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09 September 2010

समानता

ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में कहा गया है-

समानी व् आकूतिः सामना ह्र्दयानी वः।
समानमस्तु वो मनो यता वः सुसहासति॥
 
अर्थात  हे मनुष्यों!तुम्हारा ध्येय सामान हो,तुम्हारा ह्रदय सामान हो,तुम्हारा मन सामान हो जिससे तुम सब का व्यवहार सामान हो सके।
इस मन्त्र में तीन बातें कही गयीं हैं-
(१)ध्येय की समानता (२) ह्रदय की समानता और (३) मन की समानता होने पर ही हम सब अर्थात  विद्यमान जगत के समस्त प्राणी सुख से जीने की आशा कर सकते हैं क्योंकि जब इन तीनों में परस्पर समन्वय होगा तो हमें कोई कष्ट हो ही नहीं सकता.आइये जरा और गहराई से विचार करें-
(१)ध्येय की समानता-अर्थात प्रत्येक मनुष्य का एक निशित ध्येय होना चाहिए.बिना ध्येय के हम अपने कर्म ठीक प्रकार से नहीं कर सकते.ध्येय के निर्धारित कर लेने के पश्चात ही हमें ध्येय को प्राप्त करने के साधन सुलभ हो सकेंगे और उन साधनों के सहयोग से कर्म करते हुए हम सन्मार्ग पर चल कर ही अपना ध्येय प्राप्त कर सकते हैं.ऐसा नहीं है कि ध्येय की प्राप्ती सुगमता पूर्वक ही हो जाये अपितु ध्येय प्राप्ति के मार्ग में अनेकों बाधाएं भी आती हैं और उन बाधाओं का यदि हमने दृढ़ता पूर्वक सामना कर लिया तो फिर ध्येय को प्राप्त करने से हमें कोई नहीं रोक सकता.एक उदाहरण के तौर पर हम कह सकते हैं कि शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन का लक्ष्य (ध्येय)नयी दिल्ली से भोपाल तक जाना है रास्ते में कहीं कहीं बिना निर्धारित स्टेशन अथवा सुनसान इलाकों में तकनीकी कारणों से भी इसे रूकना पड़ता है फिर भी यह ट्रेन आखिरकार विलम्ब से ही सही अपने ध्येय (अथार्त भोपाल)तक पहुचती ही है.इसके विपरीत दिल्ली से चलते समय यदि निर्धारित न किया जाता कि कहाँ जाना है तो पाठक जन समझ सकते हैं कि क्या स्थिति होती.ध्येय की समानता का तात्पर्य इस श्लोक में यह है कि बाल्यावस्था में सभी का ध्येय विद्या अर्जन करना हो,युवावस्था में गृहस्थी चलाना व् धन संग्रह करना हो,तथा वृद्धावस्था में मोक्ष प्राप्ति हेतु ईश्वर की आराधना करना व् बालकों व् युवाओं का अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर शैक्षिक मार्गदर्शन करना होना चाहिए. वृद्धावस्था में ईश्वर से हमें यह भी प्रार्थना करनी चाहिए कि जीवन की बीत चुकी अवस्थाओं में यदि हम से अनजाने में कोई अपराध तो ईश्वर उस हेतु हमें क्षमा करे-

यदि दिवा यदि रक्त्मेनांसी चक्र्मा वयम।
वायुर्मा तस्मादेनसो विश्वन्मुंचतवं हसः॥
 
(२)ह्रदय की समानता -ह्रदय की समानता से आशय ह्रदयगत भावों की समानता से है.हम सबके ह्रदय शुद्ध,पवित्र और निर्मल हों.प्राणिमात्र के प्रति भी कोई दुर्भावना न रहे जिससे हम सद्कर्म करने को प्रेरित हों.यदि ह्रदय में विद्वेष की अग्नि धधकती रहेगी तो हम अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य से विमुख हो जायेंगे और परमपिता द्वारा मृत्यु के पश्चात् दिए जाने वाले मोक्ष से वंचित हो सकते हैं.इसलिए समस्त मानवों की ह्रदयगत कामनाओं का पवित्र होना आवश्यक है।

(३)मन की समानता-अर्थात प्रत्येक मनुष्य का मन शुद्ध विचारों से युक्त होना चाहिए तभी हम ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा रख सकते हैं.यदि आधुनिक दृष्टिकोण से सोचें तो मन world wide web (www) के सामान है.हम जानते हैं की world wide web इन्टरनेट पर उपलब्ध विभिन्न प्रकार की साइट्स का एक जटिल समूह है,जिसमे एक ही विषय पर अनेकों साइट्स हैं और दुनिया के किसी भी स्थान से हम कंपयूटर द्वारा इच्छित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं.इन साइट्स के समूह में कुछ अच्छी साइट्स है तो कुछ बुरी साइट्स भी हैं.ठीक इसी प्रकार हमारे मन में कुछ अच्छे विचार हैं तो कुछ बुरे विचार भी हैं और यह हमारे ऊपर निर्भर करता है की हम कौन से विचारों से प्रेरित हो कर अपना कार्य करते हैं.यदि हम अच्छे विचारों की अधिकता के कारन अच्छा कार्य करते हैं तो अच्छे कार्य का अच्छा परिणाम भी प्राप्त करते हैं.यजुर्वेद के अध्याय ३४ में हम ईश्वर से अपने मन को शिव अथार्त संकल्पों (विचारों)से युक्त बनाने की प्रार्थना करते हैं-

यज्जाग्रतो दूरमुदैति देवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरंगमम ज्योतिषाम ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥
 
इस प्रकार यदि हमारा मन अच्छे संकल्पों (विचारों) से युक्त रहेगा तो निश्चय ही हम सब सुखपूर्वक रह सकेंगे।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं की ध्येय,मन और ह्रदय के अंतर्संबंधित होने के कारन इन तीनों की समानता अथार्त इन तीनों में समन्वय का होना आवश्यक है.वेद हमें धर्म के नाम पर बांटते नहीं बल्कि समभाव का सन्देश देते हैं.वेदों ने प्रत्येक मनुष्य का गुण ,कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्गीकरण किया है जो वर्ण व्यस्था कहा जाता है.वेदों में समानता का आशय प्रत्येक प्राणी में ध्येय, मन और ह्रदय की समानता है जातियों की मतैक्यता से नहीं.सवाल यह उठता है कि आज के गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में जबकि प्रायः सभी का उद्देश्य साम,दाम,दंड,भेद की नीति से अर्थप्राप्ति जी रह गया है क्या हम ध्येय,मन और ह्रदय की समानता की उम्मीद कर सकते हैं? निश्चित ही इसके लिए हमें नदी की धारा के विपरीत चलने का प्रयास करना होगा.आवश्यकता है केवल मजबूत इच्छाशक्ति और सकारात्मक मानसिक अभिप्रेरणा की.

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग भवेत् ॥




नोट --प्रस्तुत आलेख अक्टूबर २००४(यह लेखक तब बी.कॉम अंतिम वर्ष का छात्र था) में आगरा से प्रकाशित एक त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है.

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