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27 February 2021

हो उठता है......

क्यों दिल कभी यूं बेचैन हो उठता है,
रात ख्वाबों में छोड़ सुबह में खो उठता है। 

ये उजला फलक तुम्हारी रूह की तरह है,
तकता है एकटक तमन्ना छोड़ उठता है।

मेरा विषय नहीं है प्रेम फिर भी क्यों इन दिनों, 
पलकों की कोर पे ओस का जमना हो उठता है। 

बन कर सैलाब गुजरती है जब मिलने को समंदर में,
लबों के ढाल का मुकद्दर जवां हो उठता है।

जा रहा है वसंत मिलने को जेठ की दोपहरी से,
मन की देहरी को तपन का एहसास हो उठता है।

न था जो शायर और न ही होगा कभी,
बेमौसम ही शब्दों का वो पतझड़ हो उठता है।

-यशवन्त माथुर©
27022021

18 comments:

  1. न था जो शायर और न ही होगा कभी,
    बेमौसम ही शब्दों का वो पतझड़ हो उठता है।..उम्दा शेर ..
    सुन्दर गजल..

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  2. वाह , खूबसूरत ग़ज़ल ,यशवंत बहुत अरसे बाद तुमको पढ़ा ।

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  3. बहुत सुन्दर

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  4. बहुत ही खूबसूरत पंक्ति सर
    कृपया हमारे ब्लॉग पर भी आइए आपका हार्दिक स्वागत है और अपनी राय व्यक्त कीजिए!

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    Replies
    1. सादर धन्यवाद🙏
      जी हां आपका ब्लॉग देखा, अच्छा लगा। लिखते रहें।

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  5. वाह! बहुत ही ख़ूबसूरत सृजन।
    सादर

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  6. वाह ! वसंत जेठ से मिलने जा रहा है और मन तपा जा रहा है, बहुत सुंदर ! ऊपर ऊपर से न दिखे पर कविता की गहराई में प्रेम विषय न हो यह भला कैसे हो सकता है, शायर का दूसरा नाम ही प्रेम है, यह सारा आलम प्रेम से ही तो बना है प्रेम पर ही टिका है...

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  7. सादर धन्यवाद 🙏
    पता नहीं क्यों लेकिन प्रेम जैसे विषय पर लिखने में मुझे हिचक सी होती है। यह मेरा अब तक का दूसरा प्रयास ही है।

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    Replies
    1. प्रयास जारी रखिए, ईश्वर को प्रेम से ही पाया जा सकता है, कबीर दास ने कहा है न ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होये

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