लौटता बहुजन है
कहीं बदसलूकी है और
कहीं फेंका जा रहा राशन है।

कहीं मटर छीलते अफसरान
तीसरे पन्ने पर छापे जाते हैं
बरसते डंडों के निशान
कहीं पीठ पर पाए जाते हैं।

ये वो है जिसे अमीरी ने बोया
और गरीबी काट रही है
एक थे कभी जो उनको
ये मुसीबत बाँट रही है।

वो अब भी कायम हैं
अपनी स्वार्थी बातों पर
मैं अब भी कायम हूँ
अपने उन्हीं जज़्बातों पर।

ये जानकर भी
कि नाकारा हूँ
इन गलियों में घूमता
एक आवारा हूँ
चाहता हूँ कि
बना दूँ
इस मर्ज की
मैं ही कोई दवा
लेकिन
कुछ कर नहीं सकता
दुआ देने के सिवा ।

-यशवन्त माथुर ©
27/03/2020


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