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22 September 2010

क्या यही बचपन है?

रोज़ सुबह
मेरे घर के सामने से
जाते हैं स्कूल को
छोटे छोटे बच्चे
एक मीठी से मुस्कान होती है
उन के निश्छल चेहरे पर

और वो
अपनी नाज़ुक सी पीठ पर
चले जाते हैं
ज्ञान का बोझा ढोते हुए

हाँ!ज्ञान का बोझा ढोते हैं
ये प्यारे प्यारे बच्चे
वो ज्ञान
जो सिर्फ सिमटा हुआ है

बस्ते में रखी किताबों तक
वो ज्ञान
जो पार तो  करा  देगा
परीक्षा की नदी को

मगर क्या
पास करा देगा
जिंदगी के असली इम्तिहान  में?

ये छोटे छोटे
प्यारे प्यारे  बच्चे
जब खेलते हैं
हँसते हुए
कितने अच्छे लगते  हैं

मगर जब रोते हैं
कम नंबर आने पर
जब पिटते हैं
अपने पालन हारों से
दिल कचोट जाता है

क्या यही बचपन है?



8 comments:

  1. बिल्कुल सच है आज की शिक्षा व्यवस्था को देखते हुए यह सही है....बच्चों पर वो बोझ है जिसका अनावश्यक भार वो ढो रहे हैं।
    बहुत बढ़िया रचना

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  2. आपकी कविता बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर गयी.

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  3. आदरणीया वीना जी और संध्या जी,बहुत बहुत धन्यवाद.

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  4. आज बचपन पढ़ाई के बोझ तले दब गया है ... अच्छी विचारणीय रचना

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  5. नई पुरानी हलचल से आपकी इस पोस्ट पर आना हुआ है.
    बहुत ही सुन्दर पोस्ट है आपकी.
    बच्चों के प्रति संवेदनशीलता दर्शाती हुई.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

    नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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  6. शायद आज यही रह गयी है बचपन की परिभाषा।

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  7. बहुत बढ़िया रचना

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