किताबों के रंगीन
पन्नों के भीतर
छुपी कालिख
सिर्फ स्याही
मे ही नहीं होती
पन्नों के सुर्ख रंग
कभी कभी
मुखौटा भी
हुआ करते हैं।
~यशवन्त माथुर©
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वाह ! गहरी बात सादगी से !!
ReplyDeleteशुभकामनायें !
अक्सर मुखौटे अपनी पहचान भूल जाते है यशवंत जी
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ReplyDeleteसुंदर और भावपूर्ण आज के जीवन संदर्भ में कहती हुई रचना
बधाई-------
आग्रह है मेरे ब्लॉग में सम्मलित हों,प्रतिक्रिया दें
jyoti-khare.blogspot.in
Bahut Sunder....
ReplyDeleteबहुत सुद्नर आभार अपने अपने अंतर मन भाव को शब्दों में ढाल दिया
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
एक शाम तो उधार दो
आप भी मेरे ब्लाग का अनुसरण करे
Bahut sundar Yashwant sach rang kala ho ya rango se bhara kisne kaha kala khush nahi hota kisne kaha laal hare ko dard nahi hota
ReplyDeleteपन्नों के सुर्ख रंग
ReplyDeleteकभी कभी
मुखौटा भी
हुआ करते हैं।
सच ,कभी कभी गहराई से झांके तो. .....अच्छी रचना
पन्नों के सुर्ख रंग
ReplyDeleteकभी कभी
मुखौटा भी
हुआ करते हैं।
bilkul sahi kaha. achhe sachche bhaav
shubhkamnayen