मंजिल तक पहुँचने की
जद्दोजहद
उनसे
न जाने क्या क्या
करवा देती है
कभी काँटों पर
चलवा देती है
भूखे-प्यासे
नंगे कदमों से
मीलों को नपवा देती है।
वो
बेरोजगार हो कर भी
अदा करते हैं
हर कीमत
सिर्फ इसलिए
कि देख सकें
चेहरे
अपने बिछुड़े हुए
परिवार
भूले हुए यार
और बिसरे हुए
खेतों की उस माटी के
जिससे हो चुके थे बहुत दूर
कुछ कमाने की
कुछ पाने की
दुश्वारी में।
लेकिन
यहाँ हम
अपनी मरी हुई संवेदनाओं
की शोकसभा
हर चौराहे पर
मनाते हुए
न कभी समझे हैं
न कभी समझेंगे
कि
हमारे विलासी जीवन की
नींव का हर आधार
रखने वाले
वो
मजदूर हैं
लेकिन मजबूर नहीं।
-यशवन्त माथुर ©
06/05/2020

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3694 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुन्दर और मार्मिक चित्रण
ReplyDeleteगरीबी से बढ़कर कोई मजबूरी नहीं, मार्मिक रचना !
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