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10 September 2010

मैं अकेला हूँ..

मैं नहीं सुनहरी प्रातः
ऊषा पूर्व की बेला हूँ
क्षण भंगुर जिसका आस्तित्व
मैं अकेला हूँ!

मैं निर्जन वन के शांत स्वरों में
चातक की विरहा पुकार नहीं
विद्वेषी ज्वाला का गोला
मैं अकेला हूँ!

कर्म का मर्म मैं क्या जानूं
मैंने तो बस ये जाना है
शांत नीर पर तरंग का रेला
मैं अकेला हूँ!

बासंती बयार नहीं
मैं पतझड़ का समय चक्र हूँ
जिसका नव प्रवर्तन निश्चित
मैं अकेला हूँ!

मैं नहीं तेजोमय
तम की अंधियारी बेला हूँ
आशा की किरण निहारता
मैं अकेला हूँ!


(जो मेरे मन ने कहा....)

टिप्पणी -प्रस्तुत

पंक्तियाँ१३/१२/२००४ को लिखी गयी थी.

9 comments:

  1. सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

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  2. मैं नहीं तेजोमय
    तम की अंधियारी बेला हूँ
    आशा की किरण निहारता
    मैं अकेला हूँ!

    गजब कि पंक्तियाँ हैं ...

    बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...

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  3. भास्कर जी,
    आप के उत्साहवर्धन के लिए तहे दिल से शुक्रिया...

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  4. बहुत सुन्दर भावमय कविता है। आभार।

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  5. आदरणीया निर्मला जी, शुक्रिया!आशा करता हूँ, आप अपना आशीर्वाद यूँ ही बनाये रखेंगी.

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  6. अकेले का विविध भावपूर्ण निरूपण बहुत अच्छा लगा ..
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति......

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  7. मैं नहीं तेजोमय
    तम की अंधियारी बेला हूं
    आशा की किरण निहारता
    मैं अकेला हूं

    बहुत ही खूबसूरती से मन के भावों को शब्दों में ढाला है...

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  8. आदरणीया कविता जी,वीना जी और शाहनवाज़ जी,आप की उत्साहवर्धक टिप्पणियों के लिए बहुत बहुत शुक्रिया और आप सबको ईद और गणेश चतुर्थी की शुभ कामनाएं.

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