जब कभी देखता हूँ
शब्दों के आईने में
अपना अक्स ...
तो बच नहीं पाता हूँ
खुद के बिखरे होने के
एहसास से।
©यशवन्त माथुर©
शब्दों के आईने में
अपना अक्स ...
तो बच नहीं पाता हूँ
खुद के बिखरे होने के
एहसास से।
©यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
बहुत खूब.....
ReplyDeleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteसाची बात !
ReplyDeleteआपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 02/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया....
ReplyDeleteशब्दों के आईने में जो दिखेगा वह शब्द शब्द ही तो होगा..निशब्द के आईने में ही देखना होगा..
ReplyDeleteउस बिखराव में भी एकाग्रता है ....
ReplyDeleteशब्दों के आईने में अक्स... क्या खूब बिम्ब हैं !
ReplyDeleteहे भगवान आप लोग क्या क्या लिख देते हो मेरे जैसे लोग तो समझते ही रह जाते हैं :)
ReplyDeleteबहुत खूब ...
ReplyDeletegehri soch liye kshnika.
ReplyDeleteshubhkamnayen
ऐसा ही होता है..
ReplyDeleteसुन्दर क्षणिका
:-)