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18 June 2013

मौसम बड़ा भ्रष्ट है

इसी बात का कष्ट है
यहाँ सब कुछ स्पष्ट है
एक कोने मे सूखा-गर्मी
दूसरी जगह सब त्रस्त है
मौसम बड़ा भ्रष्ट है। 

कहीं बाढ़ की रार मची है
कहीं  रिमझिम की तान छिड़ी है
कोई भीगता भीगता हँसता
कोई भागता भागता रोता
दिन रात के सुकून को खोता।

उस समय को क्यों नहीं सोचा
जब हरियाली को है नोंचा
जैसा किया अब भोगो वैसा
नियम प्रकृति का स्पष्ट है
वो तो अपने ही में मस्त है।

रिश्वत संकल्प की चाहता मौसम
नंगे पहाड़ों का पेड़ ही वस्त्र हैं
मत उजाड़ो सुंदर धरती 
झरने नदियां हम से त्रस्त हैं
मौसम नहीं हम ही भ्रष्ट हैं ।

~यशवन्त माथुर©

9 comments:

  1. भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हैं ;)

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  2. उम्दा प्रस्तुति आभार . बघंबर पहनकर आये ,असल में ये हैं सौदागर .
    आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN "झुका दूं शीश अपना"

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  3. बहुत खूब
    सामयिक सार्थक अभिव्यक्ति
    हार्दिक शुभकामनायें

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  4. sacchi bat kah di kavita ke bahane ....

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  5. बहुत दिनों के बाद ब्लॉग पर आने के लिए क्षमा मांगता हूँ .लाजवाब रचना, आपने बहुत सच्ची बात की है---बधाई ।

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  6. मत उजाड़ो सुंदर धरती
    झरने नदियां हम से त्रस्त हैं
    मौसम नहीं हम ही भ्रष्ट हैं ।

    ...सच कहा है...बहुत सार्थक अभिव्यक्ति....

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  7. मौसम बड़ा भ्रष्ट है।
    ज़बरदस्त कटाक्ष ...

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  8. बहुत गहरी हैं ये जड़ें ...
    प्रभावी रचना है ...

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