ऊपर वाले की नेमत से मिली हैं दो आँखें
चार दीवारी की बंधी पट्टी के उस पार
देख नहीं सकता।
मैं महफूज हूँ अपनी ही चादर में सिमट कर
बाहर निकल कर खुले जिस्मों को
देख नहीं सकता।
नीरो की तरह बांसुरी बजा कर अपनी मस्ती में
मुर्दानि में झूमता हूँ किसी को रोता
देख नहीं सकता।
ऊपर वाले की नेमत से मिली हैं दो आँखें
इंसान के लबादे में इंसा को
देख नहीं सकता।
~यशवन्त माथुर©
प्रतिलिप्याधिकार/सर्वाधिकार सुरक्षित ©
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28 June 2013
देख नहीं सकता
प्रकाशन समय
7:49:00 am
प्रस्तुतकर्ता
यशवन्त माथुर (Yashwant Raj Bali Mathur)
श्रेणी
पंक्तियाँ,
व्यंगतियाँ



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WAAH BAHUT HI GAHAN BAT KAH DI KAVITA KE MADHAM SE .......
ReplyDeleteआज के इंसान की इंसानियत ऐसी ही हो गयी है... अच्छी प्रस्तुति !!
ReplyDeleteआपके जज़बात को नमन
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
बढिया कटाक्ष .......
ReplyDeleteshandar rachna....
ReplyDeletebahut sundar bat kahi hai . insaan to ab labadon men hi milane lage hain kitne hain jinka charitra aur man paardashi kaha jaay .
ReplyDeletesunder abhivyakti.
ReplyDeleteshubhkamnayen
sunder abhivyakti.
ReplyDeleteshubhkamnayen
बहुत बढियां
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeletetheme toh badiya hai par thodi adhoori si lagi .. ise kuchh aur badhaa sakte the aap abhi lagta hai ki abhi bhi kuchh ankaha rah gaya hai
ReplyDeletesarthak abhivaykti,,,
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी बात
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति आज अंतर्दृष्टि भी बाधित लगती है
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत खूब ...वैसे इन्सान समझ भी कहां आता है ..
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति..
ReplyDeleteआज की इंसानियत कहे या इन्सान का स्वार्थ और उसकी व्यस्तता
वाह, बहुत खूब कही!
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