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06 June 2020

वक्त के कत्लखाने में -20

यूं ही
यहीं कहीं
ठहर कर, रुक कर
आभासी चबूतरे पर
थोड़ा सुस्ता कर
मन का पंछी
उड़ने लगता है इस कदर
कि उसे
न कुछ सूझता है
न बूझता है
बस उड़ने लगता है
शब्दों के साथ
बेसुध हो कर
वक्त के कत्लखाने में।

-यशवन्त माथुर ©
06/06/2020 

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