प्रतिलिप्याधिकार/सर्वाधिकार सुरक्षित ©

इस ब्लॉग पर प्रकाशित अभिव्यक्ति (संदर्भित-संकलित गीत /चित्र /आलेख अथवा निबंध को छोड़ कर) पूर्णत: मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित है।
यदि कहीं प्रकाशित करना चाहें तो yashwant009@gmail.com द्वारा पूर्वानुमति/सहमति अवश्य प्राप्त कर लें।

01 May 2020

वो मजदूर ही हैं



अपने घर जाने की आस में
सब ठीक होने के विश्वास में
पैदल ही मीलों चलते हुए
भूख-प्यास को भूलते हुए
वो मजदूर ही हैं
जो हाथ में एक झोला
और सिर पर गृहस्थी
को ढो रहे हैं
थक-हार कर
जिनके छोटे-छोटे बच्चे
माँ से लिपट कर रो रहे हैं।

वो मजदूर ही हैं
जो दो वक्त की चार-चार रोटी-
सब्जी और अचार पाने के लिए
किसी राजमार्ग पर लगे हुए हैं
लंबी लाइनों में
क्योंकि मशीनों के थमने के साथ
क्योंकि हँसियों और हथौड़ों  के रुकने के साथ
उनकी ज़िंदगी पर जंग लगने लगी है
हर अगली साँस तंग लगने लगी है।

क्या हो रहा है आज क्या कल होगा
क्या इन मुश्किलों का कोई हल होगा ?
या कि बस
कागजी आंकड़ों की
शतरंजी बिसातों  पर
रो-रो कर बीतते दिनों और रातों पर
बिना दिहाड़ी जेबें
उनकी अब तरसने लगी हैं
वो मजदूर ही हैं
जिनकी आँखों से
रिस-रिस कर उम्मीदें कहीं गिरने लगी हैं
मैंने सुना है
उनकी लाशें भी अब मिलने लगी हैं।

-यशवन्त माथुर ©
01/05/2020

2 comments:

  1. मजदूर दिवस को सार्थक करती सुन्दर प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  2. मार्मिक रचना, हल निकलेगा, उनके जीवट को हमें कम नहीं आंकना चाहिए

    ReplyDelete

Popular Posts

+Get Now!