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29 June 2020

हार कबूल है

न जाने कौन से जश्न में जीत मशगूल है।  
मैं मानता हूँ, हाँ! मुझे अपनी हार कबूल है।

इक दास्तां लिखी थी स्याही से, जो मिट गई।  
वक्त के दायरे में, और धूल में सिमट गई।

बचे-खुचे अल्फ़ाज़ भी बारिशों में बह गए।  
फिर भी कुछ कतरे हैं जो बुहरने से रह गए।

है मालूम कि बेशक ना-मालूम बना फिरता हूँ।  
उठता हूँ जब भी मगर अक्सर गिरा करता हूँ।

न जाने इस माहौल में ये कैसा क्या फितूर है। 
हार है कुबूल क्योंकि जीत कोसों दूर है।  

-यशवन्त माथुर ©
26062020

1 comment:

  1. विजेता हूं..अब ए हार आभार ले लो..
    कबूल किया था तुमको एक दिन..आज जीत का उपहार ले लो..
    कभी विवश था शायद मैं, तुमको अंतिम निर्णय माना..
    आज नई कहानी का विस्तार ले लो..
    ए हार मै अब भी तुम्हारी तरफ हूं..बस मुझे दूसरी पार ले लो

    सादर प्रणाम..

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